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कौरव सभा

मित्तरसैन मीत

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :371
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 759
आईएसबीएन :81-263-10

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आज के राजकाज और न्यायतन्त्र को बेनकाब करनेवाला पंजाबी उपन्यास...

Kourav Sabha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पंजाबी के प्रसिद्ध कथाकार मित्तसैन मीत का प्रसिद्ध उपन्यास है-‘कौरव सभा’। लेकिन यह कौरव-सभा महाभारतकालीन नहीं,हमारे समय की है,जहाँ भौतिकवादी घिराव में न्याय,प्रशासन पुलिस की कार्य-शैली को लेखक ने अनावृत्त किया है। कौरव-सभा महाभारत का सबसे घिनौना और लज्जाजनक प्रकरण है जिसमें सम्मिलित हर व्यक्ति धर्मच्युत हुआ। कौरव-पाण्डव कोई भी इससे बच नहीं पाया। आज तो जगह-जगह कौरव-सभा बैठी है। अनुचित साधनों से संगृहीत काले धन ने राजनेताओं, प्रशासकों, पुलिसकर्मियों और छोटे-बड़े अन्य कर्मचारियों को खरीदकर पूरे समाज को ही भ्रष्टातार के कगार पर ला खड़ा किया है। ऐसे में कौन कृष्ण किस-किस द्रौपदी की लाज बचाने के लिए भागेंगे यह उपन्यास हमारे सामने कुछ ऐसे ही प्रश्न खड़े करता है। ‘कौरव सभा’ दो भाईयों और उनके परिवारों की कहानी है। एक पक्ष किराये के गुण्डों से दूसरे पक्ष पर स्वार्थ के लिए आक्रमण करवा देता है। फिर शुरु होती है मुकदमेबाजी, पुलिस,प्रशासन और राजनेताओं का खेल,न्याय को खरीदने की कोशिश,वकीलों के हथकण्डे,जो झुके नहीं उन्हें तोड़ने का यत्न। जीत किसकी होती है और किसकी होनी चाहिए-इसी द्वन्द्व को प्रस्तुत करता है यह उपन्यास।

मूल के मर्म को नचाते हुए

मित्तरसैन मीत का ‘कौरव सभा’ लीक से हटकर एक सफल उपन्यास है। कहा जाता है कि पंजाबी में कवि बहुत हैं,कविता कम-यही स्थिति पंजाबी उपन्यास की भी है। तीन पीढ़ियों के पंजाबी उपन्यासकारों के यहाँ भी उँगलियों पर गिनने जितने उपन्यास ही मिल पाते है। समय की संवेदना,समाज की शक्ल और आज के भौतिकवादी घिराव में न्याय,प्रशासन,पुलिस का खेल-खिलवाड़ आदमी को तोड़ रहा है। टूटते हुए इस आदमी की अपनी सीमा है। मित्तरसैन मीत एक सरकारी वकील है जिनके अनुभवों की सम्पन्नता इस कृति में बोल रही है।

1967-68 से ‘ज्ञानोदय’ और भारतीय ज्ञानपीठ से जुड़ा हूँ,तभी से मौलिक और अनूदित रचनाएँ यहाँ स्थान पाती रही है। डाँ.जगदीश वराड़ के अपने समय के पहले विलक्षण उपन्यास का हिन्दी रूपान्तर ‘धूप और दरिया’ भारतीय ज्ञानपीठ से ही 1973 में प्रकाशित हुआ था। श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के आग्रह पर तब मैने उसे अनुवाद किया था। और आज यशस्वी सम्पादक और आलोचक,साहित्य पारखी के आग्रह पर ‘कौरव सभा’ पर काम करके सुख मिला है। अति कथनी नहीं कि रचनाकार जब रचना का रूपान्तर करता है तो पुनःसृजन कहलाता है। इस दिशा में मुझे नये अनुभव हुए हैं। चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा है। ‘कौरव सभा’ महाभारत काल से आज तक एक जैसी रहती हुई भी समयानुकूल स्थितियाँ बदलती रही है। आज के दौर में पंजाबी मानसिकता ने कितना और किस तरह यह सब झेला है। संक्षेप में, डाँ. ज्ञानचन्द्र जैन ने इसकी ओर संकेत किया है और मित्तरसैन मीत ने विस्तृत फलक पर जो पात्रों का द्वन्द्व,स्थितियों का टकराव,‘कौरव सभा’ में अपनी तरह से ट्रीटमेंट देकर दिखाया है पढ़ते ही बनता है। भारतीय भाषाओं के उपन्यास क्षेत्र में इसीलिए इसे मील का पत्थर कहा गया है। आशा है ,पाठक इसका भरपूर आनन्द लेंगे।

आमुख

मित्तरसैन मीत का ‘कौरव सभा’ पंजाबी उपन्यास साहित्य की एक बहुचर्चित विशिष्ट कृति है। देश के कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में इसे सम्मिलित किया गया है। स्वतन्त्र रूप से इसे लेकर अनेक आलोचनात्मक पुस्तकें और शोध प्रबन्ध लिखे जा चुके हैं। यह उपन्यास समकालीन शासन व्यवस्था को नंगा करने का यत्न करता है,जिसमें अनुचित साधनों से संगृहीत काला धन राजनेताओं,प्रशासकों,पुलिसकर्मियों और छोटे-बड़े अन्य कर्मचारियों को खरीदकर दूषित किये हुए है। हर ओर अन्याय और अत्याचार का आतंक है। ऐसी रचना के लिए ‘कौरव सभा’ से अधिक सटीक नाम और क्या हो सकता था ?
‘कौरव सभा’ महाभारत का सबसे घिनौना और लज्जाजनक प्रकरण है जिसमें सम्मिलित हर व्यक्ति धर्मच्युत हुआ। धर्मराज युधिष्ठिर अपनी पत्नी को जुए में हारे। दुर्योधन द्रौपदी की इज्जत लूटकर अपने बदले की आग को ठण्डा करना चाहता है। दुःशासन उसे निर्वस्त्र करने का यत्न करता है तो शकुनि अपनी कुटिल हँसी द्वारा स्थिति को और अधिक कारुणिक बना रहा है। राजा धृतराष्ट्र अन्धा है आँखों से भी और पुत्रमोह से भी। राजा को समझाने, राह दिखलाने वाले भीष्म, द्रोण, कृप, विदुर आदि सब निष्ठा,राजभक्ति तथा अन्य व्यक्तिगत कारणों के आवरण से अपनी निर्वीयता को ढाँपने का यत्न करते हैं। पाण्डव विवश है। ऐसे में एक बाहर का आदमी आकर उस स्त्री की लाज बचाता है। आज जो जगह-जगह कौरव सभा बैठी है। कृष्ण किस किस द्रौपदी की लाज बचाने के लिए भागेंगे ? यह उपन्यास हमारे सामने कुछ ऐसे ही प्रश्न खड़े करता है।
प्रस्तुत उपन्यास के कथानक के केंन्द्र में है पंजाब का सबसे बड़ा नगर लुधियाना, जो राज्य के उद्योग,व्यापार और राजनीतिक गतिविधियों की धुरी है। पन्द्रह लाख से अधिक आबादी वाले इस ‘लघु’ महानगर में वे सब बुराइयाँ हैं जो आज के परिवेश में फैलते हुए किसी भी शहर में हो सकती है। व्यापार और उद्योगों के कारण यहाँ पैसा पानी की तरह बहता है,साफ और और गँदला भी।

इससे एक नव धनाढ्य वर्ग अस्तित्व में आया। धनोमत्त इस वर्ग का उद्देश्य रहता है पैसे से और पैसा बनाना। इसके आगे सारी नैतिकता छोटी पड़ जाती है,मानवता बौनी होकर रह जाती है और रिश्ते अपना महत्व खो बैठते हैं। सारी गतिविधियाँ स्वार्थ केन्द्रित होकर पैसे के इर्द-गिर्द घूमती है। अन्याय,अत्याचार,और रिश्वत का बाजार गर्म हो उठता है।
‘कौरव सभा’ दो भाईयों और उनके परिवारों की कहानी है। सबक सिखाने और आतंकित करने की नियत से ही सही,एक पक्ष किराये के गुण्डों से दूसरे पर आक्रमण करवा देता है जिसमें अनचाहे तौर पर एक की हत्या हो जाती है,दो बुरी तरह से घायल हो जाते हैं और एक लड़की बलात्कार का शिकार होती है। फिर शुरू होती है मुकद्दमेबाजी,पुलिस,प्रशान और राजनेताओं का खेल,न्याय को खरीदने की कोशिश, जो झुके नहीं उन्हें तोड़ने का यत्न। सालों कोर्ट कचहरी के चक्कर,वकीलों के हथकण्डे। अन्ततः जीत होती है पैसे की। मुद्दई अस्पताल में पड़े होते हैं और दोषी घर का सुख भोगते हैं।
उनमने तौर पर ‘ऊपर’ अपील करने की बात होती है परन्तु सब जानते है ऊपर भी यही होने वाला है।
लोगों का तन्त्र पर से विश्वास उठ रहा है। सामाजिक दृष्टि से यह सब से घातक स्थिति है।

रचना का लेखक स्वयं व्यावसायिक दृष्टि से इस तन्त्र के साथ जुड़ा हुआ है। वह अन्दर-बाहर सब कुछ अपने अनुभव के आधार पर जानता है। इसीलिए उसकी अभिव्यक्ति में पैनापन है,प्रामाणिकता है. एक-एक घटना उसमें सजीव हो उठी है।
‘कौरव सभा’ का हिन्दी रूपान्तर करने वाले प्रोफेसर फूलचन्द्र ‘मानव’ इस क्षेत्र के अनुभवी विद्वान है। हिन्दी और पंजाबी की भाषाओं पर उनका समान अधिकार है। स्वयं कथाकार होने के नाते वह लेखक की मूल संवेदना को समझते हुए उसकी आत्मा में प्रवेश करने में सिद्ध हैं। इसलिए यह रचना अनूदित न होकर मौलिक का रस देती है। इस उपन्यास के हिन्दी रूपान्तर को वृहत्तर पाठक वर्ग के समक्ष लाने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ को साधुवाद।
यह लेखनी और सशक्त हो,इस कामना के साथ-

कौरव सभा

पार्क का दूसरा चक्कर शुरू करते ही रामनाथ को घर से सन्देश आ गया। मायानगर से फोन आया था। नीलम बहन के घर डकैती पड़ी थी। सारा परिवार जख्मी था। ‘सैर बीच में ही छोड़ो तुरन्त घर आओ’ फौरन मायानगर जाना था।
तेज चाल से सैर करने के कारण साँस पहले ही फूली हुई थी। डकैती की बात सुनकर दिल की धड़कन भी तेज हो गयी। आँखों के आगे तारे-से मँडराने लगे।
स्वयं को सँभालने की कोशिश करता रामनाथ घास पर बैठ गया। जूते (बूट) उतारे। पसीना पोंछा। पानी पिया। आँखों पर पानी के छींटे मारे। मन कुछ शान्त हुआ। घर जाने के लिए वह बेटी की मोपेड के पीछे बैठ गया।
घर पहुँचने पर पत्नी संगीता ने घटना का विस्तार बताया।
डकैती से भी ज्यादा चिन्ता की बात थी कि फोन नीलम के किसी पड़ौसी के घर से आया था। नीलम के जेठ मोहनलाल के परिवार के किसी मेम्बर ने उन्हें सूचित क्यों नहीं किया ?
मोहन का परिवार साधारण परिवार नहीं था। वह मायानगर के चुनिन्दा घरों में से था। अच्छा व्यवसाय था। सरकारे-दरबार में पहुँच थी। सारे शहर में जानकारी थी। क्या उनमें से कोई भी वारदात वाली जगह नहीं पहुँचा था ? यदि नहीं, तो क्यों नहीं ?
शहर जाने की तैयारी में व्यस्त पत्नी की सहायता करता रामनाथ उलझन को सुलझाने की कोशिश करने लगा।
रामनाश के मन में प्रश्न बे-मतलब नहीं उठ रहा था। इसके पीछे बड़ी भूमिका थी।

कुछ देर से दोनों परिवारों के बीच खींचतान चल रही थी। जायदाद का झगड़ा पारिवारिक हाथों से निकलकर अदालत तक पहुँच गया था। आपस में मन-मुटाव चल रहे थे। बोलचाल बन्द थी।
रामनाथ का मन बार-बार यही सोच रहा था। यह सब उसी परिवार ने ही न करवाया हो ?
उस परिवार पर रामनाथ व्यर्थ शंका नहीं कर रहा था।
किसी और से नहीं,घटना की चेतावनी स्वयं नीलम की जेठानी की ओर से मिली थी। चाचा-भतीजों में सौ मनमुटाव हुआ हो। मायादेवी के लिए वेद तथा उसका परिवार पहले की तरह उसका अपना था। मोहन के जीवित रहते और बात थी। अब छोकरे मनमर्जी के हो रहे थे। उनकी चालें ठीक नहीं थी। शराब पी रहे लड़कों को मायादेवी ने गलत मंसूबे बनाते स्वयं सुना था। कभी वे कहते चाचा वेद को अपने बाहुबल पर बहुत घमण्ड है। जवानी में पहलवानी करते कसरत कर-करके उसने अपनी भुजाओं के डौले बनाये थे। वे उसके डौलों का चूरमा बना देंगे। पीसकर रख देंगे।
नीलम को अपनी अक्ल पर अहंकार था। वे उसके दिमाग को ‘बलास्ट’ कर देंगे। नेहा बेचारी ने कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। वे अपनी छोटी बहन को भरे बाजार नंगा करने की सोच रहे थे। वेद का इकलौता वारिस उसकी आँखों में ज्यादा खटकता रहता। कभी-कभी वे उसका काँटा निकालने की बक-बक भी किया करते थे।
हमदर्दी के तौर पर मायादेवी ने वेद को सुझाव दिया था। ले-देकर भतीजों से समझौता कर ले। कल कोई अनहोनी हो गयी तो मुझे उलाहना ना देना।

रामनाथ को इस प्रताड़ना की सूचना मिली थी। लेकिन इस बारे में उसने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। कानून की पढ़ाई करते समय उन्हें अपराध विज्ञान पढ़ाया गया था। इस विज्ञान का एक अध्याय पढ़ते समय उसने जाना कि सभ्य जमातें शारीरिक हिंसा का सहारा नहीं लेती। खून बहाने की जगह वे कानूनी लड़ाई में विश्वास रखती हैं। यह केवल सिद्धान्त ही नहीं था। इस सिद्धान्त को सच की कसौटी पर खरा उतरते वह नित्य देख रहा था। एक पूरबिया दूसरे पूरबिये का पचास रूपये के झगड़े के कारण गला काट देता था। लेकिन माया नगर में लोगों के मुकदमें भी चलते थे तथा साँझे व्यापार भी। पति-पत्नी तलाक लेकर भी एक-दूसरे के घर रात बिता जाते थे।
इसी सिद्धान्त पर अमल करते रामनाथ ने वेद को इस चेतावनी पर ध्यान न देने का मशविरा दिया। अब उसे अपनी ही राय (मशविरे) पर पछताना पड़ रहा था। माया नगर जाने के लिए रामनाथ ने टैक्सी मंगवा ली थी। ट्रैक सूट उतारकर कुर्ता-पाजामा पहन लिया था। अलमारी में हाथ डाला। दस हजार रूपये पड़े थे। उठाकर खीसे (जेब) में डाल लिया।
छोटे भाई मंगत को बुलाकर सारी स्थिति से परिचित कराया। बच्चों की देखभाल करने की जिम्मेदारी लगायी। बीस हजार का चैक काटकर उसे थमाया। दिन में वह बैंक से पैसे निकाले। माया नगर जाते ही वह फोन करेगा। मामला गम्भीर न हुआ तो शाम तक वापिस आ जाएगा। जरूरत पड़ी तो मंगत को बुला लेगा।
रामनाथ के शहर से मायानगर का रास्ता एक घण्टे का था। पहले यह रास्ता आँख झपकते ही निपट जाता था। आज जैसे हर पल युगों के समान लम्बा हो गया। उसका मन विचलित हो रहा था। उसे नीलम के परिवार की चिन्ता खा रही थी। फोन पर कभी सच नहीं बताया जाता। बहुत कुछ छुपा लिया लगता था। परमात्मा खैर (भली) करे। मन ही मन वह प्रार्थना कर रहा था।

यह सब किसने किया होगा ?
कार जैसे ही मायानगर के रास्ते पड़ी,रामनाथ के दिमाग में प्रश्न आने शुरू हो गये।
आजकल ‘काला-कच्छा गिरोह’ ऐसी घटनाओं में लगा हुआ था। हो सकता है,यह वारदात किसी ऐसे गिरोह ने ही की हो।
दूसरे ही पल उसने ‘काला-कच्छा गिरोह’ के इस घटना में शामिल होने को नकार दिया। ये गिरोह ऐसी घटनाएँ शहर या गाँवों से बाहर बसे घरों में अंजाम देते थे। नीलम का घर शहर की घनी आबादी में था। गली के दोनों ओर लोहे के बडे गेट थे। पहरेदार सारी रात पहरा देता था।
घटना सोची-समझी साजिश के तहत लग रही थी।
रामनाथ की हिदायत पर ड्राइवर ने गाड़ी सौ की स्पीड पर छोड़ दी। उसी रफ्तार से रामनाथ सोच के घोड़े दौड़ा-दौड़ाकर टूटी लडियाँ जोड़कर घटना की गहराई तक जाने की कोशिश करने लगा।
रामनाथ को मोहन के बेटों पर शक था। लेकिन वे वेद के परिवार के खून के प्यासे हो जाएँगे,यह सच्चाई उससे निगली नहीं जा रही थी।
मोहन बड़ा भाई था। वेद छोटा। परन्तु दोनों में रिश्ता बाप-बेटे जैसा था। मोहन आयु में वेद से केवल दस वर्ष बड़ा था। लेकिन रूतबे में सौ गुना बड़ा।
वेद अभी तीसरी कक्षा में पढ़ता था। मोहन सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मायानगर के मशहूर इंजीनियरिंग काँलेज में दाखिल हुआ। तब इस काँलेज में दाखिला चुनिन्दा छात्रों को ही मिलता था।
डिग्री प्राप्त करते ही उसे नौकरी मिल गयी। पी.डब्ल्यू.डी.जैसा विभाग मिल गया। एस.डी.ओ.का पद। भटिण्डा जैसे शहर में नियुक्ति हो गयी,जो उन दिनों प्रगति की मंजिलें छलाँगता जा रहा था। कहीं थर्मल प्लाण्ट उभर रहा था,कहीं खाद फैक्टरी। कहीं फौजी छावनी का विस्तार किया जा रहा था। कहीं सिनेमा हाँल बन रहे थे।
यातायात को आसान बनाने के लिए सरकार सड़कों का जाल बिछा रही थी। सरकारी बिल्डिंगे धरती की छाती पर कुकुरमुत्तों की भांति उग रही थी।

मोहनलाल परिश्रम करके खानेवाले,मेहनती परिवार में से आया था। सरकारी मेहनत उसकी आदत थी। बुद्धि देते वक्त प्रभु ने संकोच नहीं किया। दोनों के संगम के कारण मोहन के कार्यों की धूम मची हुई थी। प्रत्येक सड़क,इमारत निश्चित समय के पहले तैयार करा देने के लिए वह मशहूर हो गया।
नाम के साथ-साथ मोहन ने खूब धन भी कमाया। लेबर के ठेकेदार तक को उसे कमीशन देना पड़ता था। धीरे-धीरे उसने ठेकेदार के साथ दोस्ती कर ली। कमीशन की जगह उसके हाथ हिस्सेदारी कर ली।
शहर के एक बड़े ठेकेदार ने उसकी प्रतिभा को पहचाना,अपना दामाद बना लिया। भटिण्डा में उसके पाँव और मजबूत हो गये।
मोहनलाल ने अपनी स्थिति मजबूत करके घर के सुधार की ओर ध्यान दिया। कच्चे-पक्के मकान की जगह डबलस्टोरी बिल्डिंग खड़ी कर ली। बाप को किरयाने की दुकान से उठाकर कपड़े के आलीशान शोरूम पर बैठा दिया।
मोहन ने बहुत कोशिश की कि वेद पढ़-लिखकर कोई अच्छी लाइन पकड़ ले। डाँक्टर बने या इंजीनियर। लेकिन वेद का ध्यान पढ़ाई की ओर कम,खेलों की ओर अधिक था। पहलवानी उसका पहला शौक था। वह सारा दिन डण्ड पेलने में बिता देता।
आजकल के दिन होते तो डोनेशन देकर मोहन उसे कहीं प्रवेश दिला देता। उन दिनों अंकों की कद्र थी। अंक वेद के पल्लू में पड़ते नहीं थे।
जैसे-तैसे वेद के बी.ए.पास करते ही मोहनलाल ने म्यूनिसिपल कमेटी के प्रधान के साथ जोड़-तोड़ करके बतौर क्लर्क उसे भर्ती करा दिया। साथ ही प्रधान से वादा लिया कि जब भी चुंगी या टैक्स इन्स्पेक्टर की सीट खाली होगी,वह तुरन्त वेद को वहाँ लगा देगा।

वेद के पद को ध्यान में रखकर,रामनाथ के बाप ने उसे अपनी सुन्दर व बी.ए.पास बेटी का वर चुन दिया। सब ओर से सन्तुष्ट वेद मंजीरे गाने लगा।
पाँच वर्ष का समय पूरा होने पर जब मोहनलाल के अफसर का तबादला पटियाला में हो गया तो वह बदलवा कर मोहनलाल को भी वहाँ ले गया। मोहनलाल ने पटियाले का मुँह-माथा सँवार दिया। साथ ही अपनी तिजौरी का भी।
पदोन्नत होकर, अफसर मायानगर चला गया। मोहनलाल की भी तरक्की होने वाली थी। इस कार्य में कोई विघ्न-बाधा न पड़े। इसलिए मोहनलाल को परवाज (उड़ान) के लिए अपने अफसर के पंखों के सहारे की आवश्यकता थी।
अफसर ने मोहनलाल की विनती तुरन्त स्वीकार कर ली। परिश्रमी व वफादार अफसरों की कमी होती जा रही थी। मोहनलाल में ये दोनों गुण थे। वह तुरन्त उसे मायानगर ले गया।
मायानगर में मोहनलाल जैसे कई परिश्रमी अफसर बैठे थे। वे वफादार बेशक कम थे, लेकिन जुगाड़-जुगत में तेज थे।
मोहनलाल अफसरों की भीड़ में खो गया।
लेकिन दरियाओं के बहाव रोकने से नहीं रुकते। मोहनलाल ने विभाग का पीछा छोड़कर माया नगर की व्यापारिक सम्भावनाओं का जायजा लेना शुरू कर दिया।
सड़कों पर तारकोल बिछाने का पारस्परिक धन्धा महँगा पड़ रहा था और काम भी अच्छा नहीं हो रहा था। सरकार ने लाभ-हानि के सभी पहलुओं पर विचार करके,मिक्स प्लाण्टों में तैयार किये गये तारकोल को सड़कों पर बिछाने की योजना को मंजूरी दे दी। मोहनलाल ने तुरन्त अपने अनुभव से लाभ उठाने का मन बना लिया।
जिस-जिस अफसर को मिक्स प्लाण्ट चलने में मददगार होना था,उनके कमीशन रखकर देखते ही देखते मिक्स प्लाण्ट चालू कर दिया।

उतना माल सड़कों पर नहीं पड़ता था जितना बच जाता था। उतनी आमदनी सड़कों पर माल बिछाकर नहीं होती थी,जितनी शेष माल बेचने से हो जाती थी। प्लाण्ट का खर्च दो वर्ष में निकल आया। जब तक मिक्स प्लाण्ट में से होती आमदनी की समझ अन्य व्यापारियों को लगती,तब तक मोहनलाल कई करोड़ रूपया अपनी तिजोरियों में डाल चुका था।
इसी आय में से वह शहर की सीमा पर चलते दो ईट भट्ठे व एक शैलर खरीद चुका था। कोयले की दलाली में अच्छा पैसा बन रहा था। साथ ही इस व्यापार में पाँव रख लिया।
बढ़िया ईंट मायानगर के व्यापारी ले जाते। नरम ईंट बढ़िया ईंट के भाव सरकार की सड़कों व इमारतों में खप जाती। कोयले के साथ-साथ मोहनलाल ने सरकार से तारकोल सप्लाई करने का ठेका ले लिया। चौथा हिस्सा तारकोल मायानगर पहुँचती थी। तीन चौथाई मथुरा में ही बिक जाती थी।
माया की बरसात को मोहनलाल कहाँ सँभाले !
दोस्तों-मित्रों ने राय दी-ब्लैक मनी को जायदाद में खपत करो। मायानगर के प्लाँटों की कीमत पचास-पचास लाख थी। एक नम्बर के एक लाख के साथ उनचास हजार छुप जाता था।
इस धन्धे में सबसे ज्यादा लूट थी। प्लाँटों की खरीदो-फरोख्त छोड़कर उसने कालोनियाँ काटना शुरू कर दिया।
लावारिस व झगड़े वाली जमीनें मिट्टी के मोल मिलतीं। माल महकमे व पुलिस अफसरों के साथ मिलकर मिट्टी सोना बन जाती।

काँलोनी के धन्धे ने एक और लाभ दिया। व्यापारी,साहूकार व अफसरों से वास्ता पड़ने लगा। राजनीतिक लोगों को काला धन खपाने का अवसर मिलने लगा। उसकी पहचान का दायरा बहुत विशाल हो गया। सभी रूके काम चुटकी में होने लगे। सरकारी नौकरी वह छोड़ना नहीं चाहता था। उसका ऊँचा पद था। सरकार में पूछ-पड़ताल थी। अपने पद के आधार पर वह अफसरों को आसानी से मिला सकता था। क्लब-होटलों में जा सकता था।
अफसरी के साथ-साथ व्यापार चलाना कठिन होता जा रहा था। बच्चे अभी छोटे थे। पत्नी अधिक चुस्त नहीं थी। मायानगर में बाकी सब कुछ था, लेकिन वफादारी का नामोनिशान न था। कौन कब ठगी मार जाए,कोई भरोसा नहीं। जिन लोहों को मोहनलाल ने दिहाड़ीदारों से ठेकेदार बनाया था,आवश्यकता पड़ने पर वे ही उसे टँगड़ी मार रहे थे।
मोहनलाल भरोसा करे तो किस पर ? समस्या को उसकी पत्नी माया ने सुलझाया।
‘हमारे नौकर-चाकर कोठियों-फैक्टरियों के मालिक बन बैठे हैं। वेद को शहर क्यों नहीं बुला लेते। वह चार पैसे बना लेगा। कम से कम घर में तो रहेगा। भाई-भाई का सहारा होता है। जरूरत,पड़ेगी बराबर खड़ा होगा ?
वेद ने पहले ताँक-झांक सी की। वेद का अपने शहर में बढ़िया गुजारा चल रहा था। उसका दिल लगा हुआ था। उसे माया की ज्यादा तृष्णा न थी।
लेकिन नीलम को जब पेशकश का पता चला उसके मुँह में पानी भर आया। मायानगर को भारत का मानचेस्टर कहा जाता था। बच्चे काम को आगे बढ़ाने वाले हों,बेशक करोड़पति बन बैठे। पढ़ना हो तो घर बैठे डाँक्टर बन सकते थे। इंजीनियर बन सकते थे। उच्चकोटि के दूसरे कोसों के लिए यूनिवर्सिटी थी। उत्तरी भारत के विशेषज्ञ डाँक्टर इसी शहर में रहते थे। मनोरंजन के लिए होटल थे। क्लब थे। खरीददारी के लिए दुनिया भर के शोरूम थे।
नीलम के व्यंग्य से तंग आकर वेद ने अपना मन बदल लिया। बच्चों के भविष्य के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था।
रामनाथ की टैक्सी मायानगर की ओर दौड़ रही थी। लेकिन रामनाथ तो समय को पीछे धकेलना चाहता था।
अच्छा होता यदि वेद अपना शहर न छोड़ता। अच्छा होता यदि उसने मोहन की राय ठुकरा दी होती। आज यह दिन न देखना पड़ता।

उस समय किसी को क्या पता था कि राम-लक्ष्मण वाला प्यार सुग्रीव-बाली में बदल जाएगा।
जब तक व्यापारिक साझेदारी मोहनलाल व वेद के बीच में रही, सब अच्छा चलता रहा। मोहनलाल वेद को जो भी जिम्मेदारी सौंपता,वह उसे पूरी ईमानदारी से निभाता। मोहन जहाँ कहता,वेद आँखें मींचकर हस्ताक्षर कर देता। बदले में मोहन उसे उसका बनता मुनाफा बिना किसी कमी-पेशी के देता रहा।
जब वेद मायानगर में आया,उसका सारा सामान एक फोर-व्हीलर में ही आ गया था।
अब वेद के पास सब कुछ था। पाँश कालोनी में पाँच सौ गज की कोठी थी। दो और प्लॉट उसके नाम थे। मोहनलाल की कई फर्मों में वह हिस्सेदार था। प्रापर्टी डीलर का उसका अपना अलग काम था। उसका आफिस एयर-कण्डीशन था। एयरकण्डीशन कार थी। पत्नी के पास एक किलो के करीब सोना था। दोनों बच्चों के नाम बड़े-बड़े फिक्स डिपाजिट थे। वेद की शराफत के कारण अपने कारोबार में उसका नाम सत्कार से लिया जाता था।
नीलम अच्छे विचारों वाली गृहिणी थी। अपने अड़ोस-पडोस में उसका सत्कार था। दोनों परिवार रोशनियों में नहा रहे थे।
रामनाथ की कार सिविल लाईज में प्रवेश कर गयी। जैसे-जैसे घर नजदीक आ रहा था,उसके दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी। पता नहीं आगे से क्या सन्देश मिलने वाला था ? गम्भीर रूप से घायल कोई साँस भी छोड़ सकता था।
मौत का ख्याल आते ही रामनाथ को फिर मोहनलाल की याद आ गयी।
मोहनलाल को हार्ट-अटैक की बीमारी ही हुई थी,जिसने दोनों परिवारों की साझी दीवार में दरार डाल दी थी।
पहला अटैक उसे दस वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय उसकी आयु पचास वर्ष के करीब थी। बाईपास सर्जरी कराकर वह ठीक हो गया था। बल्कि पहले से बढ़कर जवान महसूस करने लगा था।
सालभर तक मोहनलाल डाँक्टरों की हिदायतों पर अमल करता रहा। लम्बी-लम्बी सैर करता। खाने-पीने का परहेज करता रहा।
बढ़ते बिजनेस के कारण मित्रों का दायरा विशाल होता गया। व्यापारिक बन्धनों को मजबूत करने के लिए,लाचारी में होटलों-क्लबों में जाना पड़ा।
मोहनलाल अकेला नहीं था,जिसकी बाईपास सर्जरी हुई हो। यहाँ आधे से अधिक व्यापारी सीना टँकाये घूम रहे थे। कोई डाँक्टरों की हिदायतों की ज्यादा परवाह न करता था। खाये-पीये बिना मानसिक तनाव दूर होनेवाला नहीं था। वे भूखे रहने से खाते-पीते मरने को पहल देते थे।

साथ लगकर देखा-देखी,मोहन ने पहले एक पैग लेना शुरू किया। फिर दो,आखिर तीन। यदि व्यापार बढ़ रहा था तो उम्र भी बढ़ रही थी।
उधर उसके सहयोगियों की ओर से घोटालों की संख्या बढ़ने लगी। कई बार कोई नजदीकी दोस्त भी हाथ मार जाता। गिला करने पर कहता,‘व्यापार में सब चलता है’।
व्यापार की ऊंच-नीच व खींचतान के कारण मोहनलाल का मानसिक तनाव बढ़ने लगा। पहले शूगर बढ़ी। फिर रक्तचाप ऊपर-नीचे रहने लगा।
डाँक्टरों ने खतरे की घण्टी बजायी। परहेज रखो। रक्त गाढ़ा होता जा रहा है। गाढ़ा खून दिल पर असर करने लगा। दोबारा सर्जरी नहीं होगी। दोबारा हुई हार्ट-अटैक खतरनाक हो सकता है।
डाँक्टरों की चेतावनी के बावजूद दूसरा अटैक हो गया।
तात्कालिक तौर पर उस अटैक का असर मोहनलाल पर नहीं हुआ उस अटैक का असर अब वेद परिवार पर हुआ था।
दूसरे अटैक के बाद डाँक्टरों ने मोहनलाल को पूरी तरह से खाट (मंजी) पर लिटा दिया था। अब मानसिक तनाव से दूर करने का समय था। मानसिक तनाव से पीछा छुड़ाने के लिए व्यापार से पीछा छुड़ाना आवश्यक था।
मोहनलाल ने अपनी स्थिति भाँप ली। उसका कोई भी दिन आखिरी दिन हो सकता था।
लालचवश वह पहले गलती कर बैठा। उसने सेहत की परवाह नहीं की थी। अब वह दोबारा गलती करने वाला नहीं था। अब हालात बदले हुए थे। अब कोठियाँ कारें, कारखाने, सोना, चाँदी सब असीम हो गया था। यही सब सँभला रहे,बहुत है। लड़के व्यापार सँभालने लायक हो गये।
बड़ा लड़का पंकज अमरीका से एम.बी.ए.कर आया था। छोटे बेटे नीरज ने मेकैनिकल इंजीनियरिंग रुड़की से की थी। दोनों में खूब काबलियत थी।

मोहनलाल ने धन बहुत कमाया था। लेकिन कष्ट उठाकर। कभी सड़कों के किनारे खड़े धूल फाँककर और कभी सड़ती तारकोल के धुएँ से फेफड़े गलाकर। कभी दफ्तरों की खाक छानता रहा। कभी अफसरों के हुक्के भरे।
मोहन की लालसा थी कि उसके बच्चे इस इतिहास को न दोहराएँ। वह उनके लिए कोई बड़ा उद्योग स्थापित करना चाहता था।
मोहनलाल के दोस्तों ने राय दी। इन दिनों लोहे के व्यापार की माँग थी। लोहे की मिलें सोने की सिलें उगल रही थीं।
राय मोहनलाल को भा गयी। वह लोहे की मिल के सपने देखने लगा। दो एकड़ का प्लॉट। चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवार। बीच में बड़ा-सा प्लाण्ट। एक ओर बड़ा-सा एयर-कण्डीशन आफिस। दूसरी ओर नौकरों के क्वार्टरों की पंक्ति। चार-चार गेट। प्रत्येक गेट पर पहरेदार। बड़ी-बड़ी कारें। नोट। मालिक। सैलूट !
कुछ दिन सोच-विचार करने के बाद मोहनलाल ने लोहे के मिल लगाने का एलान कर दिया। हैवी इण्डस्ट्री। सारा काला धन एक ही जगह खपा दो।
करोड़ो रुपये के इस चक्रव्यूह में वेद नहीं पड़ना चाहता था। मिल के प्लॉट की कीमत पचास लाख थी। मशीन की कीमत दो करोड़। एक करोड़ रूपया घर से लगाना था। कई करोड़ सरकार से ऋण लेना था। वेद था अनपढ़-गँवार। यह पेचीदा काम उसके वश का नहीं था।
नीलम एक बार फिर वेद को झुकाने में सफल हो गयी।

वेद सहमत अवश्य हो गया। लेकिन अपने भीतर से उसे खतरे की घण्टियाँ सुनाई देने लगी थीं। मोहनलाल के साथ साझेदारी करना और बात थी। भतीजों के साथ साझेदारी निभेगी या नहीं ? इस बारे में वेद को विश्वास नहीं था। वे पढ़े-लिखे थे। धन्धा नयी किस्म का था। वेद उनके साथ कैसे भिडेगा ? उसकी समझ में नहीं आ रहा था।
दीपनगर की ओर लाते हुए रामनाथ को आज वेद की बुद्धि की समझ आयी थी। वेद की सोच ठीक थी। नीलम गलत थी। अच्छा होता यदि वेद नीलम की राय का विरोध करने का दम रखता। तो आज,ये दिन न देखने को मिलते।
वेद को इस व्यापार की कभी भी समझ नहीं आयी। मोनहलाल ने अपनी सारी पूँजी इस व्यापार में लगा दी थी। उसके पीछे लगकर वेद ने अपना सब माल-असबाब मोहनलाल को पकड़ा दिया। और कुछ वेद को पता न था। पैसा कहां से आया ? कहाँ गया ? ऋण कहाँ से लिया गया ? कौन सी जायदाद ? वफादार सिपाही की भाँति जहाँ कहते,वह हस्ताक्षर कर देता।
सिर मुँड़वाते ही ओले पड़ने वाली लोकोक्ति मोहनलाल के इस धन्धे में सही सिद्ध हुई थी।
केन्द्र में सरकार बदल गयी। नयी सरकार ने सख्ती कर दी। नये ऋणों की शर्ते सख्त हो गयीं। सब्सिडी कम हो गयी। टैक्सों में मिलती छूट बन्द हो गयी। आयात-निर्यात की शर्ते ढीली हो गयीं। आयात हुआ माल सस्ता मिलने लगा। कच्चे माल व बिजली की दरों में बढ़ोतरी हो गयी। हेरा-फेरियों के रास्ते बन्द हो गये।
मिल को मिलनेवाली मंजूरी में देर लगने लगी। खर्चे बढ़ने लगे। बजट डगमगाने लगा।
दूसरी ओर मोहन की बीमारी बढ़ गयी। पंकज वगैरा की एक टाँग फैक्टरी में होती,दूसरी दिल्ली।
वेद को कोई ज्ञान न था। सारा कारोबार मुलाजिम देख रहे थे।
कई लाख रुपये कागजात तैयार करने व रिश्वत देने में खर्च हो चुके थे। प्लॉट की किस्तें भरी जा चुकी थी। मशीनरी के लिए एडवांस भेजा जा चुका था। इस पड़ाव पर पहुँचकर लौटना मुश्किल था।

जानकार व अनुभवी लोगों ने राय दी। जैसे भी हो,मिल चालू करो। कभी भी हालात सुधर सकते हैं। मुकाबला सख्त हो चला था। मुकाबले के कारण कमजोर इकाइयों को फेल हो जाना था। शेष रही इकाइयाँ व्यापार पर अपना कब्जा कर लेंगी।
इसी खींचतान में मिल का चालू होना दो वर्ष पीछे चला गया। एक ओर मशीनरी की कीमत बढ़ गयी। दूसरी ओर ऋण की शेष रहती किस्तें रोक दी गयी। ऋण मिल की उसारी के हिसाब से मिलना था। कर्मचारियों का खर्च भी बढ़ने लगा।
मोहनलाल का चलना-फिरना बन्द हो गया। उसकी स्थिति को देखते हुए फैक्टरी में पड़नेवाले घाटे की बात उससे छुपाई गयी थी। लेकिन बिल्ली को कितनी देर बोरी में डालकर रखा जा सकता था। मूँछें दाढ़ी से बढ़ चली थीं। मिल दैत्य का रूप धारण कर चुकी थी। वह सारे पैसे खा गयी थी। पेट अभी भी नहीं भरा था।
आखिर कड़वा घूँट भरा गया। मिल का निर्माण रोककर,उसे बिक्री पर लगा दिया गया।
दोनों परिवारों का बहुत कुछ मिल ने निगल लिया था। नीरज व पंकज के हाथों सब कुछ हुआ था। इसलिए उन्हें पड़े घाटे की बारीकियों की जानकारी थी। वेद को अपने भतीजों पर विश्वास था। उसने सब्र कर लिया था।
लेकिन इतना घाटा कैसे पड़ा-नीलम समझ नहीं पा रही थी। मोहनलाल पर भरोसा किया जा सकता था। लेकिन मायानगर की आबोहवा में पले-बढ़े भतीजों पर अन्धी श्रद्धा नहीं रखी जा सकती थी।

नीलम के दूर के रिश्तेदार, भाँजे की मिल, शहर गोविन्दगढ़ में चलती थी पिछले दिनों वह उसे एक शादी में मिला था। वह मिल मुनाफा कमा रही थी।
वेद ने नीलम को समझाया। यह मिल पुरानी थी। प्लॉट व मशीनरी पुराने भाव में खरीदे हुए थे। ‘गुड-विल’ बनी हुई थी। आई-चलाई हो रही होगी।
लेकिन नीलम उससे सहमत नहीं थी। वह सुबह-शाम वेद को ताने देने लगी वह अपने भतीजों से हिसाब तो ले। पता चले घाटा कहाँ पड़ा था ? ताकि मन को तसल्ली हो।
परन्तु वेद में न हिसाब माँगने की हिम्मत थी। न उनसे हिसाब मांगा। घाटे व वेद की जिद से तंग आकर,नीलम ने गुस्से का इजहार अपने ढंग से करना शुरू कर दिया।

भतीजों की हेराफेरी की शिकायत पहले उसने दूर के रिश्तेदारों से की फिर नजदीकी दोस्तों-मित्रों के पास। इश्क-मुश्क की भाँति उड़ती-उड़ती बात मोहन तक पहुँचती रही। भाई की गलती पर पर्दा डालने के लिए वह बात को आयी-गयी करता रहा। चुगली हुई है,कहकर बात टालता रहा।
लेकिन जब यह बात पंकज के ससुराल वालों तक पहुँची,तथा ससुराल वालों से पंकज के पास,तो मामला मोहनलाल के हाथ से निकल गया।
कुछ दिन घर में खुसर-फुसर हुई। मोहनलाल ने बात आयी-गयी करने का यत्न किया। लेकिन लड़के एक ही जिद को पकड़कर बैठ गये। मींटिंग करो। हिसाब-किताब मुँह पर मारो। साझे काम बन्द क

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