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आदिग्रन्थ

महीप सिंह

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7433
आईएसबीएन :9788170288107

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आदिग्रन्थ (गुरु ग्रन्थ साहिब) मध्ययुगीन भारत की एक अद्भुत रचना...

Aadi Granth - A Hindi Book - by Maheep Singh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आदिग्रन्थ (गुरु ग्रन्थ साहिब) भारत की पाँच शतियों के धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक जीवन का बहुत प्रामाणिक दस्तावेज़ है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं है कि यह ग्रन्थ उस युग के भारत के विभिन्न भागों के विचार-चिन्तन को स्वर देने वाला एकमात्र ग्रन्थ है। जो तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थितियों का व्यापक चित्र प्रस्तुत करता है।

आदिग्रन्थ (गुरु ग्रन्थ साहिब) मध्ययुगीन भारत की एक अद्भुत रचना है। आज यह ग्रन्थ एक धर्म ग्रन्थ के रूप में समाद्टत है, किन्तु अपनी संरचना में यह धर्मग्रन्थों की सामान्य आवधारणा का अतिक्रमण करता है। इस ग्रन्थ में तेरहवीं शती के शेख फरीद और जयदेव की कुछ रचनाओं से लेकर सत्रहवीं शती के गुरु तेग़बहादुर तक की रचनाओं की बानगी उपलब्ध है। इस प्रकार इस देश की पाँच शताब्दियों की चिंतनधारा का यह ग्रन्थ प्रतिनिधित्व करता है।

सन् 1604 में पंचम गुरु-गुरु अर्जुन देव ने इस ग्रन्थ का संचयन-संपादन किया था। किन्तु इस ग्रन्थ में संगृहीत वाणीकारों की रचनाओं का चयन और संग्रह गुरु नानक देव के समय से ही प्रारम्भ हो गया था। फिर यह संग्रह गुरु-दर-गुरु हस्तान्तरित होते हुए गुरु अर्जुन देव तक पहुँचा। इस ग्रन्थ के निर्माण के एक शती पश्चात् दसवें गुरु-गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पिता, नौंवे गुरु-गुरु तेग़बहादुर की वाणी को इसमें सम्मिलित कर आदिग्रन्थ को अंतिम रूप दिया। अपने देहावसान के पूर्व (1708 ई.) उन्होंने इसे गुरुपद पर सुशोभित कर दिया। व्यक्ति गुरु का स्थान शब्द गुरु ने ले लिया। उस समय से इसे ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ अभिहित किया जाने लगा।

यह ग्रन्थ अपने आप में उस युग की सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थितियों का व्यापक चित्र हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता है और समतामूलक समाज की स्थापना की पृष्ठभूमि सृजित करता है।

 

समाज की परिकल्पना

 

आदिग्रन्थ का सम्पादन पाँचवें गुरु, गुरु अर्जुन देव ने सन् 1604 में किया था। इसके लगभग एक सौ वर्ष पश्चात् दसवें गुरु, गुरु गोबिन्द सिंह ने इसमें अपने पिता, नौवें गुरु, गुरु तेग़बहादुर की वाणी सम्मिलित की। अपने देहावसान के पूर्व सन् 1708 में उन्होंने देहधारी गुरु की परम्परा समाप्त कर दी और अपने द्वारा अन्तिम रूप दिए गए इस ग्रन्थ को गुरु पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। उस समय से श्रद्धालुओं द्वारा इसे गुरु ग्रन्थ साहिब नाम से अभिहित किया जाने लगा।

आदिग्रन्थ में तत्कालीन समाज और संस्कृति का बड़ा व्यापक चित्र प्राप्त होता है। इसमें सम्मिलित रचनाकारों की परिधि बारहवीं शती से लेकर सत्रहवीं शती तक फैली हुई है। इस 500 वर्ष की अवधि में इस देश के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में निरन्तर परिवर्तन होता रहा। परिवर्तित होते हुए जीवन-मूल्यों, विश्वासों और आस्थाओं का आदिग्रन्थ में स्थान-स्थान पर चित्रण हुआ है।

समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण से समाज ‘व्यक्तियों का झुण्ड नहीं है अपितु, सामाजिक सम्बन्धों का जाल है।’ सामाजिक सम्बन्धों में मनुष्य के कई प्रकार के व्यवहार, प्रतिमान, अन्तःक्रियाएँ और सामाजिक क्रियाएँ शामिल होती हैं। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य प्रत्येक युग में विभिन्न प्रकार के प्रतिमान विकसित करते आए हैं। इनको पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित किया जाता रहा है। जो व्यवहार-प्रतिमान समाज के सदस्यों ने स्वीकार कर लिया हो वह चलन बन जाता है। चलन के अन्तर्गत रीति-रिवाज, जन-रीति, प्रथाएँ, रूढ़ियाँ, संस्थाएँ आदि आती हैं। सामाजिक जीवन में इनका बहुत महत्व है, क्योंकि इसके अनुसार ही लोगों को एक-दूसरे के साथ व्यवहार करना होता है, अन्यथा वे समाज के अन्य सदस्यों से तिरस्कार या दण्ड के भागी बन जाते हैं।

यद्यपि व्यक्तियों ने समाज की धारा को बाँधने का प्रयत्न किया, परन्तु वह धारा निरन्तर प्रवाहित रही और अन्य प्राकृतिक घटनाओं की भाँति समाज में निरन्तर परिवर्तन होता रहा। व्यक्ति किन्हीं परिस्थितियों या किन्हीं कारणों से अपने आचरण को बदलने लगते हैं तो वे सामाजिक परिवर्तनों को जन्म देने लगते हैं।

मानवीय समाज सदा ही विभिन्न प्रकार एवं स्तर के वर्गों में विभाजित रहा है। वर्ग का सामान्य अर्थ है समान सामाजिक स्तरवाले व्यक्तियों का समूह। सामाजिक वर्ग समुदाय का ऐसा भाग होता है, जो अपने विशिष्ट सामाजिक स्तर के कारण दूसरों से भिन्न होता है। सामाजिक वर्गों के प्रमुख लक्षण हैं। (1) श्रेणीबद्धता (2) ऊँच-नीच की भावना (3) वर्ग-चेतना (4) व्यक्तियों के लिए वर्ग-परिवर्तन की सुविधा और (5) वर्गसंघर्ष।

कोई भी महत्त्वपूर्ण कृति अपने समकालीन समाज की उपेक्षा नहीं कर सकती। उसमें अपने समय के समाज, उसके मूल्यों, विकृतियों, और परिवर्तनों के सूत्र बिखरे हुए होते हैं। इसी प्रकार अपने समय की संस्कृति की अनेकमुखी झलक उसमें स्पष्ट दिखाई देती है।
संस्कृति क्या है ? अनेक प्रकार से इस शब्द को परिभाषित किया गया है। संस्कृति के अन्तर्गत मन, रुचि, आचार-विचार, कला-कौशल और सभ्यता के क्षेत्र में बौद्धिक-विकास सूचक बातें आती हैं।

वस्तुतः संस्कृति उन मूल्यों का समुदाय है, जिन्हें मनुष्य अनेक प्रकार की शिक्षा द्वारा अपने प्रयत्न से प्राप्त करता है। संस्कृति का सम्बन्ध मुख्यतः मनुष्य की बुद्धि, स्वभाव, मनोवृत्तियों से है। संस्कृति का अर्थ किसी समाज की जीवन-पद्धति से है, जिसमें उसकी शिल्प-कला, विश्वास और मान्यताएँ, संचित-ज्ञान और वे मूल्य भी आ जाते हैं जिनके लिए उस समाज के व्यक्ति जीते हैं ?

सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से गुरु नानक का व्यक्तित्व अत्यन्त जागृत, जिज्ञासु और जनजीवन से जुड़ा हुआ व्यक्तित्व था। आदिग्रन्थ में पंजाब के बाहर के अनेक संतों की वाणियाँ संगृहीत हैं। वे संत बंगाल से सिंध तक तथा मुलतान (पाकपट्टन) से महाराष्ट्र तक फैले हुए थे। गुरु नानक का जन्म पंजाब में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन के 22 वर्ष अपने अभिन्न साथी भाई मरदाना के साथ भारत के लगभग सभी भागों तथा विदेश के अनेक भागों की यात्रा की थी।
गुरु नानक की यात्रा के विषय में सुमेरु पर्वत पर साधनारत सिद्धों-नाथों से हुई वार्ता के सम्बन्ध में भाई गुरुदास ने लिखा है कि जब सिद्धों ने गुरु नानक से उनकी यात्राओं का उद्देश्य पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया—

 

बाबे कहिआ नाथ जी सच चन्द्रमा कूड़ अँधारा।
कूड़ अमावस वरतिया हंउ भालण चढ़िआ संसारा।।

 

अर्थात–हे नाथ जी, सच का चन्द्रमा, झूठ के अँधेरे में विलुप्त हो गया है। सभी ओर झूठ की अमावस छाई हुई है। मैं यह देखने के लिए संसार का भ्रमण कर रहा हूँ।
भक्तिकाल का एक बहुतर्चित कथन है कि भक्ति का जन्म द्रविड़ प्रदेश में हुआ, जिसे स्वामी रामानन्द उत्तर में लाए और संत कबीर ने उसे सात द्वीप और नौ खण्डों में प्रचारित किया।...

 

भगती द्राविड़ ऊपजी लाये रामानन्द।
परगट किया कबीर ने सप्त दीप नव खण्ड।।

 

इस उक्ति से इस बात की पुष्टि होती है कि भक्ति का जन्म दक्षिण भारत के द्रविड़ प्रदेश में हुआ था। तमिल प्रदेश के आडवार अथवा आलवार संतों द्वारा जिस ईश्वर भक्ति की परम्परा का विकास हुआ था, उसे से उस प्रदेश में अनेक आचार्यों का आविर्भाव हुआ और वही परम्परा महाराष्ट्र, गुजरात से होती हुई उत्तर भारत में आ गयी।
आलवार भक्तों की संख्या 12 मानी जाती है। इनके आविर्भाव का समय छह सौ वर्षों (ईसा की सातवीं शती से लेकर बारहवीं शती) तक व्याप्त रहा। इन आलवारों में एक-दो को छोड़कर प्रायः सभी निम्न समझी जाने वाली जातियों में उत्पन्न हुए थे। इन भक्तों के पदों का संग्रह 12वीं शती के वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा हुआ जिसे ‘प्रबन्धम्’ कहा जाता है। इस ग्रन्थ को तमिल वेद भी कहा जाता है।

आलवारों के पश्चात दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म का प्रचार करने वाले भक्त आचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। रघुनाथाचार्य (दसवीं शती) यामुनाचार्य (ग्यारहवीं शती) रामानुजाचार्य (बारहवीं शती) निम्बार्काचार्य। (बारहवीं-तेरहवीं शती) मध्वाचार्य (तेरहवीं-चौदहवीं शती) में अवतरित हुए।

भागवत पुराण में भक्ति के मुख से अपने विकास क्रम की चर्चा हुई—‘‘मैं द्रविड़ प्रदेश में पैदा हुई, कर्नाटक में बढ़ी, महाराष्ट्र में सम्मानित हुए, परन्तु गुजरात में मुझे बुढ़ापे ने आ घेरा। वहाँ घोर कलियुग के प्रभाव के कारण पांखडियों ने मेरे अंग तोड़ दिए। पर्याप्त समय तक इस अवस्था में रहने के कारण मैं अपने पुत्रों (ज्ञान और वैराग्य) सहित दुर्बल और तेजहीन हो गई। अब जब से मैं वृन्दावन आई हूँ, तब से फिर परम सुन्दरी और रूपवती युवती हो गई हूँ।

आदिग्रन्थ में सम्पादन के पूर्व के भक्ति साहित्य में तत्कालीन समाज के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों का व्यापक चित्रण मिलता है। राजनीतिक स्थिति का वर्णन करते हुए आचार्य वल्लभाचार्य (1481-1553) ने अपनी रचना ‘कृष्णाश्रय’ में लिखा है....‘देश म्लेच्छाक्रान्त हैं, गंगादि तीर्थ दुष्टों द्वारा भ्रष्ट हो रहे हैं, अशिक्षा और अज्ञान के कारण वैदिक धर्म भ्रष्ट हो रहा है। ऐसी स्थिति में एकमात्र कृष्णाश्रय में ही जीवन का कल्याण है।’
वल्लभाचार्य के इस कथन से कुछ बातें स्पष्ट होती हैं–

1. देश म्लेच्छों द्वारा आक्रान्त है।
2. इनके द्वारा गंगा तट पर बने तीर्थ भ्रष्ट हो रहे हैं।
3. चारों ओर अशिक्षा और अज्ञान का बोलबाला है। परिणाम स्वरूप वैदिक धर्म नष्ट हो रहा है।
4. सत्पुरुष पीड़ित किए जा रहे हैं।
5. ज्ञान विस्मृत हो रहा है।
6. इस हताशा भरी स्थिति में कृष्ण भक्ति में ही जीवन का कल्याण है।

वल्लभाचार्य की इन पंक्तियों से उस समय की देश की राजनीतिक स्थिति और उसके प्रभाव का आकलन किया जा सकता है।
सामाजिक दृष्टि से असमानता और छुआछूत पूरी तरह व्याप्त था। अलवारों में निम्न समझी जाने वाली जातियों के संत भी थे, किन्तु दक्षिण के वैष्णव आचार्यों की अभिव्यक्तियों में वर्णाभिमान और छुआछूत झेलने की प्रखर वेदना विद्यमान हैं। पंढ़रपुर के विट्ठल के मन्दिर से पुरोहितों ने उन्हें इसलिए निकाल दिया था, क्योंकि वह जाति के छीपा थे। अपने एक पद में नामदेव ने लिखा है कि अपने-आपको उच्च वर्ण का मानने वाले ये पाण्डे मुझे बात-बात में नीच कह कर अपमानित करते हैं–

 

ए पंडीआ मो कउ ढेर कहत तेरी पैज पिछउडो होइला।।

 

इस युग के भक्ति साहित्य में नीच समझी जाने वाली जातियों के अन्दर उपजे असंतोष और विद्रोह की अभिव्यक्ति दिखाई देती है। संत कबीर ने बड़े स्पष्ट शब्दों में ब्राह्मण को सम्बोधित करते हुए पूछा था—तुम किस प्रकार ब्राह्मण हो, मैं किस प्रकार शूद्र हूँ। मेरी रगों में रक्त प्रवाहित होता है तो क्या तुम्हारी नसों में दूध प्रवाहित हो रहा है ?

 

तुम कत ब्राह्मण हम कत सूद।
हम कत लोहू, तुम कत दूध।।

 

एक अन्य साखी में संत कबीर ने बड़ी आक्रोश भरी भाषा में पूछा था, अरे ब्राह्मण, संसार के सभी प्राणी माँ की कोख से जन्म लेते हैं। तुम्हें इस बात का गर्व है कि ब्राह्मणी ने तुम्हें जन्म दिया था तो संसार में आने के लिए तुमने अन्य कोई मार्ग क्यों नहीं अपनाया ?

 

जौ तू ब्रह्मणी जाया।
तउ आन बाट काहे नहि आया।।



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