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काव्य की भूमिका

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7546
आईएसबीएन :978-81-8031-414

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‘‘काव्य की भूमिका’ राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की अनुपम कृति है जिसमें ग्यारह विचारोत्तेजक निबन्ध संग्रहीत हैं

Kavya Ki Bhumika - A Hindi Book - by Ramdhari Singh Dinkar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रीतिकाल का नया मूल्यांकन, छायावाद की भूमिका, छायावादोत्तर काल, प्रयोगवाद, कोमलता से कठोरता की ओर आरम्भ के निबन्धों में रीतिकाल से लेकर प्रयोगवाद तक की प्रमुख प्रवृत्तियों का विवेचन किया गया है। भविष्य की कविता निबंध में यह समझाने की चेष्टा की गयी है कि वैज्ञानिक युग में कविता अपने किन गुणों पर जोर देकर अपना अस्तित्व कायम रख सकती है। कविता ज्ञान है या आनन्द, रूपकाव्य और विचारकाव्य, प्रेरणा स्वरूप, सत्यम् शिवम् सुन्दरम्, कविता की परख युवाशक्ति के नाम कवि का संदेश है।
आशा है उच्चकोटि के उच्च साहित्य के विद्यार्थियों तथा काव्य प्रेमियों को कवि दिनकर की यह कृति नया मार्गदर्शन करेगी।

रीतिकाल का नया मूल्यांकन


जार्ज रसल ने लिखा है कि जब मैं यह जानना चाहता हूँ कि कोई कविता अच्छी है या नहीं, तब मैं अपने-आप से यह प्रश्न करता हूँ कि यह कविता पारदर्शी है या अंधी; अर्थात् जो कुछ है, वह कविता के ऊपर ही है अथवा उसके भीतर भी कुछ दिखलाई पड़ता है। और जब मुजे यह मालूम होता है कि कविता पारदर्शी है, तब मैं अपने-आप से दूसरा प्रश्न यह करता हूँ कि कविता के भीतर मुझे कितनी दूर की चीज दिखाई देती है।

कविता अंधी होने पर भी खूबसूरत हो सकती है, जैसे शीशे पर अगर रंगों से सघन चित्रकारी कर दें तो शीशे के भीतर तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन, चित्रकारी खूबसूरत जरूर होगी। परन्तु, कारीगरी उस कारीगरी की बराबरी नहीं कर सकती, जिसके द्वारा शीशे पर रंगीन चित्र भी बनाए जाते हैं और उसकी पारदर्शिता भी मारी नहीं जाती है।

यह सत्य सिर्फ रसल को सूझा हो, सो बात नहीं है। रसल से पहले और संसार के अन्य देशों से भी बहुत पूर्व, भारत में यह प्रश्न उठा था कि कविता की आत्मा क्या है और इस प्रश्न के उत्तर में जिस आचार्य ने अलंकार को काव्य की आत्मा माना, उसकी आँख कविता की अंधी चित्रकारी से टकराकर रह गई थी। तब वामन आए, जिन्होंने कहा, कविता की आत्मा रीति है। रीति काव्य की पारदर्शिता का पूरा प्रतिमान नहीं थी, फिर भी, वामन छिलके से बीज की ओर जाने का संकेत कर रहे थे, स्थूल को छोडकर सूक्ष्म और निराकार की खोज कर रहे थे। किन्तु, जब आचार्यों के कदम ध्वनि की भूमि पर आए, कविता की असली आत्मा का पता उन्हें चल गया। इस प्रकार, कविता के सम्बन्ध में आनन्दवर्धन को जो सूक्ष्म ज्ञान नवीं सदी में प्राप्त हुआ, उससे अधिक बारीकी पर दुनिया आज भी नहीं पहुँची है। शायद, ध्वनि से आगे बारीक तत्त्व कविता में और कोई है ही नहीं।

इसी बात को हम एक दूसरी भाषा में भी रख सकते हैं कि अच्छी कविता की पहचान यह है कि उसे पढ़कर मनुष्य के हृदय में एक प्रकार की बेचैनी या जागृति स्फुरित होती है और उसका मन भीतर-ही-भीतर किसी यात्रा या पर्यटन पर निकल पड़ता है। यह आवश्यक नहीं है कि यह यात्रा या पर्यटन उन्हीं अर्थों तक सीमित रहे, जो कविता के शब्दों में सन्निहित हैं। असली वस्तु शब्दों के अर्थ नहीं, संकेत हैं और संकेथ तो शब्द दूर तक का दिया करते हैं।

ऊँची कविताओं का एक अन्य लक्षण यह भी है कि युग में उनकी रचना की जाती है, उस युग की शीतलता अथवा दाह का प्रमाण उनके भीतर मौजूद रहता है। कविताएँ बराबर वर्तमान की कुक्षि से पैदा होती हैं और वर्तमान से उठकर ही उनकी झंकार अतीत और भविष्य का स्पर्श करती है। ऐसा नहीं है कि कवि को अपने युग के वातावरण का ख्याल जानबूझ कर करना पड़ता हो; बल्कि, जानबूझकर ख्याल करने की जरूरत तो उसे तभी होगी जब वह अपने समय से बचना चाहेगा। समय का वातावरण काव्य के पौधे की खाद है और सत्कवि उससे भागने की कोशिश नहीं करता। जिसे हम शाश्वत और चिरंतन कहते हैं, वह किसी एक युग की सम्मत्ति नहीं है। वह प्रत्येक युग में वर्तमान रहता है और प्रत्येक युग उसकी व्याख्या अपनी भाषा और अपने मुहाविरों में किया करता है। कवि के हृदय में आलोड़न समकालीन परिस्थितियों के कारण होता है और कवि-कर्म में प्रवृत्त भी उसे अपना समय ही करता है, क्योंकि जो कुछ वह कहनेवाला है, असल में, वह काल की ही शंकाएँ या समादान हैं और काल के हृदय में जिस हर्ष, शोक या उल्लास की लहर चल रही है, उसी को अभिव्यक्ति देने के लिए वह अपने कवि के आगमन की प्रतीक्षा करता है।

इस दृष्टि से विचार करने पर हम वैदिक काव्य तथा रामायण और महाभारत को बहुत ऊँचा पाते हैं, क्योंकि इन कविताओं में पारदर्शिता बहुत अधिक है और उनके भीतर से जीवन की बहुत बड़ी गहराई साफ दिखाई पड़ती है। इसके सिवा, उनसे यह भी ज्ञात होता है कि जिस युग में काव्य रचे गए, उस युग में यह देश समाज-संगठन के आदर्शों को लेकर और अगोचर सत्यों का पता लगाने के लिए भयानक संघर्ष कर रहा था। उपनिषदों का समय शंका, जिज्ञासा, चिन्तन और बौद्धिक कोलाहल का समय था। अन्तिम सत्य क्या है, इसे जानने के लिए उस युग के ऋषियों ने इतना अधिक चिन्तन किया कि उपनिषदों में कहीं-कहीं हमें उनके दिमाग के फटने की-सी आवाज सुनाई पड़ती है और चूँकि, यह साहित्य बौद्धिक एवं भौतिक दोनों ही प्रकार के अप्रतिम, संघर्षों के सान्निध्य में लिखा गया, इसलिए, उस साहित्य से हमें आज भी प्रेरणा मिलती है, बल्कि, तीन-चार हजार वर्षों से यही साहित्य सारे भारतीय साहित्य का उपजीव्य रहा है।

किन्तु, यह संघर्ष जब समाप्त हो गया, भारतीय जीवन अपेक्षाकृत कुछ अधिक शान्त वातावरण में जा पहुँचा और तब हमारे कवि कालिदास हुए। कालिदास के विषय पुराने, कहने की शैली नवीन है। मगर, वे क्लान्त जाति के कवि नहीं हैं। वे उस जाति के कवि हैं, जिसने सांसारिक समृद्धि और आध्यात्मिक शंकाओं का समाधान प्राप्त कर लिया और जो अब जरा पाँव फैलाकर आराम कर रही है।

प्रत्येक साहित्यकार चाहता है कि वह काल अनुगमन नहीं, नयन करे; उसकी सीमा में आबद्ध नहीं रहकर उसका अतिक्रमण कर जाए। मगर, काल का नयन और अतिक्रमण वह तभी कर सकता है जब एक बार काल उसे जगाने की सामग्री तैयार कर दे, जब समाज के भीतर संघर्ष अथवा असंतोष की आग थोड़ी जमा हो जाए। कालिदास के बाद (अगर चौथी शती में उनका होना सही है) भारतीय समाज की आग बुझने लगी, संघर्ष का तनाव ढीला होने लगा और रूढ़ियों ने इस देश को जकड़ना शुरू कर दिया। समृद्धि और निश्चन्तता की स्थित तथा भय एवं बेचैनी के अभाव का यह स्वाभाविक परिणाम है कि वह जातियों को शिथिल बना देता है। कालिदास के बाद का साहित्य शिथिल जाति का साहित्य है, जिसमें काव्य रीतियों में बँधता जाता है और दो-दो पृष्ठ के लम्बे-लम्बे वाक्य साहित्यकार की श्रेष्ठता का प्रमाण बन जाते हैं। जिसके सामने संघर्ष नहीं, वह साज-सज्जा और रंगीनियों के चक्कर में पड़ जाता है। जब समाज कवि को अनुभूतियाँ नहीं देता, तब कवि दूर की कौड़ियाँ जमा करके अपना चमत्कार दिखाने लगता है। उचित तो यह है कि ऐसे समय में वे कवि आएँ, जिनकी जबान कोड़ा और शब्द तीर हों; किन्तु, यह प्राचीन भारत का दुर्भाग्य रहा कि उसने कोई भी ऐसा कवि उत्पन्न न किया, जो यह कहने का साहस करे कि मैं अन्याय का विरोध करने आया हूँ। माघ और श्रीहर्ष की कविता संस्कृत की श्रेष्ठ कविताओं में गिनी जाती है, किन्तु, उसके भीतर मनुष्य को प्रेरित या आन्दोलित करने का गुण नहीं है। जिस कविता में ध्वनि मौजूद हो, उसके सम्बन्ध में यह कैसे कहा जाए कि वह पार्दर्शी नहीं है ? किन्तु, इन कविताओं में उस आध्यात्मिक संघर्ष का अभाव है, जो मनुष्य की मानसिक जड़ता का नाश करता है। व्यास और वाल्मीकि कवि थे, जो पहाड़ों को तोड़कर जिन्दगी के लिए रास्ते बनाते थे; बाण, श्रीहर्ष और माघ कलाकार हैं, जो छोटे-छोटे पत्थरों को घिसकर उन्हें चिकना करते हैं। कवि तब उत्पन्न होते हैं जब समाज प्रगति पर होता है; कलाकार उस समय भी आते हैं जब समाज के पाँव बँध जाते हैं।

और छठी सदी के बाद भारत के पाँव बँध गए और नई-नई भूमियों की ओर बढ़ने की उसमें प्रेरणा नहीं रही। तब से लेकर 16वीं सदी तक विद्या के सभी अंगों को छोड़कर इस देश के पंडित, मुख्यतः, या तो काव्यशास्त्र की रचना करते रहे अथवा मनुष्यों को बाँधने के लिए ऐसे धर्मशास्त्र बनाते रहे, जिनके कारण आगे चलकर भारतीय समाज बिलकुल भीरु हो गया।
मनुष्यों को प्रेरित करनेवाला साहित्य भारत में फिर तब उदित होने लगा जब भाषा में भक्ति आन्दोलन के कवि उत्पन्न हुए। वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, कालिदास, कबीर, जायसी, तुलसी, सूर, भारतेन्दु, पन्त, निराला, प्रसाद और महादेवी इनके पास वह साहित्य है, जिसमें ताजगी है, जो मनुष्य को प्रसन्न ही नहीं, जाग्रत भी करता है तथा जो अपने समय के आलोड़न से निकला हुआ नवनीत है। किन्तु, रीतिकालीन साहित्य में ऐसा अंश बहुत कम है, जिसमें अपने समय का ताप हो अथवा जिसके भीतर तत्कालीन समाज की भावनाओं का प्रतिबिम्ब मिलता हो या जिसमें यह ताकत हो कि वह पढ़नेवालों के मन को किसी यात्रा में भेज सके। ध्वनि के उदाहरण तो रीतिकाल में बहुत हैं, मगर, उनका असर इतना ही है कि काग इस डाल से उड़कर उस डाल पर बैठ जाता है, मन को किसी दूर दिशा में ले जाने की शक्ति रीतिकाल की कम रचनाओं में मिलती है। रीतिकाल की सबसे बड़ी विचित्रता यह है कि उससे यह मालूम ही नहीं होता कि उस युग के साहित्यकार समाज की समस्याओं से परिचित थे अथवा उन्हें इस बात का ज्ञान भी था कि समाज की भी समस्याएँ हुआ करती हैं। ऐसा लगता है कि रीतिकालीन कवियों के मन के किसी भी स्तर पर कोई सवाल नहीं था, जिसका उत्तर खोजने को वे संघर्ष में पडते अथवा किसी प्रकार की द्विधा और द्वन्द्व का सामना करते। उनका ध्यान जीवन पर नहीं, कला पर है, काव्यशास्त्र की गुत्थियों पर है और उन्हीं को समझाने के लिए उक्तियों और चित्रों का निर्माण करके वे निश्चिन्त हो जाते हैं। तत्कालीन समाज के हृदय में जो शंकाएँ रही होंगी, लोग जिन समाधानों की कामना कर रहे होंगे, रीतिकाल के कवियों को वे सुनाई नहीं पड़े। इनमें से अधिकांश कवियों के कान संस्कृत के काव्यचार्यों की पोथियों की ओर थे, अतएव, जो कुछ उन्होंने सुना, वह इन्हीं पोथियों की आवाज थी, जिन्दगी की शंकाए नहीं। अथवा उसे हम शुद्ध कला का स्वर भी कह सकते हैं।

काव्याशास्त्र की साधना संस्कृत में, प्रायः एक हजार वर्ष तक होती रही और इस दीर्घ साधना के कारण यह विषय भारत में आनन्दमय हो उठा। किन्तु, इस साधना से एक दुष्परिणाम भी निकला कि समाज में पंडितों और आलोचतों का आदर देखकर देश के कवियों का भी मन डोल उठा और वे रचना के सुयश को गौण मानकर आलोचना की कीर्ति के लिए लालायित हो उठे। इलियट ने कहा है कि जब-जब आलोचना की वृद्धि होती है तब-तब रचना का ह्रास होने लगता है। भारत में साहित्य का जैसा इतिहास रहा है, उसे देखते हुए इलियट की यह उक्ति बहुत ही सटीक मालूम होती है। पहले यह रोग संस्कृत में फैला और वहाँ से वह हिन्दी में आन पहुँचा और यह भी हुआ कि अनुकरण में असली के गुण तो कम आए, मगर, उसके दो बहुत अधिक मात्रा में आ गए।

रातिकाल की निन्दा कोई नई चीज नहीं है। इसका आरम्भ उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में स्वयं ठाकुर1 ने किया था; और जिस कवि ने ‘एती झूठी जुगती बनावै औ कहावै कवि2 कहकर कवि की हँसी उड़ाई थी, उसके सामने भी रीति का ही कोई उदाहरण रहा होगा। रातिकाल की सबसे बड़ी निन्दा की बात तो यह है कि उसके उत्तराधिकारी भारतेन्दु ने उस काल को लाँघकर अपना स्वर भक्तिकाल से मिलाने की कोशिश की और तब से आज तक प्रत्येक साहित्यिक आन्दोलन रीतिकाल को लात मार कर लोगों की वाहवाही पाता आया है। प्रताप नारायण मिश्र3, पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी और मदनमोहन मालवीय4, उन्नीसवीं सदी के अन्त तक, प्रायः अनेक अच्छे लोग रीतिकाल काव्य के विरोधी हो गए थे और छायावाद की स्थापना के समय तो नए कवि रीतिकाल को कोसने में, शायद ही, कभी चूँकें हों।
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1. सीखि लीनो मीन, मृग, खंजन, कमल, नैन।
सीख लीनो जस औ प्रताप को कहानो है।
सीखी लीनो कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिंतामनि,
सीखि लीनो मेरु और कुबेर गिरि आनो है।
‘ठाकुर’ कहत याकी बड़ी है कठिन बात,
याको नहीं भूलि कहूँ बाँधियत बानो है।
डेल-सो बनाय आय मेलत सभा के बीच,
लोगन कबित्त कीबो खेल करि जानो है।

2. मांस की गरेथी कुच कंचन-कलस कहै,
मुख चन्द्रमा जो असलेषमा को घर है।
दोनों कर जुगल मृनाल, नाभी कूप कहै,
हाड़ हो को जंघा ताहि कहै रंभा तर है।
हाड़ को बसन ताहि हीरा, मूँगा, मोती कहै,
चाम को अधर ताहि कहै बिम्बाधर है।
एती झूट जुगती बनावै औ कहावै कवि,
ताहू पै कहै कि हमें सारदा को वर है।

3. तुमहिं कहा प्यावै जब हमरो कटत रहत गोवंश तमाम ?
केवल सुमुखि अलक उपमा लहि नाग देवता तृप्यंताम्।

4. भारत चारहुँ ओर दुखी दुख भोगत बीति गे वर्ष हजारन।
ध्यान रतीक दियो चाहिए दुख कोन उपाय सों होय निवारन।
सो सब दूरि रहै ‘मकरंद’ समैं इन बातन में किहि कारन।
होय सो होय इहाँ नहि भूलनो राधिका रानी कदम्ब को डारन।

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