लोगों की राय

कला-संगीत >> प्राचीन भारतीय वेशभूषा

प्राचीन भारतीय वेशभूषा

रोशन अल्काजी

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7461
आईएसबीएन :9788123737546

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

219 पाठक हैं

चित्रकारों, कला के विद्यार्थियों, फैशन डिजाइनरों तथा फिल्मों, टेलीविजन और रंगमंच के लिए वेशभूषा डिजाइन करने वालों के लिए एक सुलभ संदर्भ ग्रंथ...

Prachin Bhartiya Veshbhusha - A Hindi Book - by Roshan Alkaji

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह पुस्तक लेखिका की, ‘एन्शेन्ट इंडियन कास्ट्यूम्स’ का संक्षिप्त संस्करण है। इसमें अधिकतर पुरातत्वीय स्रोतों के आधार पर 321 ईसा पूर्व और 850 ई. के मध्य भारतीय वेशभूषा के क्रमिक विकास की पड़ताल की गई है। इसके चार अध्यायों में, प्रत्येक में काल विशेष का संक्षिप्त सामाजिक इतिहास, उस काल की वेशभूषा, रंगाई एवं छपाई को सम्मिलित किया गया है तथा उस काल की दृश्य कला पर एक संक्षिप्त टिप्पणी है। 79 रेखाचित्रों से युक्त यह संस्करण ऐसे सामान्य पाठकों के लिए एक प्रारंभिक पुस्तक के रूप में है जिनमें प्राचीन भारतीय वेशभूषा के विषय में पूर्ण जानकारी प्राप्त करने की जिज्ञासा है। यह संस्करण चित्रकारों, कला के विद्यार्थियों, फैशन डिजाइनरों तथा फिल्मों, टेलीविजन और रंगमंच के लिए वेशभूषा डिजाइन करने वालों के लिए एक सुलभ संदर्भ ग्रंथ है। इस पुस्तक के मूल संस्करण का उपयोग ईस्ट-वेस्ट विश्वविद्यालय, होनुलूलू सहित अनेक संस्थानों में पाठ्य पुस्तक के रूप में किया गया है।

मौर्य और शुंग काल

(321-72 ईसा पूर्व)

वेशभूषाओं के महत्व के मुख्य पुरातत्वीय स्थल
  • भरहुत
  • सांची
  • पीतलखोड़ा (दकन)

  • इतिहास और सामाजिक जीवन


    इस युग ने भारत के पहले महान साम्राज्य का उदय देखा। मौर्य साम्राज्य की स्थापना के ठीक पूर्व जब सिकन्दर ने पंजाब में प्रवेश किया, तो उसकी दृष्टि अपने विशाल व्यापारिक संसाधनों के विकास पर थी। बेबीलोन के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित हो चुके थे और चीन, फारस एवं भारत के बीच अनेक सांस्कृतिक आदान-प्रदानों का सिलसिला जारी था। सिकन्दर ने अपने मार्ग पर अनेक व्यापारिक चौकियां स्थापित कर दी थीं और वह अपने पीछे यूनानी उपनिवेश छोड़ गया जिन्होंने अंततया भारतीयों से साथ विवाह संबंध स्थापित किए। स्वयं चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानी सेल्यूकस की राजकुमारी से विवाह किया।

    चन्द्रगुप्त मौर्य संपन्न राज्य का स्वामी था। उसके समय में उत्सवों के अवसर पर निकलने वाले जुलूसों में चांदी-सोने के हौदों से सजे हाथी, चार घोड़ों वाले रथ और बैलों की जोड़ियां हिस्सा लिया करती थीं। नगरों के लोग रत्नजटित मलमल व जामदानी के वस्त्र पहना करते थे। राजप्रासाद वास्तव में अत्यंत भव्य और विलासितापूर्ण हुआ करते थे। शान-औ-शौकत वाले ईरानी तर्ज के इनके कमरों के ऊंचे सुनहरी खंभों पर अंगूर की बेलों और रजत पक्षियों की नक्काशी होती थी। ये राजप्रासाद छायादार वृक्षों के सुंदर उद्यानों में स्थित होते थे। विविधता की दृष्टि से उद्यानों के अनेक वृक्ष आयातित होते थे। मछलियों से भरी कृत्रिम झीलों में नौकायन उस समय का एक लोकप्रिय खेल था।

    यह संपन्नता का युग था। दरिद्रों के लिए भी यह समृद्धि का युग था क्योंकि कृषि भूमि उपजाऊ थी। उस समय की मूल फसलें चावल, जौ, गेहूं, बाजरा और गन्ना थीं। स्वर्ण और चांदी-सहित धातुओं का खनन किया जाता था। राज्य द्वारा नागरिकों को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान किया जाता था। राज्य की ओर से सड़कों का रखरखाव किया जाता था तथा तालाब और कुओं की व्यवस्था होती थी। ये सभी कार्य जनसाधारण में कल्याण की भावना जागृत करने में सहायक होते थे। वैदिक काल की भांति ही पशुपालन तब भी महत्वपूर्ण था तथा दुग्ध उत्पादनों के अतिरिक्त खाल, चमड़ा, सींग, बाल और ऊन उपलब्धि का साधन थे, जिनका उपयोग विभिन्न उद्योग धंधों में किया जाता था।

    उस समय महाराष्ट्र की तट रेखा के साथ-साथ मलाबार समुद्र तट, तमिल इलाके और बंगाल के बंदरगाहों से पानी के जहाज से व्यापार होता था। मध्य एशिया और चीन होकर गुजरने वाले प्राचीन रेशम-मार्ग से जुड़ने के लिए भू-मार्गों का विस्तार किया गया था तथा अधिक लाभ की कामना में लंबे कारवां जोखिम-भरी यात्राएं किया करते थे।


    प्रथम पृष्ठ

    लोगों की राय

    No reviews for this book