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पतंजलि योग सूत्र भाग-1

ओशो

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :428
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7276
आईएसबीएन :81-8419-131-6

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Patanjali Yoga Sutra Bhag-1 - A Hindi Book - by Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मुक्ति की कला क्या है ? मुक्ति की कला और कुछ नहीं सम्मोहन से बाहर आने की कला है; मन की इस सम्मोहित अवस्था का परित्याग कैसे किया जाए; संस्कारों से मुक्त कैसे हुआ जाए; वास्तविकता की ओर बिना किसी ऐसी धारणा के जो वास्तविकता और तुम्हारे मध्य अवरोध बन सकती है, कैसे देखा जाए;
आंखों में कोई इच्छा लिए बिना कैसे बस देखा जाए, किसी प्रेरणा के बिना कैसे बस हुआ जाए। यही तो है जिसके बारे में योग है। तभी अचानक जो तुम्हारे भीतर है और जो तुम्हारे भीतर सदैव आरंभ से ही विद्यमान है, प्रकट हो जाता है।

भूमिका

शास्त्रों के पार का सम्प्रेषण

ओशो से मेरा परिचय सन् 1964 में तब हुआ जब वे 115 नैपियर टाउन जबलपुर (म.प्र.) में रहते थे। तब से मैं उन्हें बराबर रुचि पूर्वक साभार पढ़ता आया हूं परंतु अब मुझे उनकी कृति ‘पंतजलि : योग सूत्र (भाग एक)’ पर लिखना पड़ रहा है तो मैं बहुत कठिनाई में फंस गया हूं।
क्या हो सकता है इस विश्व के अद्वितीय रहस्यदर्शी चिन्तक और अभिनव विचार क्रांति के प्रस्तोता की कृति की भूमिका ? मेरी दृष्टि तो बस इसके सृजनात्मक आयामों से जा-जाकर टकराती है और बाकी सब अगम लगता है और बहुत अगम प्रतीत होता है मुझ साहित्य सेवी के लिए अंतरजगत का वह वैज्ञानिक और अनुशासन मूलक योग-दर्शन का स्रष्टा पतंजलि जिसकी भूमिका में पुनस्सृजन के स्वयं साथ ओशो के दर्शन होते हैं।

‘बीज ही फूल है’ शीर्षक अध्याय में वे लिखते हैं, मैं व्याख्या करने के लिए तुमसे बातें नहीं कर रहा हूं। मेरा बोलना एक सृजनात्मक घटना है।’ और मैं देखता हूं कि ऐसी घटनाओं के स्रष्टा के रूप में वे पाठकों को कभी चमत्कृत करते हैं तो कभी भौंचक्के और फिर निरुत्तर, मौन कृत कृत्य और कायल, घायल भी ! इसीलिए कृति के भीतर से गुज़र जाने के बाद मन जो कृतज्ञ होता है तो जुड़े हाथ प्रमाण के लिए आकाश में उठ जाते हैं और कुछ लिखने के लिए जो संदर्भ बनता है वह भूमि का नहीं, आकाश का होता है।

आकाश जैसे ओशो, शास्ता, सतगुरु, उपदेशक, शिक्षक और उदबोधक कृति में सतर्क समर्थ सृजनात्मक भाषा के बल पर शास्त्रों के पार वाली नयी संप्रेषण-कला के कलाकार के रूप में प्रतिष्ठित दिख रहे हैं।
कथ्य के लिए झट संपूर्ण वातावरण बना देने वाली और सीधे संवाद के शिल्प में जीवंत ओशो की आधुनिक भाषा के ऊर्जास्वित प्रवाह में धुलकर जब योग जैसे नीरस, जटिल, क्लिष्ट विषय के सूत्र सरल-सरल और सहज अनुरंजन पूर्वक बोधगम्य बन जाते हैं तब मानना पड़ता है कि यह सामान्य नहीं, असामान्य भाषा है। यह भाषा अपने अंतर्नाद से गहन विचारचित्रों को चित्त-भित्ति पर चमका कर प्रतिष्ठित करने के बाद भीतर से झकझोरकर कुछ उठा देती है। तब लगता है, जीवन-वृक्ष का सर्वोतम ऊंचा फल योग अलभ्य नहीं है। कोई हंसा-खेलाकर, डरा-धमकाकर अथवा फुसला-पुचकारकर तथा हमारे हाथों को उस लक्ष्य की ओर उँचकाकर सहारा देते हुए प्रोत्साहित कर रहा है, बढ़ो, बढ़कर बस भेंट लो, यह रहा आंतरिक अस्तित्व का विज्ञान, योग !

विकट समस्या ‘योग के प्रवेश द्वार’ की !
यहां संपूर्ण निराशा का एक ऐसा कठोर अनुशासन है जिस में योग यदि आशा कि एक नौका है तो इस किनारे से उस किनारे तक पहुंचाने में सहायक पतवार गुरु के हाथों में है। यह गुरु भी खूब है ! दक्षिणा नहीं, प्रवेश शुल्क के रूप में वह सीधे सिर की मांग करता है। ‘सीस उतारे भुंइ धरे तब पैठे घर मांहि।’ इस सिर की कीमत चुकाकर ही कोई प्रवेशार्थी कबीर बीर होता है। इसीलिए दो टूक भाषा में सदगुरु ओशो घोषित करते हैं, ‘गुरु मृत्यु है’। वे संपूर्ण रूपांतरण के लिए निर्मम-निष्ठुर आक्रामक बन साधक शिष्य के देह-गेह की धज्जी-धज्जी उड़ा देते हैं।

सदगुरु सबद कमान ले, बाहन लागे तीर।
एक जू बाहा प्रीति सूं, भीतर बिंधा शरीर।
सतगुरु सांचा सूरिवां, सबद जु बाह्या एक।
लागत ही मैं मिलि गया, पड्या कलेजै छेक।।
सतगुरु मारया बाणा भरि, धरि करिसू धी मूठ।
अंगि उघारै लागिया, गयी दवा सूं फूटि।।
हंसै न बोले उनमनी, चंचल मेलह्या मारि।
कहै कबीर भीतर भिधा, सतगुरु कै हथियार।।
गूंगा हुआ बावला, बहरा हूआ कान।
पाऊं तै पंगुल भया, सतगुरु मारा बान।।

यहां देखते हैं कि पंतजलि की तीखे तीर ओशो के हाथों में पड़कर और अधिक बेधक बन गए हैं। उनकी नोक से वे अंतर-कोष्ठ के ना-वापसी वाले मन के चौथे अवचेतन-द्वार को मुक्त करने में जुटे हैं। वे हमें अपनी आदतों और अभ्यासों के विरुद्ध लड़ाई के लिए सन्नद्ध करते हैं। चित चूनर रंगने वालों की परंपरा के वे आधुनिक रंगरेज हैं। वैज्ञानिक उपलब्धियों वाली इस भविष्यान्ध शताब्दी को जिसमें पागल बुद्धिजीवियों की सभ्यता दीनता और हीनता और समृद्धि से भरी है तथा जिनमें तनावग्रस्त भटकन और अंहकार पूर्ण रिक्तता मनुष्य की पहचान बनी है, वे नए जीवन के संदर्भ में आश्वस्त कराते है।

यह विवादास्पद दुस्साहसी और विद्रोही विचारक मनुष्य जाति के बाहरी-भीतरी संसार का पहली बार व्यापक सर्वेक्षण कर, मन के आंतरिक रचनातंत्र को समझ कर, शास्त्रीय उलझाव और भटकाव की प्रवंचक तहों को काट कर तथा सच्चे-सीधे दो टूक तथ्य सामने सरका कर ‘पतंजलि की तीसरी संभावना–युद्ध और पलायन के बीच जागरुकता’ को प्रतिष्ठित करते हैं। ताकि साक्षी खड़ा हो जाए, वैराग्य की पहली अवस्था !

वे आदर्श शिक्षक की भांति अपना निर्णय अपने प्रेमियों पर न थोप कर उन्हें स्वयं ही एक सही मार्ग चयन कर उस पर डटे रहने के लिए चेतित-प्रेरित करते हैं। इसीलिए अपने रचनात्मक प्रवचनों में वे समस्त परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों पर संश्लेषणात्मक शैली में बोलते हैं ताकि श्रोता या पाठक हर ओर से देखकर अपना निर्णय ले लें। इसका परिणाम यह होता है कि कृति सूत्रों को छूकर व्याख्या मात्र नहीं प्रस्तुत करती है, वह योग के संपूर्ण परिवेश को गहराई से छान कर उठाती है। उसमें व्याख्या वाले अध्यायों के पश्चात क्रम से एक-एक स्वतंत्र अध्याय संबंधित विविध प्रश्नों, जिज्ञासाओं, शंकाओं और समस्याओं के समाधान वाले होते हैं, और प्रायः ऐसे होते हैं जिनमें मूल विषय की सीमाएं टूटी होती हैं और वे अनुभूति परक स्वतंत्र चिंतन का रूप लिए होते हैं।

‘समाधि का अर्थ’, वाले अध्याय में ओशो का कहना है, ‘सूत्रों का अनुवाद करना लगभग असंभव है। अतः मैं अनुवाद की अपेक्षा व्याख्या करूंगा, तुम्हें अनुभूति देने के लिए, क्योंकि शब्द तुम्हें भटका देंगे। इस मूल्यवान तथ्य को ‘बीज ही फूल हैं’ वाले अध्याय में भी उठाया गया है, ‘मैं यहां इसलिए नहीं बोल रहा हूँ कि इस प्रकार तुम पंतजलि को समझने लायक हो जाओगे।... पतंजलि एक बहाना भर है, खूंटी।... यदि तुम मेरे शब्दों को सुनते हो तो तुम पतंजलि को समझ जाओगे, एक स्पष्टता होगी। लेकिन यदि तुम मेरे नाद को सुनते हो, शब्दों को नहीं बल्कि मुझे सुनते हो तब वास्तविक अर्थ तुम्हारे लिए उदघाटित हो जाएंगे और उस अर्थ का पतंजलि से कुछ भी संबंध नहीं है। वह शास्त्रों के पार का संप्रेषण है।’
–और इस प्रकार होता है यह पतंजलि के अथवा शास्त्रों के बहाने ‘शास्त्रों के पार का संप्रेषण’।

कृष्णमूर्ति, हेराक्लतु, गुरजिएफ, लाओत्से, महर्षि रमण और फिर बुद्ध, महावीर, मोहम्मद, क्राइस्ट, अष्टावक्र और कृष्ण के सहारे; विविध उदाहरणों, दृष्टांतों, कहानियों, बोधकथा, मिथक-प्रतीक और फन्तासियों के सहारे, मुल्ला नसरुद्दीन के सहारे, शब्दों की असमर्थता को पार करते हुए क्या घटता है ओशो के शब्दों में ?

‘शास्त्रों के पार का संप्रेषण’
और अंत में, ‘अभावात्मक योग-चरणों’ के जीवन में अवतरण के लिए,
‘असमायोजन पूर्वक ग्रंथि-मोचन’ के लिए
अखिल क्लेश की जड़
मन की समाप्ति के लिए
योग के नाम पर चालू भ्रांत सिद्धि
चमत्कार-उपचार
बाजार-व्यापार-व्यायामादि से परे
उसके विशुद्ध वास्तव से वास्ता जोड़ने के लिए,
और
‘अथयोगानुशासनम् की दुख-भूमि से साक्षात्कार के लिए,
कि–
‘सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।’
भगवान पतंजलि
और
ओशो
के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन ही अलम् है।

विवेकीराय

हम एक गहरी भ्रांति में जीते हैं–आशा की भ्रांति में, किसी आने वाले कल की, भविष्य की भ्रांति में। जैसा आदमी है, वह आत्म-वंचनाओं के बिना जी नहीं सकता। नीत्से ने एक जगह कहा है कि आदमी सत्य के साथ नहीं जी सकता; उसे चाहिए सपने, भ्रांतियां; उसे कई तरह के झूठ चाहिए जीने के लिए। और नीत्से ने जो यह कहा है, वह सच है। जैसा मनुष्य है, वह सत्य के साथ नहीं जी सकता। इस बात को बहुत गहरे में समझने की जरूरत है, क्योंकि इसे समझे बिना उस अन्वेषण में नहीं उतरा जा सकता जिसे योग कहते हैं।

और इसके लिए मन को गहराई से समझना होगा–उस मन को जिसे झूठ की जरूरत है, जिसे भ्रांतियां चाहिए; उस मन को जो सत्य के साथ नहीं जी सकता; मन जिसे सपनों की बड़ी जरूरत है।
तुम केवल रात में ही सपने नहीं देखते; तुम तो जब जाग रहे हो तब भी लगातार सपने ही देखे चले जाते हो। तुम मुझे देख रहे हो, सुन रहे हो, लेकिन एक सपने की धारा लगातार तुम में दौड़ी चली जा रही है। मन लगातार सपने, रूप और कल्पनाएं बनाता जा रहा है।

अब वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य नींद के बिना तो जी सकता है, लेकिन सपनों के बिना नहीं जी सकता। पुराने समय में समझा जाता था कि नींद जीवन की बड़ी जरूरत है। लेकिन अब आधुनिक खोजें कहती हैं कि नींद सचमुच कोई बड़ी जरूरत नहीं है। नींद की जरूरत है, ताकि तुम सपने देख सको। सपने जरूरी हैं। यदि तुम्हें नींद में सपने न देखने दिया जाए, तो सुबह तुम अपने को ताजा और जीवंत नहीं पाओगे। तुम स्वयं को इतना थका हुआ पाओगे जैसे कि बिलकुल सो ही नहीं पाये।

रात कुछ समय होता है गहरी नींद का और कुछ समय होता है सपनों का। एक आवर्तन है, एक लय है। जैसे रात और दिन के आने जाने की एक लय है। आरम्भ में तुम गहरी नींद में उतर जाते हो, कोई चालीस या पैंतालीस मिनट के लिए। फिर स्वप्नावस्था प्रारम्भ होती है और तुम सपने देखने लगते हो। फिर स्वप्नहीन निद्रा आ जाती है, और उसके बाद फिर से सपनों का आना शुरू हो जाता है। सारी रात यह क्रम चलता है। यदि तुम्हारी नींद में उस समय बाधा आये जब तुम स्वप्नरहित गहरी नींद में सो रहे हो, तो सुबह तुम ऐसा अनुभव नहीं करोगे कि कुछ खोया है। लेकिन नींद यदि उस समय टूटे जब तुम सपने देख रहे हो तब सुबह तुम स्वयं को बिलकुल थका हुआ और निढाल-सा पाओगे।

अब इन बातों को बाहर से भी जाना जा सकता है। यदि कोई सो रहा है तो तुम जान सकते हो कि वह सपने देख रहा है या नहीं। अगर वह सपने देख रहा है तो उसकी आंखें लगातार गतिमान हो रही होंगी; ठहरी हुई होंगी। जब आंखें गतिमान हों और तुम्हें बाधा पहुंचाई जाये, तो सुबह तुम थके-मांदे अनुभव करोगे। और यदि आंखे थिर हों और नींद तोड़ी जाये तो सुबह उठने पर कोई थकावट महसूस नहीं होती, कुछ खोता नहीं।
अनेकों शोधकर्ताओं ने प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य का मन सपनों पर ही पलता है। यद्यपि सपना पूर्णतः एक स्वचालित वंचना है। फिर यह सपनों की बात केवल रात के विषय में ही सच नहीं है; जब तुम जागे हुए होते हो तब भी मन में कुछ ऐसी ही प्रक्रिया चलती रहती है। दिन में भी तुम अनुभव कर सकते हो कि किसी समय मन में स्वप्र तैर रहे होते हैं और किसी समय स्वप्र नहीं होते हैं।

दिन में जब सपने चल रहे हैं और अगर तुम कुछ कर रहे हो तो तुम अनुपस्थिति-से होओगे क्योंकि कहीं भीतर तुम व्यस्त हो। उदाहरण के लिए, तुम यहां हो; यदि तुम्हारा मन स्वप्निल दशा में से गुजर रहा है, तो तुम मुझे सुनोगे बिना कुछ सुने क्योंकि मन भीतर व्यस्त है। और अगर तुम ऐसी स्वप्निल दशा में नहीं हो, तो ही केवल तुम मुझे सुन सकते हो।
मन दिन-रात इन्हीं अवस्थाओं के बीच डोलता रहता है–गैर-स्वप्न से स्वप्न में, फिर स्वप्न में गैर-स्वप्न में। यह एक आंतरिक लय है। इसलिए ऐसा नहीं है कि हम सिर्फ रात्रि में ही निरंतर सपने देखते हैं, जीवन में भी हम अपनी आशाओं को भविष्य की ओर प्रक्षेपित करते रहते हैं।

वर्तमान तो लगभग हमेशा नरक जैसा है। तुम उसके साथ जी लेते हो तो उन आशाओं के सहारे ही, जिन्हें तुमने भविष्य में प्रक्षेपित कर रखा है। तुम आज जी लेते हो, आने वाले कल के भरोसे। तुम आशा किये चले जा रहे हो कि कल कुछ न कुछ घटित होगा; कि कल किसी न किसी स्वर्ग के द्वार खुलेंगे। वे आज तो हरगिज नहीं खुलते। और कल जब आता है तो वह कल की तरह नहीं आता; वह ‘आज’ की तरह आता है। पर तब तक तुम्हारा मन फिर से कहीं और आगे बढ़ चुका होता है। तुम अपने से भी आगे दौड़ते चले जाते हो; यही है सपनों का अर्थ। तुम यथार्थ से तो एकात्म नहीं हो, वह जो कि पास है, वह जो यहां और अभी उपस्थित है। तुम कहीं और हो, आगे गतिमान–आगे कूदते-फांदते !

उस कल को, उस भविष्य को तुमने कई-कई नाम दे रखे हैं। कुछ लोग उसे स्वर्ग कहते हैं, कुछ मोक्ष कहते हैं। लेकिन यह सदा भविष्य में है। कोई धन के बारे में सोच रहा है, पर वह धन भी भविष्य में ही मिलने वाला है। कोई स्वर्ग की आकांक्षा में खोया हुआ है, पर वह स्वर्ग मृत्यु के उपरांत ही आने वाला है। स्वर्ग है दूर, सुदूर किसी भविष्य में। जो नहीं है उसी के लिए तुम अपना वर्तमान खोते हो–यही है स्वप्न में जीने का अर्थ। तुम अभी और यहीं नहीं हो सकते। इस क्षण में होना दुःसाध्य प्रतीत होता है।

तुम अतीत में जी सकते हो, क्योंकि वह भी स्वप्नवत है : उन बातों की स्मृतियां, यादें, जो अब नहीं हैं। और या तुम भविष्य में जी सकते हो, लेकिन वह भी एक प्रक्षेपण है, यह फिर अतीत में से ही कुछ निर्मित करना है। भविष्य कुछ और नहीं, वरन अतीत की ही प्रतिछबि है–ज्यादा रंगीन, ज्यादा सुंदर, ज्यादा खुशनुमा, लेकिन वह है तो अतीत का ही एक परिष्कृत रूप।

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