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सदाचार का तावीज

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 730
आईएसबीएन :81-263-1025-1

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सदाचार का तावीज हिन्दी के व्यंग्य-साहित्य में अपने प्रकार की अद्वितीय कृति है। प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई की कुल इकतीस व्यंग्य-कथाओं का संग्रह।

Sadachar Ka Taveez

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सदाचार भला किसे प्रिय नहीं होता। सदाचार का तावीज़ बाँधते तो वे भी हैं जो सचमुच ‘आचारी’ होते हैं, और वे भी जो बाहर से ‘एक’ होकर भी भीतर से सदा ‘चार’ रहते हैं। यहाँ ध्यान देने की बात यही है कि आपके हाथों में प्रस्तुत सदाचार का तावीज़ किसी और का नहीं-हरिशंकर परसाई का है। परसाई-यानी सिर्फ परसाई और इसीलिए यह दावा करना गलत नहीं होगा कि सदाचार का तावीज़ भी हिन्दी के व्यंग्य-साहित्य में अपने प्रकार की अद्वितीय कृति है।

कुल इकतीस व्यंग्य-कथाओं का संग्रह है यह सदाचार का तावीज़। आकस्मिक नहीं होगा कि ये कहानियाँ आपको, आपके ‘समूह’ को एकबारगी बेतहाशा चोट दें,  झकझोरें, और फिर आप तिलमिला उठें। साथ ही आकस्मिक यह भी नहीं होगा जब यही कहानियाँ आपको अपने ‘होने’ का अहसास तो दिलायें ही, विवश भी करें कि औरों के साथ मिलकर खुद ही अपने ऊपर क़हक़हे भी आप लगायें। एक बात यह और कि इन ‘तीरमार’ कहानियों का स्वर ‘सुधार’ का हरगिज नहीं, बदलने का है, यानी सिर्फ इतना कि आपकी चेतना में एक हलचल मच जाये, आपको एक सही ‘संज्ञा’ मिल सके। प्रस्तुत है पुस्तक का नया संस्करण।

कैफियत

एक सज्जन अपने मित्र से मेरा परिचय करा रहे थे ‘यह परसाईजी हैं। बहुत अच्छे लेखक हैं। ही राइट्स फ़नी थिंग्ज़।’
एक मेरे पाठक (अब मित्रनुमा) मुझे दूर से देखते ही इस तरह की हँसी की तिड़तिड़ाहट करते मेरी तरफ़ बढ़ते हैं, जैसे दीवाली पर बच्चे ‘तिड़तिड़ी’ को पत्थर पर रगड़कर फेंक देते हैं और वह थोड़ी देर तिड़तिड़ करती उछलती रहती है। पास आकर अपने हाथों में मेरा हाथ  ले लेते हैं और ही-ही करते हुए कहते हैं—‘वाह यार, खूब मिले। मज़ा आ गया।’ उन्होंने कभी कोई चीज़ मेरी पढ़ी होगी। अभी सालों में कोई चीज़ नहीं पढ़ी; यह मैं जानता हूँ।

एक सज्जन जब भी सड़क पर मिल जाते हैं, दूर से ही चिल्लाते हैं ‘परसाईजी, नमस्कार ! मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना !’ बात यह है कि किसी दूसरे आदमी ने कई साल पहले स्थानीय साप्ताहिक में’ एक मज़ाक़िया लेख लिखा था, ‘मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना।’ पर उन्होंने ऐसी सारी चीज़ों के लिए मुझे ज़िम्मेदार मान लिया है। मैंने भी नहीं बताया कि वह लेख मैंने नहीं लिखा था। बस, वे जहाँ मिलते ‘मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना’ चिल्लाकर मेरा अभिवादन करते हैं।

कुछ पाठक यह समझते हैं कि मैं हमेशा उचक्केपन और हलकेपन के मूड में रहता हूँ। वे चिट्ठी में मखौल करने की कोशिश करते हैं ! एक पत्र मेरे सामने है। लिखा है—‘कहिए जनाब, बरसात का मज़ा ले रहे हैं न ! मेंढकों की जलतरंग सुन रहे होंगे। इस पर भी लिख डालिए न कुछ।’

       बिहार के किसी कस्बे से एक आदमी ने लिखा कि ‘तुमने मेरे मामा का, जो फ़ारेस्ट अफ़सर हैं, मज़ाक उड़ाया है। उनकी बदनामी की है। मैं तुम्हारे खानदान का नाश कर दूँगा। मुझे शनि सिद्ध है।’

कुछ लोग इस उम्मीद से मिलने आते हैं कि मैं उन्हें ठिलठिलाता, कुलाँचें मारता, उछलता मिलूँगा और उनके मिलते ही जो मज़ाक़ शुरू करुँगा तो हम सारा दिन दाँत निकालते गुज़ार देंगे। मुझे वे गम्भीर और कम बोलनेवाला पाते हैं। किसी गम्भीर विषय पर मैं बात छेड़ देता हूँ। वे निराश होते हैं। काफ़ी लोगों का यह मत है कि मैं निहायत मनहूस आदमी हूँ।

एक पाठिका ने एक दिन कहा—‘आप मनुष्यता की भावना की कहानियाँ क्यों नहीं लिखते ?’
और एक मित्र मुझे उस दिन सलाह दे रहे थे—‘तुम्हें अब गम्भीर हो जाना चाहिए। इट इज़ हाई टाइम !’
व्यंग्य लिखने वाले की ट्रेजडी कोई एक नहीं। ‘फ़नी’ से लेकर उसे मनुष्यता की भावना से हीन तक समझा जाता है। मज़ा आ गया’ से लेकर ‘गम्भीर हो जाओ’ तक की प्रतिक्रियाएँ उसे सुननी पड़ती हैं। फिर लोग अपने या अपने मामा, काका के चेहरे देख लेते हैं और दुश्मन बढ़ते जाते हैं। एक बहुत बड़े वयोवृद्ध गाँधी-भक्त साहित्यकार मुझे अनैतिक लेखक समझते हैं। नैतिकता का अर्थ उनके लिए साद गबद्दूपन होता है।

लेकिन इसके बावजूद ऐसे पाठकों का एक बड़ा वर्ग है, जो व्यंग्य में निहित सामाजिक-राजनीतिक अर्थ-संकेत को समझते हैं। वे जब मिलते या लिखते हैं, तो मज़ाक़ के मूड में नहीं। वे उन स्थितियों की बात करते हैं
जिनपर मैंने व्यंग्य किया है, वे उस रचना के तीखे वाक्य बनाते हैं। वे हालातों के प्रति चिन्तित होते हैं।

आलोचकों की स्थिति कठिनाई की है। गम्भीर कहानियों के बारे में तो वे कह सकते हैं कि संवेदना कैसे पिछलती आ रही है, समस्या कैसे प्रस्तुत की गयी—वग़ैरह। व्यंग्य के बारे में वह क्या कहें ? अकसर वह यह कहता है—हिन्दी में शिष्ट हास्य का अभाव है। (हम सब हास्य और व्यंग्य के लेखक लिखते-लिखते मर जायेंगे, तब भी लेखकों के बेटों से इन आलोचकों के बेटे कहेंगे कि हिन्दी में हास्य-व्यंग्य का अभाव है) हाँ, वे  यह और कहते हैं—विद्रूप का उद्घाटन कर दिया,  पर्दाफ़ाश कर दिया है, करारी चोट की है, गहरी मार की है, झकझोर दिया है। आलोचक बेचारा आर क्या करे ?

 जीवन-बोध, व्यंग्यकार की दृष्टि, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिवेश के प्रति उसकी प्रतिक्रिया, विसंगतियों की व्यापकता और उनकी अहमियत, व्यंग्य-संकेतों के प्रकार, उनकी प्रभावशीलता, व्यंग्यकार की आस्था, विश्वास—आदि बातें समझ और मेहनत की माँग करती हैं। किसे पड़ी है ?

अच्छा, तो तुम लोग व्यंग्यकार क्या अपने को ‘प्राफ़ेट’ समझते हो ? ‘फ़नी’ कहने पर बुरा मानते हो। खुद हँसते हो और लोग हँसकर कहते हैं—मज़ा आ गया, तो बुरा मानते हो और कहते हो—सिर्फ़ मज़ा आ गया ? तुम नहीं जानते कि इस तरह की रचनाएं हलकी मानी जाती हैं और दो घड़ी की हँसी के लिए पढ़ी जाती हैं।

(यह बात मैं अपने आपसे कहता हूँ, अपने आपसे ही सवाल करता हूँ।) जवाब : हँसना अच्छी बात है। पकौड़े-जैसी नाक को देखकर भी हँसा जाता है, आदमी कुत्ते-जैसे भौंके तो भी लोग हँसते हैं। साइकिल पर डबल सवार गिरें, तो भी लोग हँसते हैं। संगति के कुछ मान बने हुए होते हैं—जैसे इतने बड़े शरीर में इतनी बड़ी नाक होनी चाहिए। उससे बड़ी होती है, तो हँसी होती है। आदमी आदमी की ही बोली बोले, ऐसी संगति मानी हुई है। वह कुत्ते-जैसा भौंके तो यह विसंगति हुई और हँसी का कारण। असामंजस्य, अनुपातहीनता, विसंगति हमारी चेतना को छेड़ देते हैं। तब हँसी भी आ सकती है और हँसी नहीं भी आ सकती—चेतना पर आघात पड़ सकता है। मगर विसंगतियों के भी स्तर और प्रकार होते हैं। आदमी कुत्ते की बोली बोले—एक यह विसंगति है। और वन-महोत्सव का आयोजन करने के लिए पेड़ काटकर साफ़ किये जायें, जहाँ मन्त्री महोदय गुलाब के ‘वृक्ष’ की कलम रोपें—यह भी एक विसंगति है। दोनों में भेद, गो दोनों से हँसी आती है। मेरा मतलब है—विसंगति की क्या अहमियत है, वह जीवन में किस हद तक महत्त्वपूर्ण है, वह कितनी व्यापक है, उसका कितना प्रभाव है—ये सब बातें विचारणीय हैं। दाँत निकाल देना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है।

—लेकिन यार, इस बात से क्यों कतराते हो कि इस तरह का साहित्य हलका ही माना जाता है।
—माना जाता है तो मैं क्या करूँ ? भारतेन्दु युग में प्रताप नारायण मित्र और बालमुकुन्द गुप्त जो व्यंग्य लिखते थे, वह कितनी पीड़ा से लिखा जाता था। देश की दुर्दशा पर वे किसी भी क़ौम के रहनुमा से ज़्यादा रोते थे। हाँ, यह सही है कि इसके बाद रुचि कुछ ऐसी हुई कि हास्य का लेखक विदूषक बनने को मजबूर हुआ। ‘मदारी’ और ‘डमरू’, ‘टुनटुन’—जैसे पत्र निकले और हास्यरस के कवियों ने ‘चोंच’ और ‘काग’—जैसे उपनाम रखे। याने हास्य के लिए रचनाकार को हास्यास्पद होना पड़ा। अभी भी यह मजबूरी बची है। तभी कुंजबिहारी पाण्डे को ‘कुत्ता’ शब्द आने पर मंच पर भौंककर बताना पड़ता है कि काका हाथरसी को अपनी पुस्तक के कवर पर अपना ही कार्टून छापना पड़ता है। बात यह है कि उर्दू-हिन्दी की मिश्रित हास्य-व्यंग्य परम्परा कुछ साल चली, जिसने हास्यरस को भड़ौआ बनाया। इसमें बहुत कुछ हल्का है। यह सीधी सामन्ती वर्ग के मनोरंजन की ज़रूरत में से पैदा हुई थी। शौकत थानवी की एक पुस्तक का नाम ही ‘कुतिया’ है। अज़ीमबेग चुगताई नौकरानी की लड़की से ‘फ्लर्ट’ करने की तरकीबें बताते हैं ! कोई अचरज नहीं कि हास्य-व्यंग्य के लेखकों को लोगों ने हलके, ग़ैर-ज़िम्मेदार और हास्यास्पद मान लिया हो।

—और ‘पत्नीवाद’ वाला हास्यरस ! वह तो स्वस्थ है ? उसमें पारिवारिक सम्बन्धों की निर्मल आत्मीयता होती है ?
—स्त्री से मज़ाक़ एक बात है और स्त्री का उपहास दूसरी बात। हमारे समाज में कुचले हुए का उपहास किया जाता है। स्त्री आर्थिक रूप से गुलाम रही, उसका कोई अस्तित्व नहीं बनने दिया गया, वह अशिक्षित रही, ऐसी रही—तब उसकी हीनता का मजा़क़ करना ‘सेफ़’ हो गया। पत्नी के पक्ष के सब लोग हीन और उपहास के पात्र हो गये—ख़ास कर साला; गो हर आदमी किसी-न-किसी का साला होता है। इस तरह घर का नौकर सामन्ती परिवारों में मनोरंजन का माध्यम होता है। उत्तर भारत के सामन्ती परिवारों की परदानशीन दमित रईसज़ादियों का मनोरंजन घर के नौकर का उपहास करके होता है। जो जितना मूर्ख, सनकी और पौरुषहीन हो, वह नौकर उतना ही दिलचस्प होता है। इसलिए सिकन्दर मियाँ चाहे बुद्धिमान हों, मगर जानबूझकर बेवकूफ़ बन जाते हैं। क्योंकि उनका ऐसा होना नौकरी को सुरक्षित रखता है। सलमा सिद्दीकी ने सिकन्दरनामा में ऐसे ही पारिवारिक नौकर की कहानी लिखी है। मैं सोचता हूँ सिकन्दर मियाँ अपनी नज़र से उस परिवार की कहानी कहें, तो और अच्छा हो।

—तो क्या पत्नी, साला, नौकर, नौकरानी आदि को हास्य का विषय बनाना अशिष्टता है ?
—‘वल्गर’ है। इतने व्यापक सामाजिक जीवन में इतनी विसंगतियाँ हैं। उन्हें देखकर बीवी की मूर्खता बयान करना बड़ी संकीर्णता है।

और ‘शिष्ट’ और ‘अशिष्ट’ क्या है ? अकसर ‘शिष्ट’ हास्य की माँग वे करते हैं, जो शिकार होते हैं। भ्रष्टाचारी तो यही चाहेगा कि आप मुंशी की या शाले की मज़ाक़ का ‘शिष्ट’ हास्य करते रहें और उसपर चोट न करें वह ‘अशिष्ट’ है। हमारे यहाँ तो हत्यारे ‘भ्रष्टाचारी’ पीड़क से भी शिष्टता बरतने की माँग की जाती है—‘अगर जनाब बुरा न मानें तो अर्ज है कि भ्रष्टाचार न किया करें। बड़ी कृपा होगी सेवक पर’। व्यंग्य में चोट होती ही है। जिनपर होती है वे कहते हैं—‘इसमें कटुता आ गयी। शिष्ट हास्य लिखा करिए।’

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