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नाटक-एकाँकी >> कोलाहल से दूर

कोलाहल से दूर

मोहन थानवी

प्रकाशक : विश्वास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :79
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7562
आईएसबीएन :00000000

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दूसरों के सपनों को तोड़ते हुए कोलाहल से दूर जाने का संदेश...

Kolahal Se Door - A Hindi Book - by Mohan Thanvi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कोलाहल से दूर

पूर्णावधि नाटक


पात्र


सुमंत                   :          पति उम्र 26 वर्ष
निशा                   :          पत्नी उम्र 30 वर्ष
प्रवीण                  :          दोस्त उम्र 28 वर्ष
द्वारिका                :          वृद्धा उम्र 55 वर्ष
राजकुमार             :          वृद्ध उम्र 62 वर्ष
निहारिका             :          बच्ची उम्र दस वर्ष

दृश्य एक


मंच पर शनैः शनैः प्रकाश फैल रहा है। धुंधलके में कुछ लोगों की परछाइयां मुट्ठियां ताने, विकास के कार्य करते समूह में इधर से उधर आ-जा रही हैं। साथ ही गीत गूंजता है...

आओ जगाएं खुद को फिर से
आओ जगाएं समाज को फिर से
जलाएं घृणा और प्रेम बढ़ाएं
सर्वहारा के दुख मिटाएं
विश्वगुरु पद पाएं फिर से
आओ जगाएं खुद को फिर से...
दुनिया को बता दें हम वही और हमारा भारत वही है
जिसकी संस्कृति से सुवासित ये धरा है
सदियों पुरानी है हमारी परंपराएं
रहे हैं आगे सर्वहारा जिनकी वजह से
आओ जगाएं खुद को फिर से
आओ जगाएं समाज को फिर से
दीप से दीप जलाएं और अज्ञान को दूर भगाएं
जमाने को रोशन बनाएं फिर से
आओ जगाएं खुद को फिर से...

(गीत के समाप्त होते होते दृश्य स्पष्ट होता है और सामने दिखाई देता है–मध्यम वर्गीय दलित परिवार के घर का एक सामान्य सज्जित मकान। दीवारों पर आंबेडकर, गांधीजी और इंदिरा गांधी की तस्वीरे लगी है। एक कोने में चारपाई पर राजकुमार अधलेटा बैठा है और पार्श्व में गूंज रहे पुराने फिल्मी गीत पर हाथपैर हिलाता हुआ हावभाव बना रहा है। नजदीक ही दो कुर्सी, एक मेज है जिस पर टीवी और फोन रखा है। फर्श पर दरी बिछी हुई है जिस पर अखबार और दो पुस्तकें रखी हैं। सुमंत प्रवेश करता है।)

सुमंत : बाबा, खूब मजे से गाने सुन रहे हो...
राजकुमार : अरे आओ सुमंत, सुनो क्या बोल हैं, लय-ताल हैं...

सुमंत : हां, लेकिन मुझे ऐसे गाने हमेशा अच्छ नहीं लगते...
राजकुमार : क्या बात करते हो सुमंत, भाई मैं भी कौन सा ऐसे गाने सुनकर ही जिन्दा हूं... (आंख मारता है)

सुमंत : मतलब बाबा आप भी...केजी किया रे...(डांस करता है)
राजकुमार : (चारपाई पर लेटे-लेटे ही नाचने की मुद्रा में हाथ-पैर हवा में घुमाते हुए)–अरे क्या गाना याद दिला दिया रे...केजी किया रे...

(सुमंत और राजकुमार दोनों नाचते हैं, जबकि रोडियो पर दूसरा पुराना फिल्मी गीत गूंजने लगता है मगर दोनों को जैसे गीत से कोई मतलब ही नहीं है। निशा प्रवेश करती है)

निशा : अरे, अरे ! ये ससुर जमाई को क्या हुआ।
(इधर-उधर देखकर ट्रांजिस्टर खोजती है, चारपाई के नीचे रखे ट्रांजिस्टर को बंद करके जोर से मां को पुकारती है।)

निशा : मां, ओ मां, मां तुम हो कहां मां
(राजकुमार और सुमंत नाचना बंद कर देते हैं)

निशा : मालूम नहीं कहां चली गई...
(जोर से) मां...मां

राजकुमार : अरे बेटा ऐसा क्या काम आ पड़ा मां से जो चिल्ला रही हो...
निशा : बाबा, आपने इतना शोर क्यों मचा रखा है...

(सुमंत दरी पर बैठकर अखबार पढ़ने का नाटक करता है, बीच बीच में दोनों को कनखियों से देखता हुआ राजकुमार को चिढ़ाता जाता है)

राजकुमार : शोर...कैसा शोर ! भई, जंवाई बाबू आए हैं इनका स्वागत करो...ये क्या शोर...शोर करके और मां को पुकार कर माहौल बिगाड़ रही हो...
निशा : माहौल ! कैसा माहौल बाबा आप तो नाच-गा कर जवान होने लगे हो

राजकुमार : छोड़ो बेटा इन बातों को। सुमंत से चाय-पानी पूछो, दो दिन बाद आया है...अपने ससुराल का हालचाल पूछो..
सास-ससुर के बारे में बात करो...

निशा : इनकी दो दिन की गांव की यात्रा तो हर पल मोबाइल पर ही जान ली...
(कमर पर हाथ रखकर, सुमत की ओर देखते हुए)
क्यों जी ! सुबह तो मोबाइल पर कह रहे थे शाम तक आ सकूंगा !

सुमंत : अरे वो...
(हड़बड़ाता हुआ)
हां... वो...नहीं....

निशा : हां वो नहीं...नहीं मुझे बताओ गांव में क्या आपको रहने भी नहीं दिया दो घंटे और... ...
सुमंत : नहीं डार्लिंग...ऐसा नहीं है...वो तो मैं ही...
(हकला जाता है)

मैं ही...जल्दी...हां वो प्रवीण के साथ जाना था न...इसलिए...
राजकुमार : बेटा छोड़ो भी, बस पूछताछ ही करती रहती हो बेचारे से
निशा : बाबा, क्या बात करते हो... पूछूं भी नहीं ! आखिर मेरे हसबैंड हैं ये...
सुमंत : अरे हां निशा, मैं तो भूल ही गया...तुम्हारा आर्टिकल छपा है, देखो
(अखबार दिखाता है)

रंगीन पेज पर छापा है इन्होंने, हैडिंग भी क्या शानदार दी है...
(राजकुमार अखबार झपट लेता है और जोर से हैंडिग पढ़ता है)
राजकुमार : अब नहीं होगा दलित नारी पर हर पुरुष भारी

निशा : इतना बड़ा हैडिंग...!
सुमंत : तुम तो नुक्स ही निकालती रहती हो
राजकुमार : निशा
(गम्भीर हो जाता है)

निशा बेटा, तुम अपने समाज के लिए सोचती बहुत हो
सुमंत : बाबा, आज जरूरत समाज के लिए कुछ करने की ही है
(निशा अखबार लेकर अपना आर्टिकल देखने लगती है, उसका ध्यान बाबा की बातों की ओर नहीं है)
राजकुमार : सच कहते हो, मगर सदियों से चली आ रही लकीरों को मिटाना या बदलना टेढ़ी खीर है बेटा...

सुमंत : अपने दलित समाज में खींची हुई ये अशिक्षा की लकीरें कोई हाथ की लकीरों की तरह नहीं की बदल ही नहीं सकें (निशा इन दोनों की बातें सुनती हुई दरी पर पालथी मार कर बैठ जाती है और अपना आर्टिकल पढ़ती है)
सुमंत : बाबा अब अपनी बातों पर मेमसाब का ध्यान नहीं जाने वाला...
राजकुमार : देख ही रहा हूं...

सुमंत : बाबा, इतनी देर हो गई मुझे आए... मां नजर नहीं आई। मैं पानी पीकर आता हूं.... मेमसाब ने तो आते ही पानी पिला दिया।
(निशा की ओर देखते हुए चला जाता है।)

राजकुमार : बेटा निशा, यह अच्छी बात नहीं। जंवाई बाबू घर आए और तुमने अभी तक चाय-पानी तक नहीं पूछा !
निशा : बाबा बाबा देखो, यहां मेरे आर्टिकल में बाबा साहेब आम्बेडकर की भी सात आठ लाइनें जोड़ दी हैं अखबार वालों ने...

राजकुमार : देखूं जरा...
(अखबार निशा के हाथ से झुककर ले लेता है)
अरे हां, भाई जब तुमने यह आर्टिकल भेजा था तब खुद ही तो पत्र में लिखा था कि आवश्यक संशोधन करने पर मुझे एतराज नहीं होगा...

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