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पौ फटने से पहले

अरुण कुमार असफल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 727
आईएसबीएन :81-263-1146-0

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इस कहानी में देश के भीतर अनेक कचोटती हुई स्थिति समाज और व्यक्ति दोनों के भटकाव का चित्रण....

Pau Phatne Se Pahle

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पिछले कुछ दशकों में हिन्दी कहानी अपने विविध आयामों में विकसित होकर समकालीन हिन्दी साहित्य के सामर्थ्य की पहचान जैसी बन चुकी है। उसे इस स्थान पर पहुँचाने में कहानी-लेखकों की चार पीढ़ियों का विशिष्ट योगदान तो है ही, सबसे अधिक उल्लेखनीय तथ्य है कई नयी पीढ़ी के सशक्त लेखकों का आविर्भाव, जो एक ओर विभिन्न सामाजिक विडम्बनाओं को भलीभाँति समझते हैं और दूसरी ओर उन स्थितियों में फँसे हुए व्यक्ति की नियति का बड़े सूक्ष्म संवेदनात्मक स्तर पर अनुभव करते हैं। इन लेखकों में अरुण कुमार ‘असफल’ का अपना विशिष्ट स्थान है और इस संग्रह—‘पौ फटने से पहले’—की कहानियाँ उस स्थान की हैसियत का स्वतः प्रमाण हैं।

लेखक के विषय वस्तु सम्बन्धी वैविध्य और अनुभव की विस्तीर्णता—और उन अनुभवों को सहज कल्पनाशीलता के सहारे अपने खास शैली में कहानी बना देने की क्षमता विस्मयजनक रूप से एक नयेपन और ताज़गी का एहसास कराती है। इन्ही विशेषताओं के चलते वे सामाजिक विसंगतियाँ भी—जैसे दलित, नारी या अलपसंख्यकों की स्थिति, जो हमारे बीच बहुत मुखर रूप में मौजूद है—‘पुनर्जन्म’, ‘अपराध’ जैसी कहानियों के माध्यम से रचनाशीलता की सर्वथा नयी छटाएँ दिखाते हुए हमें एक अप्रत्याशित अनुभव के मोड़ पर लाकर छोड़ती हैं।

ये कहानियाँ किसी बनेबनाये फार्मूला से सर्वथा बचकर खुद अपनी राह का अन्वेषण करती नज़र आती हैं। इसे ‘अन्तहीन अन्त’ में खास तौर से देखा जा सकता है जहाँ मध्यवर्गीय परिवारों में कन्या के लिए वर की खोज जैसी सुपरिचित थीम को ल्यूकोडर्मा के रोग से वास्तविक और प्रतीकात्मक—दोनों रूपों में जोड़कर पूरे प्रश्न को एक सर्वथा नया आयाम दिया गया है।

लेखक ने सम्पूर्ण भारतीय समाज पर व्यापक दृष्टि डाली है, तभी जहाँ ‘मउगा’ जैसी कहानी में निम्नमध्य-वर्गीय ग्रामीण परिवार की वैवाहिक विडम्बनाएँ उजागर होती हैं, वहीं अन्य कहानियों में देश के भीतर अनेक कचोटती हुई स्थिति समाज और व्यक्ति दोनों के भटकाव का चित्रण करती हैं।
निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ये कहानियाँ पाठक के लिए पठनीयता का उल्लासपूर्ण अनुभव ही नहीं देंगी, उसे सोचने को मजबूर भी करेंगी, कुछ हद तक बेचैन भी बनाएँगी।

पुनर्जन्म

‘‘ पूउऽऽ...’’
         पण्डित बेनीमाधव ने अन्तिम बार शंख बजाया। सत्यानारायण की कथा समाप्त हुई। इसके साथ ही दिनभर में पाँचवी बार खेले गये नाटक का पटाक्षेप हुआ।
‘‘आओ रेऽऽ ! जल्दी आओ ।’’ उसने हाथ में लाल रक्षासूत्र लहराते हुए हाँक लगायी। उसके इर्द-गिर्द बैठे लोगों से श्रद्धापूर्वक अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया। पण्डित बेनीमाधव ‘येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वां प्रति बन्धनाति रक्षे मा चल मा चलः !’ बुदबुदाता हुआ हर हाथ में लाल डोरी की गाँठ लगाता जा रहा था। बीच-बीच में अधमुँदी आँखों से आस-पास फैले दान-दक्षिणा के अम्बार पर नजर डाल रहा था।
नकद राशि को तो उसने कुर्ते की जेब के हवाले किया तथा फल-खाद्यान्न इत्यादि पहले से ही आधे भरे एक बड़े थैले में ठूँस-ठूँसकर, उठ खड़ा हुआ। उसके उठते ही लोगों में उसके पैर छूने की होड़ लग गयी।
‘‘अब बस भी करो भइया !’’ वह आत्मसन्तुष्ट होकर आसपास के लोगों को झिड़कते हुए बोला।

पर अन्ध श्रद्धा से वशीभूत लोगों को जो करना था वह करके ही माने। उनसे पीछा छुड़ाने के बाद वह घर से बाहर निकल आया। सूरज डूबे काफी वक्त हो चुका था। उसने कुर्ते की बाँह सरकाकर घड़ी देखी। पूरी रात होने में एक घण्टा बाकी था। यदि रास्ते में कोई वाहन सुख मयस्सर नहीं हुआ तो उसे तहसील बाजार तक साढ़े पाँच कोस पैदल चलना पड़ सकता था। फिर तहसील बाजार से अपने गाँव तक पहुँचने के लिए एक कोस पैदल चलना ही था। राह चलते इक्के-दुक्के वे लोग जो उन्हें पहचानते थे ‘पाँय लागी पण्डितजी’ कहकर कन्नी काट रहे थे। कम्बख्त कोई यह नहीं पूछ रहा था कि ‘कहाँ जाइयेगा पण्डित जी ?’ न तो कोई प्रस्ताव ही रख रहा था कि ‘आइये न साइकिल से छोड़ देते हैं।’ उसने वितृष्णा से मुँह सिकोड़ लिया। आजकल पण्डितों-पुरोहितों की पूछ घट गयी है।

ज्यों-ज्यों अँधेरा घिरता जा रहा था उसके कदम खड़ंजे पर बढ़ते जा रहे थे। कुल रास्ते का आधे से अधिक भाग उसे ऐसे ही खड़ंजों, कच्चे रास्तों एवं पगडण्डियों पर चलकर पूरा करना था। तत्पश्चात पक्की सड़क पर आकर उसे किसी ट्रक, ट्रैक्टर या बैलागाड़ी की प्रतीक्षा में कम-से-कम आधा घण्टा खड़ा रहना पड़ सकता था। पर उसे पक्की सड़क की यात्रा का भय नहीं था। बस यह ढाई-तीन कोस का कच्चा रास्ता कट जाता तो सत्यनारायण भगवान की एक और कृपा मानता।
बेनीमाधव के लिए तीन-चार कोस का रास्ता पैदल पार करना कोई तारे तोड़ लाने जैसी बात नहीं थी। गँवई आदमी था। ऐसे रास्ते मजे-मजे में कट जाते हैं। लगभग हर दूसरे या तीसरे दिन कोई ऐसा अवसर आ ही जाता जब इससे ज्यादा लम्बे रास्ते पर से पैदल चलना पड़ता। उसे अहसास भी नहीं होता। रही बात अंधेरे की, तो उसे आधी रात को पगडण्डियों एवं खेतों की मेड़ों पर चलने का अनुभव था। पर आज परिस्थिति कुछ दूसरी थी। थकान से उसका पोर-पोर दुख रहा था। लोभवश वह आज पाँच घरों में कथा बाँच आया। कभी जवानी के दिनों में पाँच क्या एक ही दिनों में सात-सात घरों में कथा बाँचकर भी उसका मन नहीं भरता था। लेकिन ढलती उम्र में पनपे रोग उसके लोभ पर कुछ हद तक लगाम लगाए रखते थे और अब एक दिन में दो बार या बहुत पैसे की जरूरत हुई तो तीन घरों का लक्ष्य रहता था। हालाँकि बेनीमाधव मन मारकर रह जाता कि अब जब जिम्मेदारियाँ ज्यादा हैं, तो उसके अन्दर सामर्थ्य ही नहीं। पर एकदम तंगी की स्थिति में वह अपने सामर्थ्य की भी परवाह नहीं करता, जैसा कि उसने आज किया।

किसी तरह घिसटते हुए चलकर वह टिकरी गाँव के पंचायत घर के सामने वाली पुलिया पर बैठ गया। उसने वहीं से टिकरी गाँव की ओर नजर डाली।
खपरैल के मकानों से घिरे नौ-दस पक्के मकानों पर उसकी नजर टिक गयी। आज इन्हीं में से पाँच घरों में कथा-बाँचकर उसने अपना थैला भरा था। फिर उसने पंचायत भवन के आसपास नजर डाली। भवन के बरामदे में गायें बैठी जुगाली कर रही थीं। वह कुर्ते की दायीं-बायीं जेब से रुपये निकाल कर गिनने में मशगूल हो गया। दस...बीस...पचास...सौ...छह सौ छियालिस रुपये ! उसकी आँखें चमक उठीं। नोटों को उसने बनियान के अन्दर बनी चोर जेब में ठूँस लिया और रेजगारी को वजन के हिसाब से बराबर-बराबर बाँटकर कुर्ते की दोनों जेबों में डाल लिया। उसने पुनः इधर-उधर नजर दौड़ाई। आस-पास कोई नहीं था। उसने चैन की साँस ली।

पुलिया पर बैठे-बैठे ही उसने पश्चिम दिशा की ओर एक विहंगम दृष्टि डाली। पुलिया से कोई दो सौ गज की दूरी पर स्थित बँसवाड़ी ने उसकी स्मृतियों को ताजा कर दिया। दो वर्ष पूर्व जब वह इसी रामसरना के घर कथा बाँचने आया था तो रामसरना के घर का एक आदमी उसके साथ हो लिया था। वह इसी पुलिया से उतरकर बँसवाड़ी के बगल से होते हुए शार्टकट से एक घण्टे से भी कम समय में मेन रोड तक पहुँच गया था, जहाँ से तहसील तक सिर्फ डेढ़ कोस का रास्ता था।
बेनीमाधव अपनी पुरानी स्मृतियों के भरोसे खड़ंजा छोड़कर पुलिया के आगे से ही नीचे उतर गया। इस समय वह पश्चिम दिशा की ओर उन्मुख था। उसने ऊपर देखा। आकाश का सिन्दूरी रंग स्याह होता जा रहा था। बँसवाड़ी के पास आकर उसे दूर एक खलिहान नजर आया।

उसकी स्मृति लौट रही थी। पिछली बार भी वह खलिहान के पास से गुजरा था। खलिहान का लक्ष्य साधे हुए वह पश्चिम दिशा में बढ़ता चला गया। उसे खेतों की मेड़ों पर सन्तुलन बनाकर चलना पड़ रहा था। रबी की फसल की बुवाई का समय था। खेतों की मिट्टी गीली थी। अतः खेत में पाँव पड़ने से कीचड़ लग जाने का भय भी लग रहा था। कहीं-कहीं मटर एवं जौं अंकुरित हो चुके थे। खलिहान के बगल के खेत में बैगन लगे हुए थे। चमकीले बैगनी रंग के बैगन को देखकर उसकी लार टपक पड़ी। इधर-उधर देखकर उसने पाँच छह बैगन तोड़कर चुपचाप थैले में रख लिये। खलिहान के पास एक फूस की बनी छानी थी। उसमें कोई प्राणी नजर नहीं आया। छानी के बाहर एक ढीली-ढाली चारपाई पड़ी हुई थी। न तो खलिहान में कोई था और न ही उसके आस-पास कोई दिख रहा था। हाँ पश्चिमोत्तर दिशा में झुण्ड से बिछुड़ी एक भैंस रँभाती हुई गाँव की ओर भागी जा रहा थी। अपने तबेले की ओर पहुँचने की जिस चिन्ता से भैंस उतावली थी, घर तक पहुँचने की वही चिन्ता बेनीमाधव के चेहरे पर पढ़ी जा सकती थी। जो दूर पश्चिम दिशा में, जंगलात विभाग द्वारा संरक्षित, विरल जंगल को बड़े ध्यान से निहार रहा था। जहाँ वह खड़ा था, वहाँ से ठीक पश्चिम दिशा में जंगल के बीच में खेत का टुकड़ा दिखा। उसकी स्मृति को कुछ सुराग मिला। यह जंगल का नवरोपित हिस्सा था।

उसे याद आया कि पिछली बार जब रामसरन के आदमी के साथ जा रहा था तो वह जंगल के इस नवरोपित हिस्से से होकर ही गया था। उस आदमी ने उस समय दाहिना हाथ उठाकर उस ओर जहाँ जंगल अपेक्षाकृत कुछ सघन था, संकेत करते हुए कहा था कि सबसे शार्टकट रास्ता इस जंगल के बीच से है, लेकिन उस जंगल में एक पोखर भी है, जिसमें मरे जानवर सड़ते रहते हैं और उसकी दुर्गन्ध से पूरा जंगल गँधाता रहता है। इसलिए उस आदमी ने उसे जंगल के उस हिस्से से न ले जाकर इसी नवरोपित हिस्से से होते हुए उसे मेंन रोड तक पहुँचा दिया था। यहाँ तक उसकी गणना ठीक बैठी थी। वह तनाव मुक्त होकर आगे बढ़ पड़ा। वह मुश्किल से सौ गज आगे और बढ़ा होगा कि उसे दूर पश्चिमोत्तर दिशा में जंगल के बीच एक और नवरोपित हिस्सा नजर आया। पहली बार उसे अपनी याद्दाश्त पर शंका हुई। अचकचाकर वह अपने चारों ओर देखने लगा। उत्तर की ओर एक खलिहान उसे नजर आया। उसका सर घूम गया। कहीं पिछली बार उस उत्तर दिशा वाले खलिहान से तो होकर नहीं गया था ?

अँधेरा छाता जा रहा था पर अभी भी आधे-घण्टे पर का उजाला बाकी था। पर क्या पता इस भूलभुलैया से निकलने में कितना वक्त लग जाए ? अपने बसेरे की ओर लौटते तोतों का झुण्ड उसके ऊपर से निकल गया पर वह उनसे बेखबर था, अपने बसेरे की राह तलाशने में माथापच्ची कर रहा था। अचानक दूर बेर की झाड़ियों के पास एक मानव आकृति प्रकट हुई। वह जंगल की दिशा में बढ़ रहा था। उसकी पीठ बेनीमाधव की ओर थी। किसी की पीठ ही सही। डूबते को तिनके का सहारा बेनीमाधव ने गला फाड़कर हाँक लगायी-
   ‘‘ अरेऽऽ ओ भइया ! जरा ठहरो तो !’’

आगे बढ़ते हुए व्यक्ति के कदम ठिठक गये। पलटकर उसे घूरने लगा। बेनीमाधव गिरता-पड़ता उसकी ओर बढ़ने लगा। करीब जाकर उसे गौर से देखा। उसके एक हाथ में बिना मूठ का छूरा था। उसकी कद-काठी अच्छी थी और रंग साँवला था। चेहरा तपता हुआ। आँखों में आक्रोश। बेनीमाधव क्षणभर के लिए विचलित हो गया। हाँफते हुए बोला, ‘‘हम पण्डित हैं भई। यहीं टिकरी में आये थे कथा बाँचने। राह भटक गये हैं।’’ उसकी भृकुटियाँ टेढ़ी हो गयीं। बेनीमाधव अचकचा गया।
    ‘‘कहाँ जाना है ?’’ आदमी ने खीजकर पूछा।
‘‘मेन रोड तक का रास्ता बता दो भइया !’’ बेनीमाधव ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘वहाँ से ट्रक-ट्रैक्टर कुछौ मिल जाएगा तो हम बैठ लेगें।’’
जब उसके चेहरे का खिंचाव काफी देर तक कम न हुआ और आँखों से अंगारे बरसने बन्द न हुए तब बेनीमाधव ने समझ लिया कि अजनबी की यह मुद्रा कुदरती है अन्यथा उसने उसका क्या बिगाड़ा था कि वह उसे खा जाने वाली निगाहों से घूरे जा रहा है। इस बात की कल्पना से उसे बल मिला।

‘‘मेरे पीछे-पीछे आओ !’’ वह रुखाई से बोला। फिर उसकी प्रतीक्षा किये बगैर आगे बढ़ गया। बेनीमाधव भी बच्चों जैसी चपलता दिखाते हुए उसके पीछे हो लिया।

अजनबी बगैर आगे-पीछे देखते हुए नपे-तुले कदमों से आगे बढ़ रहा था। उसकी चाल में उसकी बोली जैसी अक्खड़ता थी। उसकी चाल से जरा भी आभास नहीं हो रहा था कि कोई उसका अनुसरण भी कर रहा है। बेनीमाधव की अब तक की पूरी जिन्दगी गाँव में ही बीती थी। फिर भी खेतों की मेड़ों पर उसकी चाल उतनी सधी हुई न थी जितनी उस अजनबी की। यहाँ तक की उस अजनबी से अपना फासला कम करने की हड़बड़ी में उसके कदम फिसलकर मेड़ों से फिसल कर खेत में धँस जाते थे और फासला घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा था। लाचार होकर बेनीमाधव अपने रहनुमा को अपनी चाल धीमी करने का आग्रह करने ही वाला था कि लगा वह उसके मन की बात सुनकर एकाएक रुक गया। उसने कान पर रखी अपनी बीड़ी निकाल कर सुलगा ली। वह बीड़ी सुलगाने भर तक के लिए ही रुका था। इसके तुरन्त बाद वह कश भरता हुआ बिना बेनीमाधव की परवाह किये पुनः आगे बढ़ गया। इस क्षणिक रुकने का बेनीमाधव को यह लाभ मिला कि वह अब लगभग उसके पास पहुँचकर साथ चलने लगा था।

‘‘खास तहसील में घर है का ? बीड़ी का एक और कश लगाते हुए उसने पूछा।
‘‘तहसील से कोस-भर उत्तर बंजरिया में।’’
‘‘बंजारिया में ?’’ अजनबी थोड़ा चौंक, ‘‘उ तो ठाकुर लोगों का गाँव है जी !’’
‘‘हाँ, पर नौ-दस घर ब्राह्मणों का भी है।’’
‘‘इहाँ इत्ती दूर ई बखत कथा बाँचने आते हो ?’’

बेनीमाधव को अजनबी की पूछताछ की दरोगाई शैली बहुत अखर रही थी। लेकिन इसे अजनबी का स्वाभाविक गुण मानकर नजरअन्दाज कर देना उसकी विवशता थी।
‘‘अरे टिकरी गाँव में हमारा एक पुराना यजमान है-रामसरना अहीर ! हमारे घर आकर जिद करने लगा कि चलो सत्यनारायण की कथा बाँच दो।...बोलता था कि हमारे अलावा अउर कउनो पण्डित की कथा फलती नहीं। उसके घर से निकले तो सामने के दयालाल बनिया ने पकड़ लिया कि पण्डित जी आज का दिन शुभ है हमारा घर भी शुद्ध कर लो। फिर उसके बगल वाला हाथ जोड़कर खड़ा हो गया कि पण्डित जी मन्नत माँग रखी है अब कउन जाय दूसरा पण्डित बुलाने अब तुम्ही कथा सुना दो।...इस तरह से कुल पाँच घर कथा का पाठ किये लेकिन सिवाय राम सरना के, हम कउनो को ठीक से जानते भी नहीं।’’

‘‘रामसरना को कउन नहीं जानता !’’ अजनबी ने व्यंग्य किया, ‘‘इलाके का माना हुआ सेंधिया है। लगता है ई मरतबा कउनो बड़ा गठरी हाथ लगा है।’’

‘‘रामसरना ! अउर चोर !’’ बेनीमाधव बिदक गया, ‘‘नहीं, नहीं अइसा नहीं हो सकता।’’
‘‘काहे ?’’ वह तुनककर बोला, ‘‘तुम्हारा पुराना चेला है इसलिए ?’’

बेनीमाधव चिढ़ गया। लेकिन राह चलते आदमी से उलझने की उसमें हिम्मत नहीं थी। चुपचाप उसका अनुसरण करते हुए जंगल में पहुँच गया। जंगल में पाँव रखने से पहले ही अँधेरा हो चुका था। फिर पूर्णिमा का चाँद उसकी आवश्यकता-भर मदद कर रहा था। ढलती साँझ का वक्त, जंगल में मोरों की आवाज आ रही थी। वे लोग जिस रास्ते पर चल रहे थे वह बैलगाड़ी का रास्ता था। जंगल अधिक सघन न होने के कारण कई और रास्ते इधर-उधर से आकर उस रास्ते में मिल जा रहे थे। अचानक बेनीमाधव ठिठका और झुककर कोई चीज उठा ली। वह सूखी टहनी थी। धूल झाड़ने के उद्देश्य से उसने पास के महुए पत्ते पर उसे दो-तीन बार उसे मारा। अजनबी ने पलटकर उसे देखा ‘‘साँप-वाप के खातिर रख लेते हैं,’’ बेनीमाधव ने मानो उसे सफाई दी, ‘‘तू भी कुछ रख ले भइया ! रात का बखत है।’’
‘‘हम कीड़ा-मकोड़ा से नहीं डरते।’’ वह ऐंठकर बोला।

‘‘तब छुरा काहे थामे हो ? बेनीमाधव ने डरते-डरते हुए पूछ लिया, क्योंकि जब से उसकी नजर छुरे पर पड़ी थी तभी से रह-रहकर उसके मन में यह बात खटक रही थी। अब जाकर पूछने का बहाना मिल ही गया।
‘‘छुरा से हम साँप-बिच्छू मारेगा ?’’ वह विद्रुपता से बोला, ‘‘गये थे खाल उतारने पर कउनो साला पहले ही हाथ मार गया। आज का पूरा दिन खराब ही निकला।’’
‘‘खाल !’’ बेनीमाधव ने नाक-भौं सिकोड़ लिया, ‘‘कउन जात है रे ?’’
‘‘चऽऽमाऽऽरऽऽ !’’ आगे से गरजती आवाज आयी। बेनीमाधव ने इस आवाज से, चाँद की दूधिया रोशनी में पत्तों को हिलते हुए महसूस किया। स्वयं बेनीमाधव के सीने में यह आवाज हथौड़े के मानिन्द लगी।
‘‘चमार...हुँह !’’ बेनीमाधव तमककर बोला, ‘‘हरिजन नहीं ?’’
‘‘का फरक पड़ता है !’’

‘‘अच्छा जी ! अउर अगर हम लोग तुम्हें चमार बोल दें तो छाती पर सवार हो जाओगे।’’
‘‘कब हुए थे छाती पर सवार ?’’ आदमी ने पलटकर पूछा, ‘‘तुम लोग तो हमें ढंग से उठने भी नहीं देते।’’
‘‘तुम लोग का पेट कब्बो भरेगा ?...अँय ?’’ बेनीमाधव तैश में आ गया, ‘‘इत्ता उठ गये हो और तिस पर बोलते हो कि उठने न दिया। गौरमिण्ट ने तुम्हें सर पे बैठाया। तुम्हें नौकरी दिया। पइसा दिया। अरे ! असली मजा तो तुम्ही लोग ले रहे हो। हम लोग तो तरसता है कि काहे को बाभन के घर जनम लिया। चमार-दुसाध के घर पैदा हुआ होता तो बाल-बच्चों की ओर से बेफिकर हो जाता। अब तो हमारे बच्चों को बमपुलिस में भी नौकरी नहीं मिलेगा।’’ बेनीमाधव ने आह भरी।
‘‘चमार-दुसाध के घर पैदा होते तो जनता को चुटकी भर में उल्लू बनाकर अपना जेब नहीं भर पाते। तुम्हारा यह थैला ठसाठस भरा न होता।’’

बेनीमाधव की जेब छाती पर चुभने लगी। पहली बार उसने अपने को असुरक्षित महसूस किया।
‘‘देख आज चमार घर में पैदा हुए तो कच्ची भी नसीब नहीं हुआ। मजूरी के वास्ते सहर जा रहे थे तो कउनो टपक पड़ा, बोला कि उँचवा में बैल मर गया है। जाओ लोग तुम्हारा राह देख रहे हैं। उहाँ गये तो पता चला कि कउनो दूसरा ही लाद ले गया। चमरन के कउनो अकाल है का ?’’ वह खिन्नता से बोला, ‘‘खाल के चक्कर में मंजूरी पर भी न जा पाये। मजूरी गये होते तो पाव भर गोस्त अउर दु थैली का तो जुगाड़ हो ही जाता।’’
बहुत क्षुब्ध होकर उसने अपनी बात समाप्त की। बेनीमाधव असमंजस में पड़ गया। उसके हाल पर तरस खाकर सहानुभूति के दो शब्द बोले या दारू के प्रति उसकी ललक को देखते हुए उसे नसीहत का पाठ पढ़ाए ? कहीं ऐसा करने पर वह चिढ़ न जाये। मुसीबत यह थी कि जंगल में शान्त रहना भी कम कष्टप्रद नहीं था। जब दोनों शान्त रहते तो झींगुरों की बोली से दोनों के कान झनझना जाते थे। नीचे सूखे पत्ते भी थे जो पैर से कुचले जाने पर चीत्कार मारते हुए से लगते थे। अचानक दुर्गन्ध का एक भभका बेनीमाधव की नाक तक आया। बेनीमाधव चौंक गया।
‘‘यहाँ कउनो पोखर है न !’’

आदमी ने ‘हाँ’ भी बोला और गरदन भी हिलाई।
‘‘उ में हमेशा मरा जानवर सड़ता रहता है न ?’’
‘‘हाँ...हाँ,’’ अजनबी झल्लाकर बोला, ‘‘तुम्हें कइसे मालूम ?’’
‘‘हम दो बरस पहले भी टिकरी से मेन रोड तक आये थे। तब रामसरना का एक आदमी हमारे साथ हो लिया था। उ ई राह नहीं ले गया। बोलता रहा कि ई राह पर एक पोखर पड़ता है। उ में दूर-दूर के गाँववाला मरा हुआ कुत्ता-बिल्ली फेंकता है। उहे सड़-सड़कर इत्ता बदबू फेंकता है कि नाक फट जाता है। ये ही लिए उ हमें इ राह न ले गया।’’
‘‘अउर कुछ न बताया हरामिया ने ?’’ वह गर्दन घुमाकर उससे नजरें मिलाता हुआ बोला। बोलने के बाद वह थोड़ा-सा हँसा भी क्योंकि उसके दाँत कुछ ऐसे चमक रहे थे। बेनीमाधव भीतर-ही-भीतर सुलग गया पर धुँआ बाहर नहीं आने दिया।

‘‘ई पोखर में आदमी का लास सड़ता है लास !...तुम्हें मालूम है ?’’
बेनीमाधव सर से पाँव तक काँप गया।
‘‘दूर-दराज कहीं भी कतल करो अउर लास का ई पोखर में पटक जाओ। जब तक पुलिसवालों की नाक तक बदबू पहुँचे तब तक सड़-गल के लुगदी हो जाता है लास ! अब कर लो तहकीकात !


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