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बहेलियों के बीच

श्यामल बिहारी महतो

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 728
आईएसबीएन :81-2563-1150-9

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ये कहानियाँ श्रमिकों का जद्दोजहद भरे जीवन पर आधारित है जिन्हें पानी के पीने के लिए रोज कुआँ खोदना पड़ता है....

Baheliyon Ke Beech a hindi book by Shyam Bihari Mehato - बहेलियों के बीच - श्यामल बिहारी महतो

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्यामल बिहारी महतो की ये कहानियाँ श्रमिकों के जद्दोजहद भरे जीवन पर आधारित हैं, जिन्हें पानी पीने के लिए रोज कुआँ खोदना पड़ता है। लेकिन जिन्दगी के झंझावत यहीं खत्म नहीं होते। भूख और बीमारी के अलावा उन्हें जिस भयानक अन्याय का शिकार होना पड़ता है, वह है शोषण, श्रम के मुताबिक वाजिब हक का न मिलना मजदूर जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। महतो की इन सभी कहानियों में इन्हीं भावनाओं को पंक्ति-दर-पंक्ति देखा जा सकता है। ज्ञातव्य है, कि लेखक का खुद का जीवन भी अभिशाप-ग्रस्त रहा है। लेखक ने जिन अभावों और मुश्किलों में अपना जीवन गुजारा है और अपने आस-पास जो देखा गुना है, उसे अपनी कहानियों में शब्दशः लिखने की कोशिश की है। ये कहानियाँ मजदूर जीवन की भयावहता की गवाह हैं। इनकी सबसे बड़ी खासियत है-शिल्प की अछूती रचनात्मकता। ये कहानियाँ दारूण व्यथाओं का ब्यौरा-भर नहीं हैं। संवेदनात्मक कथातत्त्व इन्हें गहराई प्रदान करता है। इनके रचना कौशल में सम्भावनाओं की नयी दिशा दिखाई देती है।

महतो की इन कहानियों को लेकर एक बात और स्पष्ट कर देनी चाहिए कि ये मात्र दलित जीवन की विषमता जनित कहानियाँ न होकर मजदूर जीवन की निहंग रचनाएँ हैं। जिस तरह नेताओं, सामन्तों की कोई जाति नहीं होती,उसी तरह मजदूरों की भी कोई जाति नहीं होती। अब जो नयी सामाजिकता विकसित हो रही है, वह भूमण्डलीकरण की शिकार भी है और उसके सारे कार्य व्यवहार जाति आधारित न होकर अर्थ आधारित होते जा रहे हैं। जो सम्पन्न है, वह उच्चवर्गीय सामन्त है और जो विपन्न है वह निम्नवर्गीय मजदूर है श्यामल बिहारी महतो की इन कहानियों में हालाँकि इस नयी सामाजिक विषमता की ओर खुला इशारा नहीं है लेकिन असमानता से उपजा शोषण इन कहानियों का एक अहम और खास तत्त्व है।

इन कहानियों को पढ़ते हुए मैं यह भी कहना चाहूँगा कि यद्यपि यह विषय हिन्दी में सर्वथा नया नहीं है, बहुतेरी कहानियाँ इस पृष्ठभूमि पर लिखी गयी हैं, लेकिन महतो ने इनमें अपनी जिस रचनात्मक ऊर्जा और अनुभवजन्य तल्खी का उद्घाटन किया है, और उसे जितनी सधी कलम से आखिर तक निभाया है, लेखन का यही संयम, त्वरा और निरन्तरता बनी रही तो आनेवाले समय में श्यामल बिहारी महतो एक महत्त्वपूर्ण कथाकार के रूप में जाने जाएँगे।
-कमलेश्वर

रचना-दर-रचना के दौर से...

(प्रस्तावना)


किसान का बेटा किसान ही होता है, ऐसा कहा भी जाता है। और मेरे घर में तो साहित्यिक माहौल का दूर-दूर तक अता-पता नहीं था। कहानी के बारे में मैंने सबसे पहले अपनी माँ से जाना। वह एक मजदूर औरत थी, कोयला खानों में कठोर परिश्रम करने वाली। जब वह शाम को काम से लौटती तो अपने हाथ ढेर सारी कहानियाँ ले आती। तब मैं बारह-तेरह साल का रहा हूँगा। फिर माँ की जगह मैं काम करने लगा। इस दौरान खदान को मैंने बहुत नजदीक से जाना। मजदूरों की जीवन-दशा और उनकी गाढ़ी कमाई पर गिद्ध नजर गड़ाये भेड़ियों को देखा। मजदूरों और उनकी स्त्रियों के नंगे बदन पर लिखी लूट खसोट की इबारतों को पढ़ा। इसी क्रम में शोषण और अन्याय के विरुद्ध लड़ने की बेचैनी ने श्रमिक आन्दोलन से जोड़ दिया। हालाँकि इसके बीज बहुत बचपन में पड़ चुके थे, मगर लगा कि सही दिशा अब मिली है। कालान्तर में यह भी काफी नहीं लगा, तो हाथ में कलम आ गयी। फिर भी मैं अपने कथाकार मन को लेकर हमेशा ही दुविधा में रहा हूँ। मैं अपने आपको पूर्णकालिक कथाकार नहीं पाता। इसे लेकर प्रायः उलझता रहता हूँ। ऐसे में कहानी जैसी विधा पर कलम उठाना और भी दुष्कर लगता है। फिर भी, जब भी मैं किसी व्यथित मजदूर से मिलता हूँ, तो उसके बाद मेरे भीतर एक कहानी का जन्म हो चुका होता है। और इसी के साथ शुरू हो जाता है। मजदूरों के दुःख-दर्द, परिवेश, उनकी सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं से संवाद का सिलसिला।

आज तक जितनी भी कहानियाँ मैंने लिखी हैं, वे सब शोषण और दमन के ही विभिन्न रूपों को समझने का प्रयास हैं। यही कारण है कि मेरे अधिकांश पात्र हमेशा ही दबे कुचले और सीधे-सादे मजदूर रहे हैं-चाहे वे ‘कीड़े’ का हरिया हो ‘गोल्डन’ का सुदन दा या फिर ‘दफ्तर का आदमी’ का कामताबाबू। हाँ, ‘बाँध’ और ‘आगाह’ के द्वारा मैंने झारखण्ड में व्याप्त नक्सलवाद की जड़ों को तलाशने की कोशिश की है। देखना है, पाठकों की पंचायत में यह कोशिश कितनी सार्थक होती है।

-लेखक


दफ्तर का आदमी



वे निर्विकार शिव की तरह खड़े थे। किसी मार्ग को चुनना आसान नहीं था। उनके लिए। एक ओर पत्नी का दाह-संस्कार करना उनका कर्तव्य था, पर दूसरी तरफ कर्म पुजारी होने के कारण रिटायर होने के बावजूद दफ्तर का आग्रह मानना भी जरूरी था। वे ठीक उस सिपाही की तरह थे जो युद्ध क्षेत्र में लड़ना ही अपना परम धर्म समझता है। जिसके लिए जीना-मरना महत्त्व नहीं रखता। बस कर्म करना ही याद रहता है उसे।
उतरते दिसम्बर का महीना था। और रात का अन्तिम पहर बीत रहा था। बाहर ठण्डी हवा सनसनाती हुई इधर से उधर बह रही थी कि अचानक रमा देवी के सीने का दर्द बढ़ गया। उसकी कराह सुनकर घरवाले जाग गये। पसीने ने नहायी देह बेचैनी में तड़प रही थी। उसने किसी तरह कहा, ‘‘दिल की बेचैनी बढ़ गयी है, दर्द से कलेजा बाहर निकला जा रहा है। ठीक से साँस भी नहीं ले पा रही हूँ।’’

सहसा रमा देवी की खाँसी तेज हो गयी। साँस फूलने लगी। घरवाले अगल-बगल खड़े हो गये। कोई छाती पर तेल की मालिश करने लगा तो कोई तलवे रगड़ने लगा। खाँसी की तीव्र वेदना से रमा देवी की आँखें पथराने लगीं। दर्द से उनका चेहरा विकृत हो गया। पत्नी की बिगड़ती हालत को देखकर कामता बाबू ने छोटे बेटे नरेश को डॉक्टर के पास दौड़ाया और खुद पत्नी का हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे-धीरे इस तरह रगड़ने लगे जैसे ताप पहुँचा रहे हों। मन उनका पत्नी के साथ बिताये दिनों की ओर बार-बार लौट जाना चाह रहा था...।

पाँच माह पूर्व भी रमा देवी के सीने में दर्द के साथ खाँसी कुछ इसी तरह से उठी थी। तब रमा देवी को बोकारो अस्पताल में भर्ती किया गया था, जहाँ सप्ताह भर उनका इलाज चला था। तब डॉक्टर ने कामता बाबू से साफ कहा था, ‘‘इनकी दवाएँ लगातार चलनी चाहिए वरना कोई कुछ नहीं कर सकता।’’ यह पूछे जाने पर कि इन्हें क्या हुआ है ? जवाब मिला था-‘‘कैंसर !’’ यह घटना कामता बाबू के रिटायर होने से ठीक एक महीना बाद की है। संयोग से बाजार में एक दिन केमिस्ट की दुकान में मिल गये थे वे। अपने बेटे के लिए नजला जुकाम की दवा लेने गया था और वह पत्नी की। कामता बाबू के चेहरे पर छायी हुई कालिमा को देखकर मुझे धक्का सा लगा था।...खैर दुआ सलाम के बाद हम घर परिवार की बातों पर उतर आये। भोकार मारकर रो पड़ेंगे-ऐसा भाव उग आया था। उनके चेहरे पर। मैं कुछ पल के लिए सहम सा गया था उन्हें इस रूप में देखकर। उदास स्वर में बता रहे थे, ‘‘बलदेव बाबू, मुसीबतों ने हमला कर रखा है मुझ पर। पिछले सप्ताह ही महेश की माँ- (महेश उनके बड़े बेटे का नाम है) को बोकारो अस्पातल से छुट्टी मिली है। अभी भी ठीक नहीं है। उसी की दवा लेने आया हूँ।’’ वह क्षण भर के लिए रुके, और कई तरह की बातें बताने लगे। अन्त में वे मेरी तरफ मुखातिब होकर बोले, ‘‘तुम्हारे बाल-गोपाल कैसे हैं ?’’ बाल-गोपाल शब्द कामता बाबू के प्रिय शब्द रहे हैं। वे जब भी किसी से मिलते, तुरन्त पूछ बैठते, ‘‘आपके बाल गोपाल कैसे हैं ?’’

‘‘माँ की आँखों का ऑपरेशन हुआ या नहीं ?’’ कुशल-मंगल के बाद उन्होंने तपाक से पूछ लिया और तब मैंने उनके सारे सवालों को समेटकर एक साथ जवाब देते हुए कहा, ‘‘घर में सभी ठीक-ठाक हैं कामताबाबू। माँ की आँखों का इलाज भी हो चुका है। वह तो इस वर्ष बद्रीनाथ धाम जाने की सोच रही हैं। बल्कि यूँ कहना ठीक होगा कि जाने के लिए तैयार बैठी हैं।’’
‘‘क्या बताऊँ भाई !...बद्रीनाथ जाने की तमन्ना महेश की माँ की भी रही है। पर देखो उसकी किस्मत ....।’’ और वह एकबारगी खामोश हो गये। पर ज्यादा देर चुप नहीं रह सके। उन्होंने कहा, ‘‘जानते हो बलदेव, जब मैं रिटायर हुआ तब वह कितनी खुश थी। उन दिनों वह एक ही बात कहती रहती...अब हम कहीं भी घूम-फिर सकते हैं। पर सबसे पहले हम बद्रीनाथ धाम जाएँगे।’’
‘‘भाभी जी को हुआ क्या है ?’’ अचानक मैंने पूछ लिया। देखा, उनका चेहरा उतर गया है। बोले, ‘‘उसे असाध्य रोग कैंसर हो गया है।’’ थोड़ी देर रुककर हम लोगों ने चाय की दुकान में चाय पी और फिर अपनी राह चल पड़े। परन्तु दिमाग में कामता बाबू इस कदर बैठ गये कि मैं उन्हें वहाँ से निकाल नहीं पाया।

कामता बाबू हमारे दफ्तर के गाँधीजी माने जाते थे। कम्पनी के कामों के प्रति पूरी तरह समर्पित...और यह समर्पण की भावना उनके रिटायर होने तक उनकी किसी आदत की भाँति कायम रही। उनके कार्यकाल के दौरान शायद ही कभी ऐसा मौका आया हो, जब उन्होंने किसी मजदूर या साहब का काम करने में आनाकानी की हो। उल्टे दूसरों की सेवा की खातिर सदैव तत्पर दिखते थे। सेवा की यह भावना उनके भीतर जुनून की तरह थी। कोई अन्धे से पूछे कि तुझे क्या चाहिए ? तो निःसन्देह उसका जवाब होगा-‘‘दो आँखें !’ इसी तरह कोई कामता बाबू से पूछे कि आपको क्या चाहिए तो वे कहेंगे-‘‘काम और काम के सिवा कुछ नहीं !’’ चाहे दफ्तर में किसी भी प्रकार की लिखा-पढ़ी का काम हो, बेकार बैठकर समय काटना उनके बस की बात नहीं थी। लेन देन के मामले में भी वह अनोखे थे। रिश्वत तो कभी ली ही नहीं, बस, यही कहते रहे, ‘ये पाप है, नाजायज है। दूसरों का गला दबाना है, उनका हक छीनना है।’’ हालाँकि इसी बात को लेकर उनका बड़े बेटे महेश से गहरा मतभेद बना रहा। महेश पढ़-लिखकर बेरोजगार बैठा था और बाप से मदद की आशा रखता था। न मिलने के कारण वह दारू के अड्डे पर भी जाने लगा था। कभी-कभी देर रात को घर आता और बाप से झगड़ पड़ता, ‘‘कोई कुछ करना भी चाहे तो कैसे करे, इस घर में तो गाँधी की आत्मा वास करती है।’’ कामता बाबू कसमसाकर रह जाते। पर वहीं छोटे बेटे नरेश के विचार बाप से बहुत मिलते थे। वह एक स्थानीय अखबार के कार्यालय में प्रूप रीडिंग का काम करते हुए बी. ए. की तैयारी कर रहा था। नरेश से कामता बाबू को बहुत उम्मीदें थीं।

हाँ, तो जब कामता बाबू यह कहते होते कि रिश्वत लेना पाप है, दूसरों का हक छीनना है, तो आसपास के मुस्कुराते चेहरों से अनभिज्ञ ही होते। जबकि रिश्वतखोरों के बीच ही हर दिन उठना-बैठना होता। जब कभी कोई मलकट्टा सरदार अपने जंगल का बोनस या सिक लीव का पैसा चेक करवाने आता और काम होने पर सौ पचास देने की कोशिश करता तो वे एकदम भड़क उठते, ‘‘तुम सब हमें नोट दिखाते हो, हरामखोर कहीं के...। तुम सबने मुझे समझ क्या रखा है...अकाल की ढेंकी !’ इस पर मजदूर या जो भी सामने होता, हँसते हुए पेट पकड़ लेता। कोई कहता, ‘‘कामता बाबू, आपको इस युग में पैदा नहीं होना चाहिए था।’’ इस पर कामता बाबू मुस्कुरा पड़ते। लेकिन ऊपरी आमदनी को इस तरह लतियाता देख सेल के सामन्तो बाबू कुढ़ जाते।

वे कहते, ‘‘कामता बाबू, आपको ऐसी जगह नौकरी नहीं करनी चाहिए थी।’’ जवाब में वह केवल हँस भर देते। समय पर दफ्तर पहुँचते और गेंद की तरह दिन भर अपने काम से चिपके रहते। सर्कुलर से जहाँ इंच भर भी इधर-उधर नहीं होते देखा गया उन्हें, वहीं जोड़ घटाव के मामले में कम्प्यूटर का दिमाग पाया था उन्होंने। सालाना बोनस हो या तिमाही, सहकर्मी सब उन्हीं से ‘वेरीफाई’ करवाते। अधिकारी भी उनकी बेदाग और निःस्वार्थ सेवाओं से काफी प्रभावित थे। सो उनके द्वारा जोड़े बिलों पर अफसर निःसंकोच साइन कर देते। कार्मिक प्रबन्धक अमरीक सिंह तो एक ही बात कहते, ‘‘कामता बाबू, सालाना बोनस में आपका जोड़ ही अन्तिम माना जाएगा।’’

ऑफिस से घर और घर से ऑफिस, यही उनकी दुनिया रही। मेहमानी हो, सिनेमा हो, मेला हो या अन्य कोई मनोरंजन कामता बाबू को अपनी ओर आकर्षित न कर सके। हालाँकि कभी-कभी उनकी भी इच्छा होती कि थोड़ा वक्त मिले, तो वह भी अपने सगे सम्बन्धियों की याद करें। मिलने के बहाने ही सही, जी बहल जाएगा। कभी-कभी वे गाँव समाज में जरूर बैठकी लगाते, पर किसी के साथ कोई गहरा सम्बन्ध नहीं हो सका था उनका। ऐसे में अखबार ही उनका एकमात्र मित्र होता।

उनके जीवन के साथ जुड़े कई दिलचस्प किस्से आज भी लोगों को याद हैं। वो भादों की एक रात थी कि अचानक वे बिस्तर से उठ पड़े। उन्हें नींद नहीं आ रही थी। रमा देवी तब रोगों से मुक्त थीं और चिन्ता से मुक्त थे, कामता बाबू। उस रात कामता बाबू ने धीरे से दरवाजा खोला और बाहर निकल आये। उनींदे भाव से चलते हुए जब वह ऑफिस के गेट के सामने पहुँचे तो रात्रि-प्रहरी गेट के सामने शेड पर ऊँघ रहा था। वे धीरे से उस तरफ चल दिये जिधर उनका दफ्तर था। ऊँघ रहा था। वे धीरे से उस तरफ चल दिये जिधर उनका दफ्तर था। रात में पहली बार वे अपने दफ्तर का कमरा देख रहे थे, जिसके दरवाजे पर लगा हुआ ताला अब भी लटका हुआ था। पहले उन्होंने ताले को छुआ, फिर अपनी कमीज की जेब। जेब में चाबी नहीं थी। अब वह वापस चल दिये। वापसी की पदचाप सुन रात्रि प्रहरी लगन सिंह चौंककर खड़ा हो गया। उजाले में आ जाने से उसने उन्हें पहचान लिया।

‘‘कामता बाबू, आप यहाँ....इस, समय ?’’ लगन सिंह ने आश्चर्य से पूछा।
‘‘हाँ, ऐसे ही घूमने चला गया था।’’ उन्होंने सहज भाव से कहा-‘‘नींद नहीं आ रही थी। घूमते-घूमते इधर चला आया।’’
लगन सिंह चकित था और सोच रहा था कि कहीं इन्हें नींद में चलने की बीमारी तो नहीं है ? वे अन्दर चले गये और उसे पता भी नहीं चला। उसने पूछा, ‘तो क्या आप इसी गेट से अन्दर गये थे ?’’ वह हैरान था।
‘हाँ, तुम तब सो रहे थे शायद !’’ कामता बाबू ने कहा। अब लगन सिंह का सिर कामता बाबू के सामने झुक गया था-किसी से कहिएगा नहीं ! इस भाव से।

यह वाकिया महीनों दफ्तर में चर्चा में रहा। लोग हँसते और कहते, ‘‘कामता बाबू भी हद करते हैं।’’
घर आये डॉक्टर वानेश्वर ने जाँच की और पूछा, ‘‘कैसी तबीयत है ?’’

रमा देवी कुछ बोल न सकीं। उनकी हालत पल-पल बिगड़ती जा रही थी। जीवन की आशाएँ कम से कमतर होती जा रही थीं। यहाँ तक कि उनकी आँखें भी पथराने लगी थीं। हाथ-पाँव ठण्डे हो गये थे। नाड़ीं का कहीं पता नहीं चल पा रहा था। डॉक्टर ने कहा, ‘‘अब ये चन्द मिनटों की मेहमान हैं। अच्छा होगा, नजदीकी रिश्तेदारों को बुलवा लीजिए।’’
छत पर बैठे कौए ने काँव-काँव कर सुबह होने की आवाज लगायी। अड़ोस-पड़ोस के लोगों का आना-जाना शुरू हो गया। रमा देवी ने पाँच मिनट पहले ही अपने जीवन की अन्तिम साँस ली थी। कामता बाबू के लिए यह कोई अनहोनी न थी। बल्कि इसकी भनक उन्हें कभी लग चुकी थी जब रमा देवी बोकारो अस्पताल में भर्ती हुई थीं।
उस दिन डॉक्टर अग्रवाल राउण्ड पर थे। वह धीरे से चलकर कामता बाबू के पास आये और उनकी पीठ पर हाथ रखकर बोले, ‘‘अब ये चन्द महीनों की मेहमान हैं।’’ उन्होंने कामताबाबू से यह भी कहा था, ‘‘आपकी पत्नी लाइलाज हो चुकी हैं, अच्छा होगा कि जो ये खाने की इच्छा करें, आप इन्हें दें।’’ डाक्टर अग्रवाल की बात बड़ी देर तक कामता बाबू के कानों में अदहन की तरह खदबदाती रही थी।

रम देवी की मृत्यु की खबर गाँव में फैल चुकी थी। सगे-सम्बन्धी भी पहुँचने लगे थे। सबकी आँखें नम थीं। घर में मातम-सा छा गया था। लेकिन कामता बाबू के हृदय में कुछ धँसता सा जा रहा था शोक विलाप ! विछोह या अकेलापन या पत्नी के न होने के खालीपन से मन सन्तप्त था उनका। पर रोनेवालों में सबसे ऊँची आवाज महेश की थी जो रात भर दारू के नशे में बाहर पड़ा हुआ था। नरेश दुकान से कफन ला चुका था। शव के सिरहाने अगरबत्ती जला दी गयी थी। अब सबकी निगाहें कामता बाबू पर आ टिकी थीं जो अभी-अभी पत्नी के सिरहाने बैठे कहीं कुछ ढूँढ़ रहे थे।
नरेश ने करीब पहुँचकर पिता के कन्धे पर हाथ रखा और फफककर रो पड़ा, ‘‘बाबू जी...माँ ! ’’ लगा कि कामता बाबू भी रो पड़ेंगे पर उन्होंने अपने को किसी तरह रोका। वे धीरे-से उठे, एक नजर इधर-उधर देखा फिर पत्नी की शवयात्रा की तैयारी में जुट गये। रमा देवी के सम्बन्ध में मौजूद लोग यही कह रहे थे-‘‘बेचारी गाय थी..गाय ! कम से कम में भी काम चलाना जानती थी। पर कम पैसों को लेकर कभी पति को उसने कोसा नहीं, न ही गलत काम करने पर विवश किया।’’

‘‘और नहीं तो क्या, कामताबाबू भी सारी कमाई पत्नी के हाथ पर धर देते थे।’’ तभी जीप रुकने की आवाज ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा।
‘‘कामता बाबू के साथी होंगे।’’ किसी के मुँह से निकला।
रिटायर होने के उपरान्त कामता बाबू घर में आने वाला धनपत राम पहला सरकारी चपरासी था। सो थोड़ी देर के लिए कामता बाबू भी यह नहीं समझ सके कि धनपत जीप लेकर उनके यहाँ क्यों आया है ? जीप भेजी गयी है तो जरूर कोई खासबात होगी ? तभी उन्हें चेतलाल की कही बात स्मरण हो आयी। परसों घर के बाहर खड़ा वह कह रहा था, ‘‘कामता बाबू, लगता है इस महीने कम्पनी करोड़ों के चपेट में आ जाएगी।’’


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