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संभोग से समाधि की ओर...
युवा चित्त का जन्म
मेरे प्रिय आत्मन,
सोरवान विश्वविद्यालय की दीवालों पर जगह-जगह एक नया ही वाक्य लिखा हुआ दिखाई
पड़ता है। जगह-जगह दीवालों पर, द्वारों पर लिखा है: 'प्रोफेसर्स, यू आर
ओल्ड'-अध्यापकगण आप बूढ़े हो गए हैं!
सोरवान विश्वविद्यालय की दीवालों पर जो लिखा है, वह मनुष्य की पूरी संस्कृति
पूरी सभ्यता की दीवालों पर लिखा जा सकता है। सब कुछ बूढ़ा हो गया है, अध्यापक
ही नहीं। मनुष्य का मन भी बूढ़ा हो गया है।
मैंने सुना है कि लाओत्से के संबंध में एक कहानी है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ
है। यह कहानी कैसे सच होगी? कहना मुश्किल है। सुना नहीं कि कभी कोई आदमी बूढ़ा
ही पैदा हुआ हो। शरीर से तो कभी नहीं सुना है कि कोई आदमी खा पैदा हुआ हो!
लेकिन ऐसा हो सकता है कि मन से आदमी पैदा होते ही बूढ़ा हो जाए।
और लाओत्से भी अगर बूढ़ा पैदा हुआ होगा, तो इसी अर्थ में कि वह कभी बच्चा नहीं
रहा होगा। कभी जवान नहीं हुआ होगा। चित्त के जो वार्धक्य के, 'ओल्डनेस' के जो
लक्षण हैं वे पहले दिन से ही उसमें प्रविष्ट हो गए होंगे। लेकिन लाओत्से बूढ़ा
पैदा हुआ हो या न हुआ हो, आज तो मनुष्यता हमारे सामने है, वह
बूढ़ी ही पैदा होती है। हमने बूढ़े होने के सूत्र पकड़ रखे हैं। और इसके पहले
मैं कहूं कि चित्त का जन्म कैसे हो, मैं इस भाषा में कहूंगा कि चित्त बूढ़ा
कैसे हो जाता; क्योंकि बहुत गहरे में चित्त का बूढ़ा होना मनुष्य की चेष्टा से
होता है।
चित्त अपने आप मे सदा जवान है। शरीर की तो मजबूरी है कि वह बूढ़ा हो जाता है;
लेकिन चेतना की कोई मजबूरी नहीं है कि वह बूढ़ी हो जाए। चेतना युवा ही है।
'माइंड' तो 'यंग' ही है। वह कभी बूढ़ा नहीं होता लेकिन अगर हम व्यवस्था करें,
तो उसे भी बूढ़ा बना सकते हैं।
इसलिए जवान चित्त कैसे पैदा हो, 'यंग माइंड' कैसे पैदा हो, यह सवाल उतना
महत्वपूर्ण नहीं है; जितना गहरे में सवाल यह है कि चित्त को बूढ़ा बनाने की
तरकीबों से कैसे बचा जाए। अगर हम चित्त को बूढ़ा बनाने की तरकीबों से बच जाते
हैं तो जवान चित्त अपने-आप पैदा हो जाता है।
चित्त जवान है ही। चित्त कभी बूढ़ा होता ही नहीं। वह सदा ताजा है। चेतना सदा
ताजी है। चेतना नई है, रोज नई है।
लेकिन हमने जो व्यवस्था की है, वह उसे रोज बूढ़ा और पुराना करती चली जाती है।
तो पहले मैं समझना चाहूंगा कि चित्त के बूढ़ा होने के सूत्र क्या हैं :
पहला सूत्र है फियर, भय। जिस चित्त में जितना ज्यादा भय प्रविष्ट हो जाएगा,
वह उतना ही 'पैरालाइज्ड' और 'क्रिपल्ड' हो जाएगा। वह उतना ही बूढ़ा हो जाएगा।
और हमारी पूरी संस्कृति-आज तक के मनुष्य की पूरी संस्कृति भय पर खड़ी हुई है।
हमारा तथाकथित सारा धर्म भय पर खड़ा हुआ है। हमारे भगवान की मूर्तियां हमने भय
के कारखाने में ढाली हैं। वहीं वे निर्मित हुई हैं। हमारी प्रार्थनाएं हमारी
पूजाएं-थोड़ा हम भीतर प्रवेश करें, तो भय की आधारशिलाओं पर खड़ी हुई मिल
जाएँगी। हमारे संबध, हमारा परिवार, हमारे राष्ट्र, बहुत गहरे में, भय पर खड़े
हैं।
परिवार निर्मित हो गए हैं लेकिन पति भयभीत है! पुरुष भयभीत है! सी भयभीत है!
बच्चे भयभीत हैं! साथ खड़े हो जाने से भय थोड़ा कम मालूम होता है।
संप्रदाय, संगठन खड़े हो गए हैं भय के कारण। राष्ट्र, देश खड़े हैं भय के कारण!
हमारी जो भी आज तक की व्यवस्था है, वह सारी व्यवस्था भय पर खड़ी है।
एक-दूसरे से हम भयभीत हैं। दूसरे से ही नहीं हम अपने से भी भयभीत हैं।
इस भय के कारण, चित्त का युवा होना कभी संभव नहीं है, क्योंकि चित्त तभी युवा
होता है, जब अभय हो। खतरे और जोखिम उठाने में समर्थ हो। जो जितना ही भयभीत
है, वह खतरे में उतना ही प्रवेश नहीं करता है। वह सुरक्षा का रास्ता लेता है,
'सिक्योरिटी' का रास्ता लेता है। जहां कोई खतरे न हो, वह रास्ता लेता है।
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