लोगों की राय

सामाजिक >> अविनश्वर

अविनश्वर

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 754
आईएसबीएन :81-263-0948-2

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

192 पाठक हैं

इस उपन्यास में मनुष्य की तमाम बहुरंगी आकृतियों और उसकी खूबियों-कमियों की जीवन्त और आत्मीय ढंग से प्रस्तुति...

Avinashwar a hindi book by Ashapurna Devi - अविनश्वर - आशापूर्णा देवी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शायद यह सही है कि आशापूर्णा देवी की अधिकांश रचनाओं के केन्द्र में नारी-चरित्र हैं,मगर उनकी रचनाएं केवल इसी विषय पर केन्द्रित नहीं हैं। मनुष्य की तमाम बहुरंगी आकृतियों और उसकी खूबियों-कमियों को उन्होंने अपनी कृतियों में जीवन्त और आत्मीय ढंग से उकेरा है। अपने लगभग सभी उपन्यासों के माध्यम से मानवीय चरित्रों का गम्भीर मनोविश्लेषण करते हुए आशापूर्णा देवी ने अपने समय और समाज के यथार्थ को पूरी क्षमता से प्रतिबिम्बित किया है। उनका यह उपन्यास अविनश्वर भी इसका प्रमाण है। अविनश्वर में अपने अतीत की सुनहरी यादों में डूबे जमींदार राजाबहादुर शशिशेखर और उनके मन में रची-बसी प्रियतमा सुधाहासिनी की मनोहरी प्रेम-कथा है। सामान्य प्रेम-कथाओं से अलग यह एक ऐसी व्यथा-कथा है, जो दैहिक और सांसारिक उपलब्धियों के पार अलौकिक इन्द्रधनुषी अनुभूतियों का साक्षात्कार कराती है.....

अविनश्वर

पैसे हों तो सुन्दरवन के जंगल में या पहाड़ की गुफा में भी ऐशो-आराम, सुख-सुविधा का, सीधे शब्दों में हर प्रकार की विलासिता का आयोजन भी सम्भव है। और पैसेवाले लगातार यही आयोजन करने में लगे हुए हैं। दुनिया में सभी जगह यही लीला चल रही है। सभी काल, सभी युग में।

ढलती शाम के समय शीशे से घिरे बरामदे में, डनलपपिलो के गद्देवाले सोफ़े पर बैठकर सामने की ऊँची-नीची पथरीली सड़क पर से बढ़कर आते मालवाही भैंसा-गाड़ियों की ओर देखते हुए यही सोच रही थी अनुराधा। लगता है ये गाड़ियाँ इसी महल के सामने आकर रुकेंगी। अवश्य ही इस प्राचीन महल के किसी-किसी भाग में आधुनिक सजावट के लिए ये सब चीज़ें शहर से आ रही हैं। यही तो करता जा रहा है सोमशेखर।
विज्ञान के बल पर कितना कुछ होता रहता है।

मगर केवल विज्ञान के बल पर ही क्यों, अनुराधा ने सोचा, केवल धन-बल से ही मानव हर युग, हर काल में असम्भव को सम्भव करता आया है, असाध्य को साध्य करता आया है। सिक्के का पहिया दुनिया के इस छोर से उस छोर तक भाग-दौड़कर धनवानों के जीवन में अर्थ का अर्थ स्पष्ट कर रहा है, उसके सपनों को साकार कर रहा है, परिकल्पनाओं के रूप देकर उसकी आकांक्षा की पूर्ति रहा है। आधुनिक विज्ञान का जब नामो-निशान नहीं था, उस युग में भी पैसा ही मरुस्थल में गुलाब खिला सका, हज़ारों फ़ीट ऊँचे पर्वत की चोटी पर विशाल महल खड़ा कर सका, गहरी नदी के बीच गगनचुम्बी महल खड़ा कर सका। धनवानों के शौक़ीन, मनोरंजन के लिए दुनिया में जितने आयोजन हैं, साधारण लोगों की जीवन-यात्रा के लिए उसका एक प्रतिशत भी नहीं होता है। उस स्वर्णमुद्रा के युग से लेकर आज के काग़ज़ी नोटों के युग तक एक ही घटना दिखाई पड़ती है। मनुष्य और जानवर युगों से साथ-साथ बोझ ढोते चले आ रहे हैं। आधुनिक युग के द्रुतगामी यान शायद शहर के लोगों की इच्छापूर्ति शीघ्रता से कर रहे हैं, मगर क्या इससे मनुष्य और जानवरों को छुट्टी मिली - आज भी तो दुर्गम पथ पर हाथी, ऊँट, बैल, भैंसा, भेड़-बकरे, घोड़े और उनके साथ-साथ उनका साथी मनुष्य ही जो दिखाई पड़ता है ।

ये साथी न हों तो कौन उनकी पीठ पर बोझा उठा देगा - कौन उनके भूख-प्यास की ख़बर रखेगा - और है ही कौन जो जल-थल वायुगामी विभिन्न यानों द्वारा लाये गये माल को खलास करेगा -
धन-बल का प्रत्यक्ष रूप है ‘जन-बल’। ये दोनों शक्ति ही विज्ञान की प्रगति में सहायक बनते आ रहे हैं। विज्ञान विलुप्त हो भी जाए, ये विलुप्त नहीं होंगे कभी भी।

भैंसे के गले में बँधी घंटी अनुराधा को सुनाई पड़ती है।
पहले, दूर से एक मृदु संगीत की ध्वनि बनकर, फिर धीर-मन्थर, जैसे किसी वृद्ध पुरोहित के हाथ आरती की घण्टी बज रही हो। अस्पष्ट से क्रमश: स्पष्ट होता चला गया। सूरज भी तो बड़ी जल्दब़ाजी में आसमान पर बिछाये रंगीन चादर को समेट रहा है। कोने-कोने पर अँधेरी छाया जमने लगी है।
तभी तो दादी कहती थीं-भादों की वेला पलक झपकते निकल ....अनुराधा ने सोचा। बहुत अच्छा लग रहा था इस तरह बैठे रहना। साँझ होते ही उठ जाना पड़ेगा। पूजा-भवन में सन्ध्या-दीप जलाने की ड्यूटी उसी की है। एक मिनट इधर-उधर होने की छूट नहीं है।
उठने की सोच ही रही थी अनुराधा कि सोमशेखर आकर खड़ा हुआ।

लम्बा-चौड़ा, सुगठित राजोचित व्यक्तित्व, ज़मीन को छू रही है महीन धोती की चूनट, एक तरफ़ बटन लगे उससे भी महीन ‘चिकन’ का कुर्ता, पाँव में हिरन की चमड़ी के चप्पल। संगमरमर के फ़र्श पर वे पाँव एक शोभा बन गये।
‘‘इतना क्या सोच रही थी -’’
शीशे से घिरे बरामदे की खुली खिड़की पर थोड़ा-सा झुककर सोमशेखर ने कहा, ‘‘एक बार आकर लौट गया।’’
‘‘लौट गये - धत् कभी नहीं।’’
‘‘नहीं मानो तो मैं क्या कह सकता हूँ मैंने देखा, अशोकवाटिका की सीता-जैसा चेहरा बनाकर, सब होश खोकर बैठे-बैठे आसमान की ओर देख रही हो, इसीलिए डिस्टर्ब नहीं किया।’’
‘‘यह कोई बात हुई ’’
सोफ़े से उठ खड़ी हुई अनुराधा। बोली, ‘‘यह क्या बात है। बुला तो लेते -’’

‘‘ध्यान-गम्भीर’’ मुखड़ा देखकर बुलाने की इच्छा नहीं हुई। इतना क्या सोच रही थी - कविता की पंक्तियाँ -’’
शादी के बाद अनुराधा की एक कविता की काँपी हाथ लग गयी थी, मौक़ा पाते ही उस बात को छेड़ बैठता है सोमशेखर।
सोमशेखर के ललाट और बालों पर सूरज की अन्तिम सुनहरी किरण फैली थी। उस मुखड़े को देखकर अनुराधा का दिल आवेग से भर गया।

ख़ुद वह कम सुन्दर नहीं थी, रूप के टिकट पर ही कलकत्ते की गली के एक घर से इस महल में प्रमोशन हुआ था उसका। फिर भी अपने रूपवान पति की ओर देखने से ही अपने-आपको तुच्छ महसूस करती थी अनुराधा। मगर यह तो कहनेवाली बात नहीं है। इसीलिए निकट आकर बोली, ‘‘कभी नहीं। अब तक जो सोच रही थी, वह लिखने से मानवतावाद पर एक प्रबन्ध हो जाता, समझे महाशय- ’’
‘‘मर गया! अचानक ऐसी उल्टी बुद्धि क्यों - अच्छा, तो वह महान चिन्ता क्या है, सुन सकता हूँ -’’
‘‘सुनाने लगो तो चिन्ता की सूक्ष्मता विनष्ट हो जाती है।’’

सोमशेखर हँस पड़ा। बोला, ‘‘रहने दो तब। फ़िलहाल एक बड़ी मोटी स्थूल बात कहने आया हूँ। दो भैंसे की गाड़ी आयी है, उनमें दो-दो करके चार लोग आये हैं। आज रात को लौट नहीं पाएँगे। रात को यहीं खाएँगे और सोएँगे।’’ फिर आँखों में शरारत भरकर बोला,‘‘हालाँकि सोने की चिन्ता न ही करो तो अच्छा, केवल थोड़ा-सा खिला देना।’’
‘‘दिन-पर-दिन बहुत असभ्य होते जा रहे हो!’’
‘‘क्या मुसीबत है ग़रीब लोगों को थोड़ा-सा खाना देने के लिए कह दिया, उसमें सभ्यता की हानि कैसे हो गयी -’’
‘‘अच्छा, ठीक है। बड़े चालाक हो गये हो!’’
‘‘अर्थात् दो ‘चार्जशीट’ तैयार हो गयीं-एक असभ्यता के लिए, दूसरी चालाकी के लिए’’
‘‘मैं चलती हूँ। पूजा-भवन जाने में देर हो रही है।’’
‘‘मैंने रोक रखा है क्या -’’ सोमशेखर बोला। अनुराधा ने भौंहों से कुछ इशारा किया। धीमी रोशनी में ठीक से दिखाई नहीं पडा़।

खुली हुई खिड़की को खींचकर बन्द करते हुए सोमशेखर बोला, ‘‘गाड़ीवानों के खाने के बारे में रजनी को कहने से ही काम चलता, फिर भी तुम्हें परेशान किया। रजनी कंजूसी करता है, ख़ासकर इन लोगों के बारे में। यह मैंने देखा है।’’
अनुराधा हँसकर बोली, ‘‘रजनी के विचार से जिन लोगों को दो जून भर-पेट भात नहीं मिलता, उनको दाल-भात ही मिल जाए, उनके लिए यही बड़ा ऐश हो जाता है। उस पर से अगर मांस-मछली, दूध-दही मिल जाए तो घर पहुँचते ही ‘राम नाम सत्य’ हो जाएगा!’’

अनुराधा चंचल हो रही थी, मगर इस मनोरम वातावरण और मधुर सान्निध्य को छोड़कर उसकी जाने की इच्छा भी नहीं हो रही थी। भला कितनी देर यह आदमी पास रहता है! दिन-रात काम-धन्धे में ही तो घूमता रहता है।
अक़्सर नाराज़ होकर अनुराधा कहती है-ब्याह के समय सुना था दुल्हा राजकुमार है। राजकुमार दिन-रात कुली हाँकता फिरता है, यह पता नहीं था।

बात सच है। इस राजघराने के राजा तीन पुरखों से व्यवसाय में लगे हैं। हालाँकि अभी तीन पुरखों में से बीचवाले जा चुके हैं। रह गये हैं सोमशेखर और शशिशेखर। शशिशेखर की उम्र अस्सी पार कर चुकी है, अत: प्रत्यक्ष रूप से अब वह चूने और ‘स्टोन चिप्स’ के सप्लाई बिज़नेस में हाथ नहीं बँटा पाते, मगर परोक्ष रूप से इसे वही चलाते हैं।
अनुराधा कहती है, दादाजी मस्तक और तुम हाथ-पाँव हो।

अभी अनुराधा ने रंगीन टंगाईल साड़ी पहन रखी है, रंग मिलाकर, ‘‘फुल वायॅल’’ का ब्लाउज़, लेस लगा हुआ पेटीकोट। जल्दी से उतार, ये सब बदलकर गरद की साड़ी ब्लाउज़ पहन पूजा-भवन में जाना पड़ेगा। काम छोटा-सा है, दुर्गा-वेदी पर पंचदीप जलाकर शंख बजा देना और धूप-बत्ती दिखाना, बस। लेकिन तैयारी विशाल। उसमें समय लग जाता है।
फिर भी थोड़ा ठहर गयी अनुराधा। पूछा, ‘‘गाड़ी में क्या आया है -’’
‘‘मोज़ेक टाइल्स।’’ सोमशेखर बोला, ‘‘दूसरी मंज़िल के इधर वाले बाथरूम में टाइल्स लगवाऊँगा। एक सुन्दर डिज़ाइन पसन्द किया है मैंने।’’

अनुराधा कुछ गम्भीर हो गयी। बोली, ‘‘बरामदे को घेरकर जब अटैच्ड बाथरूम बनवाया, तब तो यही कहा था तुमने कि मार्बल का फ़र्श ही बहुत सुन्दर है, फिर अब क्या हुआ -’’
‘‘रंग छा गया दिमाग़ पर। बड़ा सुन्दर डिज़ाइन है।’’

‘‘अच्छा, इस बारे में बाद में बात करेंगे।’’ कहकर सोने के कमरे से गुज़रते हुए नीचे उतर गयी अनुराधा। यह बरामदा सोने के कमरे से बिल्कुल जुड़ा हुआ है। भीतर आने का और कोई रास्ता नहीं है इसका। यह हाल में बना है। पुराने महल के साथ नया संयोजन। मगर यह परिकल्पना अनुराधा की है। उसके विचार से अपनी इच्छानुसार बैठने के लिए थोड़े एकान्त की आवश्यकता होती है। शुरू-शुरू में कहती थी, तुम्हारे घर में इस बात की बड़ी कमी है। काम करनेवालों की संख्या इतनी अधिक है कि अपनी ज़रूरत कहीं महसूस ही नहीं होती है। और उनकी गतिविधि इतनी बेरोक-टोक है कि संकुचित रहना पड़ता है। जब-तब यहाँ-वहाँ चले आते हैं सीधे। यहाँ तक कि सोने के कमरे में भी।
सुनकर सोमशेखर चौंक पड़ा था, ‘‘कौन घुस आता है -’’
‘‘वही, तुम लोगों की विधुमुखी, सुशीला, हेना...’’
हँसते-हँसते सरक गया सोमशेखर। बोला, ‘‘अरे वे सब तो औरतें हैं।’’
‘‘होने दो। ‘औरत’ है तो सब माफ़ है क्या - कमरे में आकर पाँव पसार कर बैठ जाती हैं। पान चबाती, गप्पें लड़ाती हैं। बहुत बुरा लगता है। दक्षिण के बरामदे में बैठने गयी तो तुम लोगों के ब्रजराज झाड़न लेकर हाज़िर हो गये-झपाझप झाड़पोंछ करने। बुरा नहीं लगेगा क्या -’’
उसी बुरा लगने के परिणामस्वरूप यह सोने के कमरे से लगा शीशे से घिरा बरामदा है। दिल करे तो बड़ी-बड़ी खिड़कियों को खोल दो, हवा उड़ाकर ले जाएगी। जब आँधी-पानी हो तो खिड़कियों को बन्द कर बाहर की शोभा देखना चाहो तो देख लो

यहाँ एक सोफ़ा बिछा है, बिल्कुल नया, इसीलिए बिल्कुल आधुनिक डिज़ाइन का है। इधर-उधर दो-चार हल्के बेंत की कुर्सियाँ पड़ी हैं, वह भी हाल ही की हैं।
सोमशेखर कहता है, ‘‘गृहिणी का ख़ास बरामदा है।’’
हालाँकि ‘गृहिणी’ पीछे से कहता है। ‘पत्नी’ को ‘गृहिणी’ का नाम दे दिया, अगर मधुमालती देवी के कानों में यह बात पड़ जाए तो उस दिन के लिए अन्न जल त्याग-बैठेंगी।

..इसके आगे पुस्तक में देखें..

-

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book