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राग जिज्ञासा

देवेन्द्र शुक्ल

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7590
आईएसबीएन :0000000000

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मनोभौतिक राग एवं संगीत के कतिपय पक्षों की चर्चा...

Rag Jigyasa - A Hindi Book - by Devendra Shukla

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘उत्तर में ‘राग, रागिनी, पुत्र, भार्या’ ऐसी राग रचना का वर्णन करने वाले ग्रन्थों पर भी हमने थोड़ी-बहुत टीका की थी। यह टीका हमने किसी दोष दृष्टि से नहीं की। अपितु हमारे कहने का आशय इतना ही था, कि वह रचना उस काल में कौन से तत्त्वों पर की गई थी, इसका स्पष्टीकरण ग्रन्थों में नहीं मिलता। पुनः आज के रागस्वरूप ग्रन्थों के रागस्वरूपों से सर्वथा भिन्न हो जाने के कारण वह प्राचीन रचना आज असुविधाजनक होगी।’’

भातखण्डे संगीतशास्त्र, भाग 4, पृ० 721

‘‘यह सब हमारे जीवन में तो कैसे होगा ? प्रत्येक पीढ़ी को इस पवित्र कार्य में यथाशक्ति, यथामति सहयोह देना चाहिए, ऐसा ईश्वरीय संकेत है।’’

भातखण्डे संगीतशास्त्र, भाग 4, पृ. 661

पं० विष्णुनारायण भातखण्डे द्वारा किया गया पीढ़ियों का आह्वान व्यर्थ नहीं गया। आह्वान से प्रेरित आचार्य बृहस्पति ने महर्षि भरत द्वारा निर्दिष्ट श्रुति, स्वर, ग्राम और मूर्च्छना पद्धति का सप्रयोग स्पष्ट करके संगीत जगत् की अविस्मरणीय सेवा की। अतः पूर्व, विदेशी संगीतज्ञों के मत से प्रभावित भारतीयों ने भी भरतोक्त, निर्विवाद मूर्च्छना-पद्धित को जटिल, दुर्बोध तथा अप्रयोज्य कहकर इससे पिण्ड छुड़ा लिया था। आचार्य बृहस्पति तथा ठा० जयदेव सिंह के समकालीन अनेक भारतीय, अभारतीय विद्वानों ने अपनी रुचि, ज्ञान और साधन सीमा के अनुसार भारतीय संगीत की मूल्यवान् सेवा की। निस्सन्देह बीसवीं शती भारतीय संगीत के सर्वतोमुखी विकास की शती है। शास्त्र, सिद्धान्त, तदनुयायी क्रियापक्ष, पर्याप्त परिष्कृत रूप में उपस्थित किए गए।

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
नादब्रह्म चिदानन्दमद्वितीयमुपास्महे।।1।।

1

नादब्रह्म

प्रसिद्ध सङ्गीतशास्त्री स्वामी प्रज्ञानानन्द के अनुसार–‘‘राग एक मनोभौतिकीय वस्तु है। क्योंकि यह मन के आत्मगत अनुभवों का वस्तुपरक प्रकाशन है।’’

स्वामीजी का उक्त विचार सर्वथा उचित है। अतः मनोभौतिक राग एवं संगीत के कतिपय पक्षों की चर्चा से पहले हमारे लिए मन तथा इसके अवदान से परिचय प्राप्त कर लेना उपादेय होंगा। प्राचीन भारत के ऋषिगण को उनके सतत प्रयत्न एवं प्रयोगों द्वारा जो अनुभव प्राप्त हुए, वे विविध मार्ग, पद्धति और प्रक्रिया के परिणाम हैं। प्रत्येक ऋषि प्रयत्न का मूल उद्देश्य जीवन में सुख-शान्ति और तत्पश्चात् मोक्षलाभ ही था तथापि मार्गभेद के कारण इसकी अनेक विधियाँ विकसित हुईं। यह विचित्र तथ्य है, कि मार्गभेद, प्रक्रिया भेद आदि के होते हुए भी सभी अन्वेषक एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, कि मनोनिग्रह के बिना सुख-शान्ति अथवा मोक्ष प्राप्ति कुछ भी सम्भव नहीं है। मन को ही बन्ध और मोक्ष का एकमात्र कारण बताते हुए वे कहते हैं–‘‘मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।’’

ऋषिगण अथवा साधक समूह के प्रयत्नों द्वारा प्राप्त मन का परिचय इस भाँति है। मन क्या है ? यह बुद्धि नहीं है। मन, जीव या आत्मा नहीं है अतः यह आत्मा और बुद्धि से पृथक् है किन्तु इन दोनों से सम्पर्क करने-कराने में समर्थ है। यह पाँच (आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा) ज्ञानेन्द्रियों और पाँच (हाथ, पैर, वाणी, गुदा तथा शिश्न) कर्मेन्द्रियों से पृथक् ग्यारहवीं इन्द्रिय है। ‘‘एकादशं मनोज्ञेयं स्वगुणेनोभयात्मकम्’’ वाक्य द्वारा स्पष्ट हो जाता है, कि दस इन्द्रियों से भिन्न अथवा स्वतन्त्र मन ग्यारहवाँ है तथा प्रकृति से ही उभयात्मक, दो मुहाँ है। दो मुहाँ, अर्थात् युक्त-अयुक्त, शिव-अशिव को बार-बार एकत्र करते रहना मन की प्रकृति है। इसी कारण वैदिक युग के ऋषि बार-बार प्रार्थना करते हैं–मेरा वह मन कल्याणकर संकल्पवाला हो। तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।

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1. शारंगदेव, संगीतरत्नाकर।

निरीश्वरवादी बौद्ध दर्शन भी मन की सत्ता को इसी भाँति स्वीकार करता है। धम्मपद के अनुसार मन के सहयोग में ही धर्म का आचरण सम्भव है।1 मन की सत्ता स्वीकारते हुए बृहदारण्यक में कहा गया है–‘‘अनन्तं वै मनः’’। मन का अन्त नहीं है। अनन्त अर्थात् विभु। अनन्त और विभु भगवान् के विशेषण हैं। मन को इन विशेषणों से युक्त करके ऋषिगण मन की असीम सामर्थ्य का परिचय देते हैं। ऐसे अत्यन्त समर्थ और निरंकुश मन को नियन्त्रित करने के अनेक उपाय आर्ष ग्रन्थों में वर्णित हैं। इन सब में नाद का अनुसन्धान अन्यतम है। भगवान् शंकर द्वारा, मन को लय करने के सवा लाख साधनों में नादश्रवण को वरीयता देते हुए कहा गया है–इन्द्रियों का स्वामी मन है, मन का स्वामी वायु है, वायु का स्वामी लय है और लय, नाद के आश्रित है2। शिवसंहिता के अनुसार नाद के समान दूसरा लय कारक नहीं है3। अतः योग साम्राज्य की इच्छा रखनेवाले को चिन्ता छोड़कर सावधान हो एकाग्र मन से नाद को सुनना चाहिए।4 नाद अर्थात् ध्वनि। लय अर्थात् एक का दूसरे में मिल जाना।

नाद और लय के अनेक प्रकार हैं। नाद के दो प्रमुख प्रकारों में प्रथम अनाहत और दूसरा आहत नाद है। अनाहत नाद जैसा कि इस के नाम से ही स्पष्ट है, अपने प्रादुर्भाव के लिए किसी अन्य का मुखापेक्षी नहीं। अनाहत बिना किसी संघर्ष के उत्पन्न होता है। योगिजन इसे सुनने का प्रयत्न करते हैं। वे क्या सुनते हैं ? यह वे भी नहीं बता सकते। अनाहत नाद सुना जा सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता। जो कहा जा सकता है उसकी अत्यन्त संक्षिप्त रूप-रेखा इस भाँति है। ध्यान से आगे की समाधि अथवा तुरीया स्थिति में ऋषि को अनाहत के स्फुरण की अनुभूति हुई। चित्त के आकाश में उसने ॐकार की ध्वनि सुनी5 और उसका साक्षात्कार भी किया। यह देखना और सुनना समाधि के क्षणों में सम्भव हुआ। अतः निश्चय ही यह शरीर के भौतिक नेत्रों और कानों द्वारा नहीं हुआ। यह साधक को कृतार्थ करने हेतु निराकार द्वारा किया गया स्वयम् का साकारीकरण हैं। हृदय की धड़कन की भाँति एक निश्चित आवर्तन क्रम की अनुभूति से साधक कृतकृत्य हुआ। संस्कार एवं भावनानुसार इन अनुभूतियों का वर्णन विभिन्न प्रकार से किया गया है। ॐकार के साथ अथवा पूर्व सुनी गई ध्वनियों के विषय में नादविन्दूपनिषद् का कथन है–‘‘आन्तरिक नाद को दायें कान से सुनना चाहिए। अभ्यास करते रहने पर बाहरी ध्वनियाँ रुक जाँयगी। अभ्यास की पहली अवस्था में अनेक प्रकार के नाद सुनाई देंगे। अभ्यास बढ़ने पर उत्तरोत्तर सूक्ष्म नाद सुनाई देंगे। पहले समुद्रगर्जन, बादल, डंका, झरना तप्पश्चात् मृदंग, घण्टा और काहल ध्वनि के पश्चात् अन्तिम चरण में घुँघरू, बाँसुरी, वीणा और भ्रमरगुञ्जार की ध्वनि सुनाई देगी।6’’ नाद के अन्य बहुत से प्रकार भी सुने जाने का उल्लेख ग्रन्थों में है। हमें ध्यान देना चाहिए कि भ्रमरध्वनि इन सभी ध्वनियों में ॐकार की ध्वनि के अनुरूप है। भ्रमरध्वनि से हमें ॐकार की सततप्रवाही ध्वनितरंगो की स्पष्ट सूचना प्राप्त होती है।

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1. मनोपुंब्बगमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।
मनसाचेदपदुट्ठेन, भासति वा करोति वा।।
2. इन्द्रियाणां मनो नाथो, मनोनाथस्तु मारुतः।
मारुतस्य लयो नाथः, सलयो नादमाश्रितः।। कल्याण, योगांक, पृ० 332
3. न नाद सदृशोलयः। कल्याण, योगांक, पृ० 272
4. सर्वचिन्तां परित्यज्य, सावधानेन चेतसा।
नाद एवानुसन्धेयो, योगसाम्राज्यमिच्छता।। कल्याण, योगांक, पृ० 271
5. ओमिति स्फुरदुरस्यनाहतं, गर्भगुम्फितसमस्त वाङ्मयम्।
दन्ध्वनीति हृदि यत्परं पदम्, तत्सदक्षरमुपास्महे महः।। जगद्धर भट्ट स्तुतिकुसुमाज्जलि
6. नाद विन्दूपनिषद् ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद्, पृं. 243 नि० सागर प्रेस, 1917 ई०

हम निराकार अथवा अनाहत का ॐकार के रूप में साकार होना देख चुके हैं। समाधि अथवा तुरीयावस्था में सुनी गई ध्वनियों के आधार पर वैसी ही ध्वनि उत्पन्न करने के प्रयत्न ने घण्टा, शंक, वंशी, वीणा एवं मृदंग जैसे वाद्यों को जन्म दिया। इन वाद्यों का पूजन के समय देवमन्दिरों में प्रयोग होने का कारण इन का समाधि में सहायक होना है। महर्षि पाणिनि को समाधि में डमरु ध्वनि द्वारा व्याकरण सूत्रों की उपलब्धि हुई। डमरु ध्वनि, अर्थात् निरर्थक आहत ध्वनि। किन्तु महर्षि को इस ध्वनि की अनुभूति सार्थक वर्णो, अ, इ, उ, ण्, आदि के रूप में हुई। ऐसा इस नाते हुआ कि इससे पूर्व निराकार अनाहत, ॐकार के रूप में स्वंय को रूपायित कर चुका है। यद्यपि नादासुन्धान के कृतार्थ योगिजनों की समाधि ॐकार के दर्शन और उसकी सतत प्रवाही ध्वनितरंगों के श्रवण द्वारा प्रगाढ़ हो गई है तथापि वाणी के चार (परा, पश्यन्ती, मध्यमा एवं वैखरी) प्रकारों में पहले दो केवल योगिजनों के अनुभव क्षेत्र तक सीमित हैं। भौंतिक कार्य व्यापार के आरम्भ हेतु नाद को क्रमशः मध्यमा एवं वैख़री के समाश्रित होना ही होता है। वस्तुतः मूलाधार में उत्पन्न सूक्ष्मतर नाद ‘परावाक्’ संज्ञा से अभिहित हुआ और वायु द्वारा नाभिदेश में पहुँचाए जाने पर ‘पश्यन्ती’ कहा गया। नाद कि वा वाक् की ये स्थितियाँ केवल ईश्वर और योगिजनों के लिए ही गोचर हैं। एक ही नाद (मूलाधार नाभि हृदय तथा कण्ठ) स्थानभेद से कमशः पूरा पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी–इन चार संज्ञाओं से अभिहित होता है।

वायु प्रेरित नाद हृदय में पहुँचने पर ‘मध्यमा’ वाक् कहा गया। समस्त मनोभाव एवं उनके प्रत्यक्षीकरण हेतु की गई विविध चेष्टाएँ ‘मध्यमा’ के अवदान हैं। ‘वैखरी’ का स्थान कण्ठ है। सामान्यतया इसे मानव कण्ठ मान लिया जाता है। वस्तुतः कानों से सुनी गई प्रत्येक ध्वनि, मात्र वैख्ररी–प्रकार है। आवश्यक नहीं यह मानव कण्ठ से ही उद्भूत हो। वंशीध्वनि को अधिक न सुनने को कहते हुए कारण बताया गया है, इस से चित्त के लय हो जाने की अधिक सम्भावना रहती है।1 वंशीध्वनि नाद की अनुभूति में अधिक सहायक है। यह आज भी देखा जाता है, कि गोरखपन्थी साधक कण्ठ में बटे हुए काले ऊन की ‘सेली’ पहनते हैं। सेली में नादश्रवण की सहायिका सींग की एक छोटी सीटी ‘श्रृंगी’ बँधी रहती है, जिसे ये ‘नाद’ (श्रृंगीनाद) कहते हैं।2

ॐकार के विषय में अपने अनुभव का साधकों ने अपने प्रकार से वर्णन किया है। हम यहाँ केवल दो की संक्षिप्त चर्चा करेंगे। कुण्डलिनी-शक्ति के साधकों के अनुसार कुण्डलिनी के स्फुरण से मूलाधार में वेग (गति) उत्पन्न हुआ। अर्थात् कुण्डलिनी की सक्रियता ही प्रथम वेग है। वेग के प्रथम स्फोट को ‘नाद’ कहते हैं। नाद से प्रकाश उत्पन्न हुआ। प्रकाश का साकार रूप महाविन्दु है। नाद के तीन भेद हैं–महानाद, नादान्त और निरोधक। इसी भाँति विन्दु के तीन भेद हैं–इच्छा, ज्ञान एवं क्रिया। साधकों को अपना अनुभव व्यक्त करने में तीन की संख्या बहुविध सहायक हुई है। विन्दुभेद को वे सूर्य, चन्द्र और वह्नि तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश इन तीन रूपों द्वारा पुनः स्पष्ट करते हैं। इसी भाँति साधक की समाधि की अवस्था में ॐकार रूप से प्रकट हुआ नाद भी अ, उ और म् तीन वर्णों वाला कहा गया है।

दूसरा पक्ष योगमार्ग का है। महर्षि पतञ्जलि ॐकार को ईश्वर का वाचक कहते हैं–तस्य वाचकः प्रणवः (स० पा० 27) वाच्य ईश्वर और उसका वाचक ॐकार है। साधकों के विचार से ईश्वर और ॐकार में केवल निराकार और साकार का भेद है। यह भी कहा गया है कि, ॐकार की ध्वनि केवल ध्यान में अनुभव की जा सकती है। मुख से ॐकार का यथार्थ उच्चारण नहीं किया जा सकता तथापि हम जैसा ॐकार बोल पाते हैं उसमें प्रकृति अपने सत्, रज, और तम अथवा स्थूल, सूक्ष्म और कारण रूप में सम्पृक्त है। ध्वनि रूप में स्थित ॐकार का मुख, कण्ठ जिह्वा, दाँत, होंठ और नासिका के सहयोग से उच्चारण सम्भव नहीं है। यही कारण है, ॐकार की ध्वनि का श्रवण और रूपदर्शन मात्र समाधिसिद्धि योगिजनों द्वारा ही सम्भव होता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् इसी नाते मात्र ध्यान और निगूढ़ देव दर्शन की चर्चा करते हुए कह रहा है–अपने शरीर को अरणि और ॐकार को उत्तर अरणि बनाकर ध्यान-मन्थन

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1., 2. कल्याण, योगांक, पृ. 319, 471

द्वारा अन्तरस्थित ज्योति को देखे। 1-13/14। ॐकार के ध्यान की बात कह कर ऋषि इसकी अनिर्वचनीयता स्पष्ट कर रहे हैं।1


नाद के स्फुरण को सृष्टिमूल अथवा आदिकारण स्वीकार कर के हम अब तक अनाहत और आहत की एक झाँकी देख चुके हैं। नाद के चार प्रकारों में उत्तरार्ध के दो मध्यमा एवं वैखरी, आहत के नामान्तर एवं प्रकार हैं। यह निर्विवाद है, कि सृष्टि का जनक ॐकार स्वयं ध्वनि रूप है। अतः यह स्वीकार्य होना चाहिए कि यह समस्त ध्वनियों, वर्ण, मात्रा, शब्द, वाक्य और छन्दों का भी जनक है। ॐकार के अ, उ, म्, चन्द्ररेखा एवं विन्दु को संगीत के गायत, वादन, नर्तन, ताल और लय के प्रतीक स्वीकार करने में हमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए। नाभि, हृदय और कण्ठ से उत्पन्न होने वाले स्वरों के बीच ॐकार के अ, उ और म् में सन्निहित हैं। प्राचीनकाल के संगीतशास्त्रियों द्वारा कहा गया है–ॐकार स्वरूप भगवान् शिव का पूजास्थान बारह दलों का अनाहत चक्र हृदय में है।2 कण्ठ में सोलह दलों के ‘विशुद्ध’ नामक चक्र में सरस्वती का स्थान है। षड्ज से निषाद तक के सात स्वर यहीं से उत्पन्न होते हैं।3 आत्मा से प्रेरित मन शरीर में स्थित अग्नि को प्रेरित करता है। अग्नि से प्रेरित वायु (मूलाधार से) क्रमशः ऊपर उठता हुआ नाभि में अतिसूक्ष्म, हृदय में सूक्ष्म, कण्ठ में पुष्ट, सिर में अपुष्ट, और मुख में कृत्रिम स्वरों को उत्पन्न करता है।4

नाद-प्रसग्ङ सात स्वरों की उत्पत्ति तक आ गया है। वायु द्वारा प्रेरित स्वर, आहत नाद के अवदान हैं। अनाहत के विपरीत आहत नाद दो पदार्थों के संघर्ष अथवा टकराहट आदि से उत्पन्न होता है। आहत नाद के दो वर्ग हैं। प्रिय और अप्रिय। संगीत मनीषियों ने केवल श्रवणसुखद ध्वनि को ‘नाद’ संज्ञा से विभूषित

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1. स्वदेशहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्।
ध्याननिर्मथनाभ्यासाद्देवं पश्येन्निगूढवत्।।
2. हृदयेऽनाहतं चक्रं, शिवस्य प्रणवाकृते।
पूजास्थानं तदिच्छन्ति,युतं द्वादशभिर्दलैः।। संगीत दर्पण, श्लोक 20, पृ. 10
3. कण्ठेतु भारतीस्थानं, विशुद्धिः षोडशच्छदम्। संगीत दर्पण श्लोक 21,पृ. 11
तत्र षड्जादयः सप्तस्वराः, सम्यक्प्रभेदतः।।
4. आत्मना प्रेरितं चित्तं, वह्निमाहन्ति देहजम्।
ब्रह्मग्रन्थि स्थितं प्राणं, स प्रेरयति पावकः।।34।। संगीत दर्पण
पावकप्रेरितः सोऽथ, क्रमादूर्ध्वपथे चरन्।
अतिसूक्ष्म ध्वनि नाभौ, हदि सूक्ष्मं गलेपुनः।।35।।
पुष्टं शीर्षे त्वपुष्टं च, कृत्रिमं वदने तथा।
आविर्भावयतीत्येवं, पञ्चधा कीर्त्यते बुधैः।।36।। संगीत दर्पण पृ० 13

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