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अष्टावक्र महागीता भाग-8 सुख स्वभाव

ओशो

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7274
आईएसबीएन :81-89605-84-4

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अष्टावक्र महागीता भाग-8 सुख स्वभाव...

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Ashtavakra Mahageeta bhag-8 Sukh Swabhav - A Hindi Book - by Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अष्टावक्र के ये सूत्र अंतर्यात्रा के बड़े गहरे पड़ाव-स्थल हैं। एक-एक सूत्र को खूब ध्यान से समझना।
ये बातें ऐसी नहीं कि तुम बस सुन लो, कि बस ऐसे ही सुन लो। ये बातें ऐसी हैं कि सुनोगे तो ही सुना। ये बातें ऐसी हैं कि ध्यान में उतरेंगी, अकेले कान में नहीं, तो ही पहुँचेंगी तुम तक। तो बहुत मौन से, बहुत ध्यान से...।
इन बातों में कुछ मनोरंजन नहीं है। ये बातें उन्हीं के लिए हैं जो जान गए कि मनोरंजन मूढ़ता है। ये बातें उनके लिए हैं जो प्रौढ़ हो गए हैं। जिनका बचपना गया; अब जो घर नहीं बनाते हैं; अब जो खेल-खिलौना नहीं सजाते; अब जो गुड्डा-गुड्डियों का विवाह नहीं रचाते; अब जिन्हें एक बात की जाग आ गई है कि कुछ करना है–कुछ ऐसा आत्यन्तिक कि अपने से परिचित हो जाएं। अपने से परिचय हो तो चिंता मिटे। अपने से परिचय हो तो दूसरा किनारा मिले। अपने से परिचय हो तो सबसे परिचय होने का द्वार खुल जाए।
हरि ओम् तत् सत्

अनुक्रम


७१. निराकार, निरामय साक्षित्व
७२. सदगुरुओं के अनूठे ढंग ३८
७३. मूढ़ कौन, अमूढ़ कौन ! ६९
७४. अवनी पर आकाश गा रहा १॰॰
७५. मन का निस्तरण १२९
७६. परंपरा और क्रांति १६१
७७. बुद्धि-पर्यन्त संसार है १९५
७८. अक्षर से अक्षर की यात्रा २२६
७९. निःस्वभाव योगी अनिर्वचनीय है २५७
८॰. पूनम बन उतरो २८७


प्रवचन : 71

निराकार, निरामय साक्षित्व


21 जनवरी, 1977
अष्टावक्र उवाच।

अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवंत्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।।227।।
उच्छृंखलाप्यकृतिका स्थितिर्धीरस्य राजते।
न तु संस्पृहचित्तस्य शांतिर्मूढ़स्य कृत्रिमा।।228।।
विलसन्ति महाभोगैर्विशन्ति गिरिगह्वरान्।
निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्तबुद्धयः।।229।।
श्रोत्रियं देवतां तीर्थमंगनां भूपतिं प्रियम्।
दृष्ट्वा सम्पूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना।।230।।
भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः।
विहस्य धिक्कृतो योगी न याति विकृतिं मनाक्।।231।।
संतुष्टोऽपि न संतुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते।
तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा व जानन्ते।।232।।
कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः।
शून्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः।।233।।

एक पुरानी चीनी कथा है, जंगल में कोई लकड़हारा लकड़ियां काटता था। अचानक देखा कि उसके पीछे आकर खड़ा हो गया है एक बारहसिंगा–सुंदर, अति सुंदर अति स्वस्थ। लकड़हारे ने अपनी कुल्हाड़ी उसके सिर पर मार दी। बारहसिंगा मर गया। तब लकड़हारा डरा; कहीं पकड़ा न जाए। क्योंकि वह राजा का सुरक्षित वन था और शिकार की मनाही थी। तो उसने उसने एक गड्ढे में छिपा दिया उस बारहसिंगे को, ऊपर से मिट्टी डाल दी और वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा।
अब लकड़ियां काटने की कोई जरूरत न थी। काफी पैसे मिल जाएंगे बारहसिंगे को बेचकर। सांझ जब सूरज ढल जाएगा और अंधेरा उतर आएगा तब निकाल कर बारहसिंगे को अपने घर ले जाएगा। अभी तो दोपहर थी।

वह वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा और उसकी झपकी लग गई। जब उठा तो सूरज ढल चुका था और अंधेरा फैल रहा था। बहुत खोजा लेकिन वह गड्ढा मिला नहीं, जहां बारहसिंगे को गाड़ दिया था। तब उसे संदेह होने लगा कि हो न हो, मैंने स्वप्न में देखा है। कहीं ऐसे बारहसिंगे पीछे आकर खड़े होते हैं ! आदमी को देख कर भाग जाते हैं, मीलों दूर से भाग जाते हैं। जरूर मैंने स्वप्न में देखा है और मैं व्यर्थ ही परेशान हो रहा हूं।
हंसता हुआ, अपने पर ही हंसता हुआ घर की तरफ वापस लौटने लगा। यह भी खूब मूढ़ता हुई ! राह में एक दूसरा आदमी मिला तो उसने अपनी कथा उससे कही कि ऐसा मैंने स्वप्न में देखा। और फिर मैं पागल, उस गड्ढे को खोजने लगा।

उस दूसरे आदमी को हुआ, हो न हो इस आदमी ने वस्तुतः बारहसिंगा मारा है। लकड़हारा तो घर चला गया, वह आदमी जंगल में खोजने गया और उसने बारहसिंगा खोज लिया। चोरी-छिपे वह अपने घर पहुंचा। उसने अपनी पत्नी को सारी कथा कही कि ऐसा लकड़हारे ने मुझे कहा और उसने यह भी कहा कि स्वप्न देखा है। अब मैं कैसे मानूं कि स्वप्न देखा है ? स्वप्न कहीं सच होते हैं ? यह बारहसिंगा सामने मौजूद है। तो स्वप्न नहीं देखा होगा, सच में ही हुआ होगा।
लेकिन पत्नी ने कहा, तुम पागल हो। तुम दोपहर को सोए तो नहीं थे जंगल में ? उसने कहा, मैं सोया था, झपकी ली थी। तो उसने कहा, तुमने हो न हो लकड़हारे का सपना देखा है। और सपने में लकड़हारा तुम्हें दिखाई पड़ा। तो वह आदमी कहने लगा, अगर लकड़हारा सपने में देखा है तो यह बारहसिंगा तो मौजूद है न !

तो उसकी स्त्री ने कहा, ज्ञानी कहते हैं, सपने में और सत्य में फर्क कहां ? सपने भी सच होते हैं और जिसको हम सच कहते हैं, वह भी झूठ होता है। हो गया होगा सपना सच। निश्चिंत हो गया वह आदमी। अपराध का एक भाव था कि लकड़हारे को धोखा दिया, वह भी चला गया।
रात लकड़हारे ने एक सपना देखा कि उस आदमी ने जंगल में जाकर खोज लिया गड्ढा। और वह बारहसिंगे को घर ले गया। वह आधी रात उठकर उसके घर पहुंच गया। दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोला तो बारहसिंगा आंगन में पड़ा था। तो उसने कहा, यह तो बड़ा धोखा दिया तुमने। मैंने सपना देखा, तुम्हें निकालते देखा और बारहसिंगा तुम्हारे द्वार पर पड़ा है। ऐसी बेईमानी तो नहीं करनी थी।

मुकदमा अदालत में गया। मजिस्ट्रेट बड़ा मुश्किल में पड़ा। मजिस्ट्रेट ने कहा अब यह बड़ी उलझन की बात है। लकड़हारा सोचता है कि उसने सपना देखा था। तुम्हारी पत्नी कहती है कि तुमने सपना देखा कि लकड़हारा देखा था। अब लकड़हारा कहता है कि सपने में उसने देखा कि तुम बारहसिंगा ले आए। जो हो, इस पंचायत में मैं न पड़ूंगा। यह कानून के भीतर आता भी नहीं सपनों का निर्णय। एक बात सच है कि बारहसिंगा है, सो आधा-आधा तुम बांट लो।
यह फाइल राजा के पास पहुंची दस्तखत के लिए, स्वीकृति के लिए। राजा खूब हंसने लगा। उसने कहा, यह भी खूब रही। मालूम होता है इस न्यायाधीश का दिमाग फिर गया है। इसने यह पूरा मुकदमा सपने में देखा है। उसने अपने वजीर को बुला कर कहा कि इसको सुलझाना पड़ेगा।

वजीर ने कहा, देखिए ज्ञानी कहते हैं, जिसको हम सच कहते हैं वह सपना है। और अब तक कोई पक्का नहीं कर पाया है कि क्या सपना है और क्या सच है। और जो जानते थे प्राचीन पुरुष–लाओत्सु जैसे, वे अब मौजूद नहीं दुर्भाग्य से, जो तय कर सकें कि क्या सपना और क्या सच। यह हमारी सामर्थ्य के बाहर है। न्यायाधीश ने जो निर्णय दिया, आप चुपचाप स्वीकृति दे दें। इस उलझन में पड़े मत। क्योंकि केव ज्ञानी पुरुष ही तय कर सकते हैं कि क्या सच है क्या सपना है।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं, ज्ञानी पुरुष ही तय कर सकते हैं कि क्या सपना है और क्या सच है। लेकिन हम क्यों नहीं तय कर पाते ? हम चूकते क्यों चले जाते हैं ? हम चूकते चले जाते हैं क्योंकि हम सोचते हैं, जो देखा उसमें तय करना है। जो देखा उसमें क्या सच और जो देखा उसमें क्या झूठ।

दिन में देखा वह सच हम कहते हैं, रात जो देखा वह झूठ। जाग कर जो देखा वह सच, सोकर जो देखा वह झूठ। आंख खुली रख कर जो देखा वह सच। आंख बंद रख कर जो देखा झूठ। सबके साथ जो देखा सच, अकेले में जो देखा वह झूठ। लेकिन हम एक बात कभी नहीं सोचते कि हम देखे और देखे में ही तौल करते रहते हैं।
ज्ञानी कहते हैं, जिसने देखा वह सच, जो देखा वह सब झूठ–जाग कर देखा कि सोकर देखा, अकेले में देखा कि भीड़ में देखा, आंख खुली थी कि आंख बंद थी–जो भी देखा वह सब झूठ। देखा देखा सो झूठ। जिसने देखा, बस वही सच।
द्रष्टा सत्य और दृश्य झूठ।

दो दृश्यों में तय नहीं करना है कि क्या सच और क्या झूठ, द्रष्टा और दृश्य में तय करना है। द्रष्टा का हमें कुछ पता नहीं है।
अष्टावक्र का यह पूरा संदेश द्रष्टा की खोज है। कैसे हम उसे खोज लें जो सबका देखने वाला है।
तुम अगर कभी परमात्मा को भी खोजते हो तो फिर एक दृश्य की भांति खोजने लगते हो। तुम कहते हो, संसार तो देख लिया झूठ, अब परमात्मा के दर्शन करने हैं। मगर दर्शन से तुम छूटते नहीं, दृश्य से तुम छूटते नहीं। धन देख लिया, अब परमात्मा को देखना है। प्रेम देख लिया, संसार देख लिया, संसार का फैलाव देख लिया, अब संसार के बनाने वाले को देखना है; मगर देखना है अब भी। जब तक देखना है तब तक तुम झूठ में ही रहोगे। तुम्हारी दुकानें झूठ हैं। तुम्हारे मंदिर भी झूठ हैं, तुम्हारे खाते-बही झूठ हैं, तुम्हारे शास्त्र भी झूठ।

जहां तक दृश्य पर नजर अटकी है वहां तक झूठ का फैलाव है। जिस दिन तुमने तय किया अब उसे देखें जिसने सब देखा, अब अपने को देखें, उस दिन तुम घर लौटे। उस दिन क्रांति घटी। उस दिन रूपांतरण हुआ। द्रष्टा की तरफ जो यात्रा है वही धर्म है।
ये सारे सूत्र द्रष्टा की तरफ ले जाने वाले सूत्र हैं।
और उस बूढ़े वजीर ने राजा से ठीक ही कहा कि अब वे प्राचीन पुरुष न रहे, वे विरले लोग–चीन की कथा है इसलिए उसने लाओत्सु का नाम लिया, भारत की होती तो अष्टावक्र का नाम लेता। विरले हैं वे लोग और दुर्भाग्य से कभी-कभी होते हैं; मुश्किल से कभी होते हैं, जो जानते हैं कि क्या सत्य है और क्या सपना है।
अष्टावक्र ऐसे विरले लोगों में एक हैं। एक-एक सूत्र को स्वर्ण का मानना। एक-एक सूत्र को हृदय में गहरे रखना, सम्हाल कर रखना। इससे बहुमूल्य मनुष्य के चैतन्य में कभी घटा नहीं है।
पहला-सूत्र:

अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवंन्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।।

‘जब मनुष्य अपनी आत्मा के अकर्तापन और अभोक्तापन को मानता है तब उसकी संपूर्ण चित्तवृत्तियां निश्चयपूर्वक नाश को प्राप्त होती हैं।’
दृश्य में हम उलझे क्यों हैं ? दृश्य में हम उलझे हैं क्योंकि दृश्य में ही सुविधा है कर्ता के होने की, भोक्ता के होने की। जब तक हम कर्ता होना चाहते हैं तब तक हम द्रष्टा न हो सकेंगे। क्योंकि जो कर्ता होना चाहता है वह तो द्रष्टा हो ही नहीं सकता। वे आयाम विपरीत हैं। वे आयाम एक साथ नहीं रहते। अंधेरे और प्रकाश की भांति हैं। प्रकाश ले आए, अंधेरा चला गया। ऐसे ही जिस दिन साक्षी आएगा, कर्ता चला जाएगा। या कर्ता चला जाए तो साक्षी आ जाए। दोनों साथ नहीं होते।
और हमारा रस भोक्ता होने में है। दृश्य को हम देखना क्यों चाहते हैं ? यह दृश्य की इतनी लीला में हम उलझते क्यों हैं ? क्योंकि हमें लगता है, देखने में ही भोग है।

तुम देखो, संसार को देखने से तुम नहीं चुकते तो फिल्म देखने चले जाते हो। जानते हो भलीभांति कि पर्दे पर कुछ भी नहीं है। ना-कुछ के लिए तीन घंटे बैठे रहते हो। कुछ भी नहीं है पर्दे पर। भलीभांति जानते हो, फिर भी भूल-जाते हो। रो भी लेते हो, हंस भी लेते हो। रूमाल आंसुओं से गीले हो जाते हैं। तरंगित हो लेते हो, प्रसन्न हो लेते हो, दुखी हो लेते हो। तीन घंटे भूल ही जाते हो।

जहां-जहां टेलीविजन फैल गया है वहां लोग घंटों...अमरीकन आंकड़े मैं पढ़ रहा था, प्रत्येक अमरीकन कम से कम छह घंटे प्रतिदिन टेलीविजन देख रहा है–छह घंटे ! छोटे-छोटे से बच्चे से लेकर बड़े-बड़े तक बचकाने हैं। तुम देख क्या रहे हो ?
ज्ञानी कहते हैं, संसार झूठ है, तुम झूठ में भी सच देख लेते हो। तुम पर्दे पर जहां कुछ भी नहीं है, धूप-छाया का खेल है, आंदोलित हो जाते हो, सुखी-दुखी हो जाते हो, सब भांति अपने को विस्मरण कर देते हो। फिल्म में जाकर बैठ जाने का सुख क्या है ? थोड़ी देर को तुम भूल जाते हो। फिल्म एक तरह की शराब है। दृश्य इतना जकड़ लेता है तुम्हें कि कर्ता बिलकुल संलग्न हो जाता है, भोक्ता संलग्न हो जाता है और साक्षी भूल जाता है। उस विस्मरण में ही शराब है। तीन घंटे बाद जब तुम जागते हो उस विस्मरण से, जो फिल्म तुम्हें सुला देती है तीन घंटे के लिए अपने साक्षीभाव में, उसी को तुम अच्छी फिल्म कहते हो। जिस फिल्म में तुम्हें अपनी याद बार-बार आ जाती है, तुम कहते हो, कुछ मतलब की नहीं है। जिस उपन्यास में तुम भूल जाते हो अपने को पढ़ते समय, कहते हो, अदभुत कथा है।

अदभुत तुम कहते उसको हो जिसमें शराब झरती है, जहां तुम भूल जाते हो, जहां विस्मरण होता है। जहां स्मरण आता है वहीं तुम कहते हो कथा में कुछ सार नहीं, डुबा नहीं पाती। बार-बार अपनी याद आ जाती है।
‘जब मनुष्य अपनी आत्मा के अकर्तापन और अभोक्तापन को मानता है तब उसकी संपूर्ण चित्तवृत्तियां निश्चयपूर्वक नाश को प्राप्त होती हैं।’
जानने योग्य, मानने योग्य, होने योग्य एक ही बात है और वह है, अकर्तापन और अभोक्तापन। अकर्तापन, अभोक्तापन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
भोक्ता और कर्ता साथ-साथ होते हैं। जो भोक्ता है वही कर्ता बन जाता है। जो कर्ता बनता है वही भोक्ता बन जाता है। एक दूसरे को सम्हालते हैं।

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