लोगों की राय

सामाजिक >> वसुधारा

वसुधारा

तिलोत्तमा मजूमदार

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :632
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 742
आईएसबीएन :81-263-1125-8

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

59 पाठक हैं

बांग्ला की चर्चित कथाकार तिलोत्तमा मजूमदार का ‘वसुधारा’।

Vasudhara

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

माथुरगढ़ के सम्भ्रांत परिवेश में रहनेवाले शहरी अभिजनों की मानसिकता और अभावग्रस्त शरणार्थियों की अभिशप्त नियति कैसे एक-दूसरे के भावात्मक ताने-बाने को प्रभावित करती है-इसका लेखा-जोखा बेहद रोचक और प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत करती ‘वसुधारा’ की यह कथा आगे बढ़ती चलती है.. और समाप्त जान पड़ती हुई कभी समाप्त नहीं होती। जीवन हमेशा विरोधाभास रचता रहता है। एक तरफ महानगर की विशाल अट्टालिकाएँ खड़ी होती हैं तो दूसरी ओर घूरे के ढेर पर हाशिये से नीचे जीवनयापन करनेवालों की झुग्गियाँ पसरती रहती हैं। इस उपन्यास में वर्णित माथुरगढ़ की यही सच्चाई है। यहाँ सम्पन्न मध्यवित्त और सर्वहारा एक साथ रहते हुए पाप-पुण्य, शोषण-सहानुभूति, राग-द्वेष, ईर्ष्या का इतिहास रचते रहते हैं और इन्हीं सबके बीच मनुष्यता की श्रमयात्रा चलती रहती है। नियति द्वारा परिचालित होने के बावजूद मनुष्य की खूबी है कि वह नियति से लड़ता है और अपनी राह बनाने की कोशिश करता है। शायद इसी के जरिये वह चिरन्तन अमृत की वसुधारा की तलाश करता है।

वसुधारा

एक

अरुण सेन के मकान की छत पर रोज सूरज मानो कूदता हुआ अचानक उगता है और पूरे माथुरगढ़ में अपनी किरणें बिखेर देता है। अरुण सेन इस माथुरगढ़ में एक गण्यमान्य व्यक्ति हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। लेकिन इसी के साथ उन्हें नगण्य भी कहा जा सकता है। कारण, वैभव-सफलता के अलावा उनके व्यक्तित्व की कोई और विशेषता नहीं, जो उन्हें बहुत ऊपर ले जाए। पर एक दूसरी वजह भी है जो उन्हें आम आदमी बनाती है, वह है उनके चलने-फिरने, उठने-बैठने का तौर-तरीका, उनकी जीवन-शैली, काम-काज में किसी भी बात में कोई दुराव-छिपाव नहीं। फिर लोगों द्वारा उनके बारे में चर्चा करने को रह ही क्या जाता है ? बन्द मुट्ठी अगर एक बार खुल गयी तो लोगों के मन में उसको लेकर किसी तरह का कौतूहल नहीं रह जाता।

फिर भी सूर्य महाराज हर रोज अरुण सेन के मकान की छत से अवतरित होते हैं और चारों दिशाओं को अवलोकित करते हैं। किसी अज्ञात कारण से अवतरित होने के लिए उन्हें यही एक छत पसन्द आयी। अब यह सवाल उठ ही सकता है कि अगर अरुण सेन की वह छत नहीं होती तो वे क्या करते ! इस सवाल का जवाब आसान है। यह छत न होती तो सूर्यदेव का काम और भी सहज हो जाता। उस मकान की छत इस इलाके की सबसे ऊँची और पुरानी जगह है। सूर्य धरती को छोड़ जिस जगह से कूदकर उदित होते हैं, यह वही जगह है जो आड़े पड़ती है। इसलिए अगर वह मकान न होता, यह छत नहीं होती तो सूरज धरा पर उतरते हुए सहज ही सब जगह अपनी रोशनी बिखेरता। इसमें कोई सन्देह नहीं है।

लोग कहते हैं, रानी रासमणि के जँवाई माथुर का इस इलाके पर मालिकाना हक था। पर सिवा नाम के इस बात का और कोई प्रमाण नहीं। और फिर लोगों का तो बस नाम दे देने से वास्ता है। अफवाह फैलाने में भी उनका जवाब नहीं। इसलिए इस नाम को लेकर कोई ऐतिहासिक तथ्य भी नहीं है। इस मोहल्ले के पुराने अधिवासी भी यहाँ के इतिहास के बारे में कुछ कह नहीं सके। कारण, हो सकता है वंश-परम्परा में आंचलिक इतिहास को याद रखने का कोई चलन ही न रहा हो या फिर इसका कोई महत्त्व लोगों ने नहीं समझा हो। कब, कहाँ इतिहास की कोई जरूरत आ पड़ेगी, यह पहले से भला कौन समझ सकता है। इस दृष्टि से इस माथुरगढ़ का अब तक कोई ऐतिहासिक महत्त्व नहीं था। सत्तर के दशक में नक्सली आन्दोलन के दौरान बारानगर-काशीपुर जब अखबार की सुर्खियों में छाया हुआ था, तभी माथुरगढ़ का नाम भी लोगों की जुबान पर चढ़ा।

हाँ, ऐसा भी होता है कि भौगोलिक स्थिति के कारण भी कुछ स्थान इतिहास में नाम दर्ज करा लेते हैं। माथुरगढ़ के साथ भी ऐसा ही रहा होगा। इस मोहल्ले की खासियत यह भी है कि काँफी ऊँची जगह पर है। बारानगर के अन्तर्गत आने वाला यह इलाका बारानगर का गर्व भी इसीलिए बन गया है कि यह इलाका चारों तरफ नदी से घिरा है। और यह माथुरगढ़ भूखण्ड नदी से थोड़ा ऊँचा होने के कारण मगर की पीठ की तरह नजर आता है। इतना ऊँचा ही वहाँ बारिश का पानी नहीं ठहरता।

खैर, नाम में क्या रखा है ! और इतिहास की भी क्या बिसात ! इलाके के जन-जीवन को जैसा चलना है, वैसा ही चलेगा। पर किसी भी इलाके की भौगोलिक स्थिति के चलते उस इलाके को कुछ सुख-सुविधाएँ भी मिल जाती हैं। और इस दृष्टि से माथुरगढ़ के उत्तर रेलवे लाइन और फटिक बिल है। बिल के पास जो बस्ती थी, वहाँ गरीब लोग ही रहते हैं, इसलिए इसका नाम फटिक बिल पड़ा। इस इलाके के पश्चिम में गंगा और दक्षिणेश्वर है। उत्तर-दक्षिण में बी टी रोड से एक रास्ता पी डब्ल्यू डी रोड की ओर जाता था, जो दक्षिणेश्वर की ओर पड़ता है। यानी कह सकते हैं फटिक बिल उत्तर-पश्चिम कोने में है और माथुरगढ़ का सूरज पहले कभी वहाँ अपनी रोशनी नहीं बिखेरता। पहले वह कूदते हुए अरुण सेन की छत पर उतरता है और अलसाकर वहीं बैठ जाता है। और वहीं से गरीब-गुरबों को अपनी रोशनी बाँटता रहता है।

इस बात को लेकर कभी कोई सवाल नहीं उठा है। कारण, ऐसा हमेशा होता आ रहा है। अस्वाभाविक बात यह है कि युगों से जो इतिहास रच गया है, उसमें देखा गया है कि इस महाजगत से संबंधित हरेक मूल सवाल का ठीक-ठीक जवाब हत्या और रक्तपात की कहानी से जुड़ा हुआ है। इसकी वजह यह है कि युगों से स्वीकृति किसी सत्य को झटककर वे सवाल उठ खड़े हुए थे। किसी भी काल में कोई अपवाद सामने नहीं आया। यानी किसी सच को लोग ध्रुव मानकर चलते हैं और अपनी सुविधा के लिए उसे ध्रुव बनाये रखने का प्रयास करते हैं- उसमें कभी न कभी दरार पड़ती ही है। वह दरार का समय होता है। उन्माद का समय होता है। यहाँ तक कि इस समय भी लोगों के अधिकार को लेकर कुछ सच और मौलिक सवाल कुछ लोगों ने उठाये थे और तब हत्यकाण्ड हुए, कत्लेआम हुआ। आज यह प्रसंग दबा हुआ जरूर है। पर यह कभी भी किसी की जुबान से फिर उठाया जा सकता है। और इसी के साथ विनाशकारी हथियारों का कारखाना खड़ा हो जाएगा। कोई यह बता नहीं पाएगा कि कब नये-नये हथियारों से आदमी की छाती और पेट में छेद हो जाएँगे और लाल रक्तधारा बहने लगेगी। जैसे कि यह माथुरगढ़। जहाँ कभी बारिश के दिनों में पानी नहीं जमा, पर अचानक कब यहाँ बाढ़ आ जाए- यह भला कौन कह सकता है।

गंगा में ज्वार आने से इसका पानी पी डब्ल्यू डी रोड से तेंतुलतला तक आकर फटिक बिल तक घुस आया है, लेकिन माथुरगढ़ में पानी कभी पहुँच नहीं पाया। दूसरी ओर से देखा जाए तो बारानगर या माथुरगढ़ या फटिक बिल के लिए कोलकत्ता महानगरी और उसके नाले-नहरों का मानचित्र याद करना होगा। महानगर के हालात का प्रभाव उपनगरों पर पड़ता ही है। और अगर महानगर में पानी भरा हुआ है तो उसके आस-पास के इलाके पानी में डूब ही जाते हैं। कोलकत्ता जिन नोआई, विद्याधरी और बागजोला नालों पर आश्रित है, वे सब नाले कुल्टी नदी के साथ जुड़े हुए हैं। नेआई नाले का बहाव बारानगर इलाके से दूर नहीं। और यह बागजोला नाला भी इस इलाके को छूते हुए ऐसे निकलता था कि नोआई और बागजोला के कारण इस पूरे इलाके का निचला हिस्सा डूब जाता था।

कोलकत्ता पर विद्याधरी का असर कुछ कम नहीं है। यह नदी भूगोल की स्कूली किताबों में आज भी जिन्दा है। पर इतना जरूर है कि इसका अस्तित्व अब नदी के रूप में बचा नहीं रह गया है। अब वह नदी बुझ-सी गयी है। घिस गयी है। कूड़े-कचरे और जलकुम्भियों से पट गयी है। अब इसमें पानी रखने की हैसियत भी कुछ खास नहीं।
नोआईनाले का भी यही हाल है। बागजोला का भी यही फसाना है। कोई बारह साल पहले एक बार नोआई की मरम्मत का प्रस्ताव आया था। लेकिन ठीक-ठाक योजना के अभाव में मरम्मत के बावजूद इसका टूटना नहीं रुक पाया। इस कारण हर बरसात में जो होता है अखबार लिखता रहता है-

‘‘टाला से बिराटी तक उत्तर कोलकाता और उपनगरों की जल निकासी की स्थिति गम्भीर हो गयी है। आषाढ़ की बारिश में, यहाँ तक की भारी बारिश से पहले हल्की बारिश में भी पानी जम रहा है। सीधी-काशीपुर-बारानगर-निमता-कामारहाटी-बिराटी जैसे इलाकों में भी...।’’ ऐसा ही होता है। हर साल। हर बारिश में। नाले का पानी, नदी का पानी बिल को भर देता है। बिल का पानी घर-आँगन में घुस जाता है।

पहले तो फटिक बिल बस्ती में सारे दरवाजे पर दस्तक देता है। एड़ी तक डुबाता है। इसके कुछ दिनों बाद पानी चौखट पर चला आता है। उस पानी पर गन्दगी तैरती है। कूड़ा-कचरा होता है। और यह सब कुछ घर के अन्दर घुस जाता है। कुछेक दिन की तकलीफ। पर इससे बस्ती का कोई काम रुकता नहीं। यहाँ तक कि बच्चे का जन्म भी होता है। इन्हीं सबके के बीच। काम पर जाने वाले लोग घुटनों तक पानी में काम पर निकलते हैं। कुछेक दिनों में ही पैर में खुजली होने लगती है। पैरों में खाज हो जाता है। तब बस्ती से बाबुओं के घरों में काम करनेवाली नौकरानियाँ उनसे मलहम या बोरोलीन माँगकर ले जाती हैं। थोड़ा अपने लिए और तम्बाकू या पान की डिब्बी में भरकर घर ले जाती हैं। थोड़ा अपने पति के लिए, उनके पैरों में लगाने के लिए।     

ऐसा ही हमेशा होता रहा है। हमेशा से माथुरगढ़ सूखा ही रहा है। वहाँ कभी पानी नहीं ठहरा। अगर सचमुच यह जगह रानी रासमणि के जवाँई माथुर बाबू की रही है, तब कौन जानता है, शायद इसीलिए यह जमीन हमेशा-हमेशा से, यहाँ तक कि बारिश के दिनों में भी सिर ऊँचा उठाए खड़ी रहती है। ठीक उसी तरह जैसे किसी भगोड़े बेटे की बाट जोहती कोई माँ जगी रहती है लेकिन यह सब इतिहास में लिखा हुआ नहीं है। सिर्फ नाम ही है।

मोहल्ला कहने से माथुरगढ़ को बहुत छोटा नहीं समझ लेना चाहिए। इस इलाके को दरिद्र भी नहीं कहा जा सकता। समृद्ध और पूँजीपति भी यहाँ रहते हैं। पश्चिम बंगाल के स्थायी बाशिन्दों के साथ पूर्वी बंगाल से आये परिवार भी यहीं रहते हैं। उनमें से जो लोग प्रतिष्ठित हैं, पूँजीपति हैं, वे भी इसी मोहल्ले में रहते हैं। और जिनके पास सामर्थ्य नहीं है, वे पी डब्ल्यू डी रोड के उस पार शरणार्थी कॉलोनी में रहा करते हैं।
इस माथुरगढ़ के एक छोर में बी टी रोड के किनारे ब्रजगोपाल की दवा की दुकान है। वहाँ अड्डा जमा हुआ था।
सुरेंद्र कह रहा था, तुम श्मशानकाली की पूजा करते हो तो दक्षिणाकाली को क्यों नहीं पूजते ? उस भयानक रूप पर तुमसे भक्ति जगती है। दक्षिणाकाली का शान्त और श्रीमयी रूप देख तुमसे भक्ति नहीं पैदा होती ?

मल्लिनाथ हल्के से मुस्कराकर चुप रह गये। देवी की वेदी बहकर आने की बात उन्होंने आज तक किसी से नहीं कही। माधवी और लिली के अलावा इस बारे में और कोई नहीं जानता। उनके दोनों बेटे अमलेन्दु और कमलेन्दु भी नहीं।
मल्लिनाथ को चुप देख बहस छेड़ दिया प्रोफेसर अनिसुज्जमाँ ने। इस अड्डे में वही सबसे कम उम्र के सदस्य हैं। वनहुगली के बी पी सी कॉलेज में बांग्ला पढ़ाते हैं। बोले, ‘‘काली शब्द कहाँ से आया, डॉक्टर दा ?’’
मल्लिनाथ ने कहा, ‘‘काल शब्द के बीच स्त्रीलिंग प्रत्यय जोड़ देने पर काली बना। काली महाकाल का अंश है। दस मदाविद्या में पहली महाविद्या है। अन्य महाविद्या हैं तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगला, मातंगी, राजराजेश्वरी और कमला। आद्याशक्ति दुर्गा के ही ये दस रूप हैं। अनन्त काल की शक्तिरूपेण परमा प्रकृति हैं। काली को भयानक क्यों कह रहे हैं ? प्रकृति तो माँ हैं। और उनका यह भयानक रूप तो हम लोगों ने ही गढ़ा है। हम लोगों ने जब जिस रूप में शक्ति को चाहा, उसी रूप में गढ़ दिया।’’

यह बात एक साथ कहकर वे कुछ देर चुप रहे। उनकी खोपड़ी के अन्दर दिमाग के किसी कोने में कुछ सवाल उठ खड़े हुए थे। सच कह रहे हो ? सच ? तुम्हें डर नहीं लगता ? काली से ? अभिशाप से तुम नहीं डरते ? रूपचाँद की आत्मा से ?

लेकिन इन सब बातों के बारे में किसी से कुछ कहने का उनके पास कोई चारा भी नहीं। अपने डर की बात को उजागर करने का भी कोई उपाय नहीं। तमाम अनुभवों को छिपाते हुए अपने चेहरे को रेखाओं को वे स्वाभाविक रखने की कोशिश में थे।
अनिसुज्जमाँ उनकी बातों का प्रसंग छेड़ते हुए कहते हैं, ‘‘काल शब्द का तो एक और अर्थ है मृत्यु। आप इसे अस्वीकार नहीं कर सकते डॉक्टर साब !’’
मल्लिनाथ ने कहा था, ‘‘नहीं। नहीं कर सकता। पर काली की अराधना का मतलब मृत्यु की अराधना नहीं है। बल्कि रोग, शोक, और दु:खनाशिनी के रूप में ही हम काली का नाम लेते हैं।’’
अनिसुज्जमाँ ने मुस्कराते हुए अपनी आँखें बन्द करके भारी स्वर में उचारा था-

ऊँ त्रह्येहि भगवत्यम्ब भक्तानुग्रहविग्रहे।
योगिनीभि: समं देवी रक्षार्थं मम सर्वदा।।
ऊँ महापद्मवनान्तस्ते कारणानन्दविग्रहे।
सर्वभूतहितेमातरह्येहि परमेश्वरी।।

मल्लिनाथ और समरेन्द्र एक साथ ताली बजाते हुए बोले, ‘‘बहुत खूब, बहुत खूब !’’



   

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book