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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


सत्य को जानने के लिए चाहिए ताजगी, 'फ्रेशनेस', जैसे सुबह के फूल में होती है, जैसे सुबह की पहली किरण में होती है।
और बूढ़े चित्त में-सिर्फ सड़ गए गिर गए फूलों की दुर्गंध होती है और विदा हो गई किरणों के पीछे का अंधेरा होता है। ताजा चित्त चाहिए।
तो खबर मिली, दूर-दूर तक खबर फैल गई कि फकीर अभय को उपलब्ध हो गया है। एक युवक संन्यासी उस फकीर की खोज में गया जंगल में-घने जंगल में, जहां बहुत भय था वह फकीर वहां रहता था, जहां शेर दहाड़ करते थे, जहां पागल हाथी वृक्षों को उखाड़ देते थे, उनके ही बीच चट्टानों पर ही, वह फकीर पड़ा रहता था। और रात जहां अजगर रेंगते थे, वहां वह सोया रहता था निश्चित। युवक संन्यासी उसके पास गया। उसी चट्टान के पास बैठ गया। उससे बात करने लगा तभी एक यागल हाथी दौड़ता हुआ निकला पास से। उसकी चोटों से पत्थर हिल गए। वृक्ष नीचे गिर गए। वह युवक कंपने लगा खड़े होकर। उस बूढ़े संन्यासी के पीछे छिप गया उसके हाथ-पैर कंप रहे हैं।
वह बूढ़ा संन्यासी खूब हंसने लगा और उसने कहा, तुम अभी डरते हो? तो
संन्यासी कैसे हुए? क्योंकि जो डरता है, उसका संन्यास से क्या संबंध? हालांकि अधिक संन्यासी डरकर ही संन्यासी हो जाते हैं। पत्नी तक से डरकर आदमी संन्यासी हो जाते हैं। और डर की बात दूर है-बड़े डर तो दूर हैं बड़े-छोटे डरो से डरकर संन्यासी हो जाता है।
उस बूढ़े संन्यासी ने कहा, तुम डरते हो? संन्यासी हो तुम? कैसे संन्यासी हो? वह युवक कंप रहा है। उसने कहा, मुझे बहुत डर लग गया। सच में, बहुत डर लग गया। अभी संन्यास वगैरह का कुछ खयाल नहीं आता। थोड़ा पानी मिल सकेगा, मेरे तो ओंठ सूख गए बोलना मुश्किल है।
बूढ़ा उठा, वृक्ष के नीचे, जहां उसका पानी रखा था, पानी लेकर गया जब तक बूढ़ा उस युवक संन्यासी ने एक पत्थर उठाकर उस चट्टान पर जिस पर बूढ़ा बैठा था लेटता था, बुद्ध का नाम लिख दिया-नमो बुद्धाः। बूढ़ा लौटा, चट्टान पर पैर रखने को था, नीचे दिखाई पड़ा नमो बुद्धाः। पैर कंप गया, चट्टान से नीचे उतर गया!
वह युवक खूब हंसने लगा। उसने कहा, डरते आप भी हैं। डर में कोई फर्क नहीं है। और मैं तो एक हाथी से डरा, जो बहुत वास्तविक था। और एक लकीर से मैंने लिख दिया, नमो बुद्धाः, तो पैर रखने में डर लगता है कि भगवान के नाम पर पैर न पड़ जाए!
किसका डर ज्यादा है? वह युवा पूछने लगा। क्योंकि मैं खोजने आया था अभय। मैं पाता हूं, आप सिर्फ निर्भय हैं अभय नहीं। निर्भय हैं सिर्फ। भय को मजबूत कर लिया भीतर। चारों तरफ घेरा बना लिया है अभय का। सिंह नहीं डराता, पागल हाथी नहीं डराता, अजगर निकल जाते हैं; सख्त हैं बहुत आप। लेकिन जिसके आधार पर सख्ती होगी, वह आपका भय बना हुआ है। भगवान के आधार पर सख्त हो गए हैं। भगवान को सुरक्षा बना लिया है। तो भगवान के खड़िया से लिखे नाम पर पैर रखने में डर लगता है!

उस युवक ने कहा, डरते आप भी हैं। डर में कोई फर्क नहीं पड़ा। और ध्यान रहे, हाथी से डर जाना पागल से-बुद्धिमत्ता भी हो सकती है। जरूरी नहीं कि डर हो। बुद्धिमानी ही हो सकती है। लेकिन भगवान के नाम पर पैर रखने से डर जाना तो बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती है। पहला डर, बहुत स्वाभाविक हो सकता है। दूसरा डर, बहुत साइकोलॉजिकल, बहुत मानसिक और बहुत भीतरी है।

हम सब डरे हुए हैं। बहुत भीतरी डर है, सब तरफ से मन को पकड़े हुए हैं। और हमारे भीतरी डरो का आधार वही होगा जिसके आधार पर हमने दूसरे डरो को बाहर कर दिया है।

हम गाते हैं न कि निर्बल के बल राम! गा रहे हैं सुबह से बैठकर कि हे भगवान निर्बल के बल तुम्हीं हो!
किसी निर्बल का कोई बल राम नहीं है। जिसकी निर्बलता गई, वह राम हो जाता है।

निर्बलता गई कि राम और श्याम में फासला ही नहीं रह जाता। निर्बलता ही फासला है, वही डिसटेंस है। तो निर्बल के बल राम नहीं होते। निर्बलता राम होती ही नहीं। निर्बलता सिर्फ राम की कल्पना है। और निर्बलता को बचाने के लिए ढाल है। और सारी प्रार्थना, पूजा, भय को छिपाने का उपाय है। 'सिक्योरिटी मेजरमेंट' है, और कुछ भी नहीं है। इंतजाम है सुरक्षा का।
कोई बैंक में इंतजाम करता है रुपए डालकर, कोई राम-राम-राम जपकर इंतजार करता है, भगवान की पुकार करके। सब इंतजाम हैं। लेकिन इंतजाम से भय कभी नहीं मिटता। ज्यादा से ज्यादा निर्भय हो सकते हैं आप, लेकिन भय कभी नहीं मिटता। निर्भय से कोई अंतर नहो पड़ता, भय मौजूद रह जाता है। भय मौजूद ही रहता है, भीतर सरकता चला जाता है।
जिस व्यक्ति के भीतर भय की पर्त चलती रहती है, वह व्यक्ति कभी भी युवा चित्त का नहीं हो सकता। उसकी सारी आत्मा बूढ़ी हो जाती है। फियर जो है, वह क्रिपलिंग है, वह पंगु कर देता है, सब हाथ-पैर तोड़ डालता है, सब अपंग कर देता है।
और हम सब भयभीत है-क्या करें? अभय कैसे हों? फियरलेसनेस कैसे आए?
निर्भयता तो हम सब जानते हैं आ सकती है। दंड-बैठक लगाने से भी एक तरह की निर्भयता आती है, क्योंकि आदमी जंगली जानवर की तरह हो जाता है। एक तरह की निर्भयता आती है। लोग ऊब जाते हैं दंड-बैठक लगाने से। एक तरह की निर्भयता आ जाती है। वह निर्भयता नहीं है अभय। तलवार रख ले कोई। खुद के हाथ में न रखकर, दूसरे के हाथों में रख दे।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga