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अष्टावक्र महागीता भाग-3 जो है सो है

ओशो

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :317
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7269
आईएसबीएन :81-89605-79-8

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Ashtavakra Mahageeta bhag-3 Jo Hai So Hai - A Hindi Book - by Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘यह जनक और अष्टावक्र के बीच जो चर्चा है, यह अद्भुत संवाद है। अष्टावक्र ने कुछ बहुमूल्य बातें कहीं। जनक उन्हीं बातों की प्रतिध्वनि करते हैं। जनक कहते हैं कि ठीक कहा, बिलकुल ठीक कहा; ऐसा ही मैं अनुभव कर रहा हूं; मैं अपने अनुभव की अभिव्यक्ति देता हूँ ? इसमें कुछ प्रश्नोत्तर नहीं है। एक ही बात को गुरु और शिष्य दोनों कह रहे हैं। एक ही बात को अपने-अपने ढंग से दोनों ने गुनगुनाया है। दोनों के बीच एक गहरा संवाद है। यह संवाद है, यह विवाद नहीं है। कृष्ण और अर्जुन के बीच विवाद है। अर्जुन को संदेह है। वह नई-नई शंकाएं उठाता है। चाहे प्रगट रूप से कहता भी न हो कि तुम गलत कह रहे हो, लेकिन अप्रगट रूप से कहे चला जाता है कि अभी मेरा संशय नहीं मिटा। वह एक ही बात है। वह कहने का सज्जनोचित ढंग है कि अभी मेरा संशय नहीं मिटा, अभी मेरी शंका जिंदा है; तुमने जो कहा वह जंचा नहीं।’’

अनुक्रम


२१. मनुष्य है एक अजनबी
२२. प्राण की यह बीन बजाना चाहती है ३५
२३. हर जगह जीवन विकल है ६८
२४. धार्मिक जीवन–सहज, सरल, सत्य १॰१
२५. अचुनाव में अतिक्रमण है १३४
२६. संन्यास : अभिवन का स्वागत १६३
२७. जगत उल्लास है परमात्मा का १९१
२८. जागते-जागते जाग आती है २२६
२९. विषयों में विरसता मोक्ष है २५७
३॰. धर्म अर्थात उत्सव २८८


प्रवचन : २१

ज्ञान मुक्ति है


अष्टावक्र उवाच।

न ते संगोऽस्ति केनापि किं शुद्धस्त्यक्तुमिच्छसि।
संघातविलयं कुर्वन्नेमेव लयं व्रज।।66।।
उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुदबुदः।
इति ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेव लयं व्रज।।67।।
प्रत्यक्षमप्यवस्तुत्वद्विश्वं नास्त्यले त्वयि।
रज्जुसर्प इव व्यकृमेवमेव लयं व्रज।।68।।
समदुःख सुखः पूर्ण आशानैराश्ययोः समः।
समजीवित मृत्युः सन्नैवमेव लयं व्रज।।69।।

जनक उवाच।

आकाशवदनंतोऽहं घटवत् प्राकृतं जगत्।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।।70।।
महौदधिरिवाहं स प्रपंचो वीचिसन्निभिः।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।।71।।
अहं स शुक्तिसंकाशो रूप्पवद्विश्वकल्पना।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।।72।।
अंह वा सर्वभूतेषु सर्वभूतान्ययो मयि।
इति ज्ञांन तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।।73।।

संसार छूटता है तो जरूरी नहीं कि अज्ञान की पकड़ छूट जाए। भोग छूटता है तो जरूरी नहीं कि भोग के आंतरिक कारण विनष्ट हो जाएं। आंतरिक कारण तो फिर भी मौजूद रहेंगे। तुम धन छोड़ दो; वह जो पकड़ने की आकांक्षा थी, वह त्याग को पकड़ लेगी। तुम घर छोड़ दो; वह जो पकड़ने की आकांक्षा थी, आश्रम को पकड़ लेगी। तुम बाजार छोड़ दो; वह जो पकड़ने की पुरानी वृत्ति थी, वह एकांत पकड़ लेगी। और पकड़ पकड़ की है... पकड़ छोड़नी है।

इसलिए जो व्यक्ति भोग से जागता है, उसके लिए तत्क्षण एक दूसरा खतरा पैदा होता है। वह खतरा भोगी को कभी नहीं है। वह खतरा केवल उसको है जो भोग से जागता है। वह खतरा है–त्याग में उलझ जाने का।
अगर पुरानी आदत बनी ही रही और परिवर्तन बाहरी हुआ, भीतर क्रांति न घटी, तो तुम त्याग में उलझ जाओगे। संसारी से संन्यासी हो जाओगे। धन छोड़ दोगे, परिवार, घर-द्वार छोड़ दोगे; लेकिन भीतर तुम्हारे जो जाल थे पकड़ने के, वे मौजूद रहेंगे। तुम कुछ और पकड़ लोगे। एक लंगोटी काफी है; कोई साम्राज्य नहीं चाहिए पकड़ने को। नंगापन भी आदमी पकड़ ले सकता है। त्याग भी आदमी पकड़ ले सकता है।

पुरानी सूफियों की एक कथा है। एक सम्राट जब छोटा बच्चा था, स्कूल में पढ़ता था, तो उसकी एक युवक से बड़ी मैत्री थी। फिर जीवन के रास्ते अलग-अलग हुए। सम्राट का बेटा तो सम्राट हो गया। वह जो उसका मित्र था, वह त्यागी हो गया, वह फकीर हो गया। उसकी दूर-दिंगत तक प्रशंसा फैल गई–फकीर की। यात्री दूर-दूर से उसके चरणों में आने लगे। खोजी उसका संत्संग करने आने लगे। जैसे-जैसे खोजियों की भीड़ बढ़ती गई, उसका त्याग भी बढ़ता गया। अंततः उसने वस्त्र भी छोड़ दिए वह दिंगबर हो गया। फिर तो वह सूर्य की भांति चमकने लगा। और त्यागियों को उसने पीछे छोड़ दिया।

लेकिन सम्राट को सदा मन में यह होता था कि मैं उसे भलीभांति जानता हूं, वह बड़ा अहंकारी था स्कूल के दिनों में, कालेज के दिनों में–अचानक इतना महात्याग उसमें फलित हो गया ! इस पर भरोसा सम्राट को न आता था। फिर यह जिज्ञासा उसकी बढ़ती गई। अंततः उसने अपने मित्र को निमंत्रण भेजा कि अब तुम महात्यागी हो गए हो, राजधानी आओ, मुझे भी सेवा का अवसर दो। मेरे प्रजाजनों को भी बोध दो, जगाओ !

निमंत्रण स्वीकार हुआ। वह फकीर राजधानी की तरफ आया। सम्राट ने उसके स्वागत के लिए बड़ा आयोजन किया। पुराना मित्र था। फिर इतना ख्यातिलब्ध, इतनी प्रशंसा को प्राप्त, इतना गौरवान्वित ! तो उसने कुछ छोड़ा नहीं, सारी राजधानी को सजाया–फूलों से, दीपों से ! रास्ते पर सुंदर कालीन बिछाए, बहुमूल्य कालीन बिछाए। जहां से उसका प्रवेश होना था, वहाँ से राजमहल तक दीवाली की स्थिति खड़ी कर दी।

फकीर आया, लेकिन सम्राट हैरान हुआ... वह नगर के द्वार पर उसकी प्रतीक्षा करता था अपने पूरे दरबारियों को लेकर, लेकिन चकित हुआ : वर्षा के दिन न थे, राहें सूखी पड़ी थीं, लोग पानी के लिए तड़फ रहे थे और फकीर घुटनों तक कीचड़ से भरा था। वह भरोसा न कर सका कि इतनी कीचड़ राह में कहां मिल गई, और घुटने तक कीचड़ से भरा हुआ है ! पर सबके सामने कुछ कहना ठीक न था। दोनों राजमहल पहुंचे। जब दोनों एकांत में पहुंचे तो सम्राट ने पूछा कि मुझे कहें, यह अड़चन कहां आई ? आपके पैर कीचड़ से भरे हैं !

उसने कहा, अड़चन का कोई सवाल नहीं। जब मैं आ रहा था तो लोगों ने मुझसे कहा कि तुम्हें पता है, तुम्हारा मित्र, अपना वैभव दिखाने के लिए राजधानी को सजा रहा है ? वह तुम्हें झेंपाना चाहता है। तुम्हें कहना चाहता है, ‘तुमने क्या पाया ? नंगे फकीर हो ! देखो मुझे !’ उसने रास्ते पर बहुमूल्य कालीन बिछाए, लाखो रुपये खर्च किए गए हैं। राजधानी दुल्हन की तरह सजी है। वह तुम्हें दिखाना चाहता है। वह तुम्हें फीका करना चाहता है।... तो मैंने कहा कि देख लिए ऐसा फीका करने वाले ! अगर वह बहुमूल्य कालीन बिछा सकता है, तो मैं फकीर हूं, मैं कीचड़ भरे पैरों से उन कालीनों पर चल सकता हूं। मैं दो कौड़ी का मूल्य नहीं मानता !

जब उसने ये बातें कहीं तो सम्राट ने कहा, अब मैं निश्चिंत हुआ। मेरी जिज्ञासा शांत हुई। आपने मुझे तृप्त कर दिया। यही मेरी जिज्ञासा थी।
फकीर ने पूछा, क्या जिज्ञासा थी ?
‘यही जिज्ञासा थी कि आपको मैं सदा से जानता हूं। स्कूल में, कालेज में आपसे ज्यादा अहंकारी कोई भी न था। आप इतनी विनम्रता को उपलब्ध हो गए, यही मुझे संदेह होता था। अब मुझे कोई चिंता नहीं। आओ हम गले मिलें, हम एक ही जैसे हैं। तुम मुझ ही जैसे हो। कुछ फर्क नहीं हुआ है। मैंने एक तरह से अपने अहंकार को भरने की चेष्टा की है–सम्राट होकर; तुम दूसरी तरह से उसी अहंकार को भरने की चेष्टा कर रहे हो। हमारी दिशाएं अलग हों, हमारे लक्ष्य अलग नहीं। और मैं तुमसे इतना कहना चाहता हूं, मुझे तो पता है कि मैं अहंकारी हूं, तुम्हें पता ही नहीं कि तुम अहंकारी हो। तो मैं तो किसी न किसी दिन इस अहंकार से ऊब ही जाऊंगा, तुम कैसे ऊबोगे ? तुम पर मुझे बड़ी दया आती है। तुमने तो अहंकार को खूब सजा लिया। तुमने तो उसे त्याग के वस्त्र पहना दिए।’

जो व्यक्ति संसार से ऊबता है, उसके लिए त्याग का खतरा है।
दुनिया में दो तरह के संसारी हैं–एक, जो दुकानों में बैठे हैं; और एक, जो मंदिरों में बैठे हैं। दुनिया में दो तरह के संसारी हैं–एक, जो धन इकट्ठा कर रहे हैं; एक जिन्होंने धन पर लात मार दी है। दुनिया में दो तरह के दुनियादार हैं–एक जो बाहर की चीजों से अपने को भर रहे हैं; और दूसरे, जो सोचते हैं कि बाहर की चीजों को छोड़ने से अपने को भर लेंगे। दोनों की भ्रांति एक ही है। न तो बाहर की चीजों से कभी कोई अपने को भर सकता है और न बाहर की चीजों को छोड़ कर अपने को भर सकता है। और न बाहर की चीजों को छोड़ कर अपने को भर सकता है। भराव का कोई भी संबंध बाहर से नहीं है।
अष्टावक्र ने पहले तो परीक्षा ली जनक की। आज के सूत्रों में परीक्षा नहीं लेते, प्रलोभन देते हैं। वह प्रलोभन, जो हर त्यागी के लिए खड़ा होता है; वह प्रलोभन, जो भोग से भागते हुए आदमी के लिए खड़ा होता है। आज वे फुसलाते हैं जनक को कि तू त्यागी हो जा। अब तुझे ज्ञान हो गया, अब तू त्याग को उपलब्ध हो जा। अब छोड़ सब ! अब उठ इस मायामोह के ऊपर !

ये जो सूक्ष्म प्रलोभन अष्टावक्र देते हैं जनक को, यह पहली परीक्षा से भी कठिनतर परीक्षा है। लेकिन यह प्रत्येक भोग से हटने वाले आदमी के जीवन में आता है; इसलिए बिलकुल ठीक अष्टावक्र करते हैं। ठीक ही है यह प्रलोभन का देना।
और जब तक कोई त्याग से भी मुक्त न हो जाए तब तक कोई मुक्त नहीं होता। भोग से तो मुक्त होना ही है, त्याग से भी मुक्त होना है। संसार से तो मुक्त होना ही है। मोक्ष से भी मुक्त होना है। तभी परम मुक्ति फलित होती है।
परम मुक्ति का अर्थ ही यही है कि अब कोई चीज की आकांक्षा न रही। त्याग में तो आकांक्षा है। तुम त्याग करते हो तो किसी कारण करते हो। और जहां कारण है, वहां कैसा त्याग ? फिर भोग और त्याग में फर्क क्या रहा ? दोनों का गणित तो एक हो गया।

एक आदमी भोग में पड़ा है, धन इकट्ठा करता, सुंदर स्त्री की तलाश करता, सुंदर पुरुष को खोजता, बड़ा मकान बनाता–तुम पूछो उससे, क्यों बना रहा है ? वह कहता है, इससे सुख मिलेगा। एक आदमी सुंदर मकान छोड़ देता, पत्नी को छोड़ कर चला जाता, घर-द्वार से अलग हो जाता, नग्न भटकने लगता, संन्यासी हो जाता–पूछो उससे, यह सब तुम क्यों कर रहे हो ? वह कहेगा, इससे सुख मिलेगा। तो दोनों की सुख की आकांक्षा है और दोनों मानते हैं कि सुख को पाने के लिए कुछ किया जा सकता है। यही भ्रांति है।

सुख स्वभाव है। उसे पाने के लिए तुम जब तक कुछ करोंगे, तब तक उसे खोते रहोगे। तुम्हारे पाने की चेष्टा में ही तुमने उसे गंवाया है। संसारी एक तरह से गंवाता, त्यागी दूसरी तरह से गंवाता। तुम किस भांति गंवाते, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम किस ढंग की शराब पीकर बेहोश हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम किस मार्के की शराब पीते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

लेकिन इस गणित को ठीक खयाल में ले लेना। संसारी कहता है, इतना-इतना मेरे पास होगा तो मैं सुखी हो जाऊँगा। त्यागी कहता है, मेरे पास कुछ भी न होगा तो मैं सुखी हो जाऊंगा। दोनों के सुख सशर्त हैं। और जब तक तुम शर्त लगा रहे हो सुख पर, तब तक तुम्हें एक बात समझ में नहीं आई कि सुख तुम्हारा स्वभाव है। उसे पाने कहीं जाना नहीं; सुख मिला ही हुआ है। तुम जाना छोड़ दो। तुम कहीं भी खोजो मत। तुम अपने भीतर विश्राम में उतर जाओ।
यही तो अष्टावक्र ने प्राथमिक सूत्रों में कहा : चैतन्य में विश्राम को पहुंच जाना ही सुख है, आनंद है, सच्चिदानंद है।
तुम कहीं भी मत जाओ ! तरंग ही न उठे जाने की ! जाने का अर्थ ही होता है : हट गए तुम अपने स्वभाव से। मांगा तुमने कुछ, चाहा तुमने कुछ, खोजा तुमने कुछ–च्युत हुए अपने स्वभाव से। न मांगा, न खोजा, न कहीं गए–की आंख बंद, डूबे अपने में !

जो है। वह इसी क्षण तुम्हारे पास है। जो है, उसे तुम सदा से लेकर चलते रहे हो। जो है वह तुम्हारी गुदड़ी में छिपा है। वह हीरा तुम्हारी गुदड़ी में पड़ा है। तुम गुदड़ी देखते हो और भीख मांगते हो। तुम सोचते हो, हमारे पास क्या ? और हीरा गुदड़ी में पड़ा है। तुम गुदड़ी खोलो। और जिसे तुम खोजते थे, तुम चकित हो जाओगे, वही तो आश्चर्य है–जो जनक को आंदोलित कर दिया है। जनक कह रहे हैं, ‘आश्चर्य ! ऐसा मन होता है कि अपने को ही नमस्कार कर लूं, कि अपने चरण छू लूं ! हद हो गई, जो मिला ही था, उसे खोजता था ! मैं तो परमेश्वरों का परमेश्वर हूं ! मैं तो इस सारे जगत का सार हूं ! मै तो सम्राट हूं ही और भिखारी बना घूमता था !’

सम्राट होना हमारा स्वभाव है; भिखारी होना हमारी आदत। भिखारी होना हमारी भूल है। भूल को ठीक कर लेना है; न कहीं खोजने जाना है, न कुछ खोजना है।
तो जब कोई व्यक्ति भोग से जागने लगता है तब खतरा खड़ा होता है। फिर भी वह मांगेगा वही।

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