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यह देह किसकी है

गिरिराज किशोर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 760
आईएसबीएन :81-263-1096-0

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सामाजिक कहानियाँ...

Yeh Deh Kiski Hai

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

कहानी के दौरान और कहानी के माध्यम से हम एक अनुभव बार-बार जीते हैं। न जियें तो कहानी न बने। आदमी की जिन्दगी का हर अनुभव एक बड़ा अनुभव-इकाइयों के माध्यम से टुकड़ो-टुकड़ों में करते हैं। ये अनुभव-इकाइयाँ छोटे-छोटे कालखण्डों में घटित होती हैं। जैसे-प्रेमी-प्रेमिका के किसी क्षण को देखा वह क्षण ‘बूंमरैंग’ की तरह पलटवार लेखक की संवेदना से आ टकराता है..वह उस अनुभव को अदल-बदलकर तरह-तरह से जीना शुरु कर देता है। उसे अलग-अलग स्थितियों में रखकर देखता है। कई परमुटेशन-कम्बीनेशन बनाता-बिगाड़ता है। घटाता-बढ़ाता है। उस स्थिति को वह रचनात्मक स्तर पर पूरी संवेदना के साथ जीने के लिए अपने को बाध्य करता है। स्वानुभूत अनुभव हो या दस्तक अनुभव रचनात्मक प्रक्रिया एक-सी होती है। हर अनुभव इकाई हरुफ सोख्ते पर पड़ी रोशनाई की बूँद की तरह फैलती जाती है। अनुभव की यही विविधता और उसको अभिव्यक्ति से जोड़ने की जद्दोजहज कहानी विधा के साथ गहराई से जुड़ी है। पाठको को समर्पित है ‘यह देह किसकी है’ का नया संस्करण।

कहानी की कशमकश

मैं सामान्यतः अपने कहानी-संग्रहों की भूमिका नहीं लिखता। मैं सोचता हूँ रचनाएँ हैं तो भूमिका क्या लिखूँ। वही मेरी पहचान हैं, अच्छी या बुरी ! लेकिन दो दिन पहले भाई बिशन टण्डन ने फोन पर कहा, ‘नहीं, भूमिका लिखिए’, लिखनी पड़ी-बहुत जल्दी में।
मैं भले ही भूमिका न लिखूँ पर मैं अपनी रचनाओं, रचनाकर्म सम्बन्धी समस्याओं के बारे में सोचता रहता हूँ। अगर न सोचूँ तो शायद मैं अपने लेखन कर्म और व्यक्ति के बीच चूल बैठाने यानी सामंजस्य स्थापित करने में कामयाब न हो सकूँ। लेखन हमेशा लेखक से बड़ा होना चाहिए। यह बात मैं डरते-डरते कह रहा हूँ। कई बार लेखक बड़े होते हैं। लेखन भले ही बड़ा न हो। उससे दोनों को खतरा है। लेखक के सहारे लेखन आगे नहीं निकलता। लेखक भले ही लेखन की बदौलत पार लग जाए। हो सकता है यह बड़बोलापन हो पर सच्ची बात मुझे यही लगती है। इसलिए मुझे यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि मैं सामान्य काहनीकार या लेखक हूँ। जैसा व्यक्ति वैसा लेखक, वैसा लेखन। जुगत ठीक बैठी हुई है। सच बताऊँ, इच्छा यही है कि लेखन कुछ तो कन्धे से ऊपर निकले। कई बार माता-पिता भी सन्तान के बारे में ऐसा ही सोचते हैं।
मेरा यह ग्यारहवाँ संग्रह है। इसमें अन्य कहानी-संग्रहों से ज्यादा कहानियाँ हैं। पिछले कुछेक सालों में लिखी और छपी हुईं। जब कोई रचना छप जाती है तो वह लेखक की देह नहीं रहती, आत्मा हो जाती है और चारों ओर व्याप्त।...यह कोई सूत्र वाक्य नहीं। मुझे ऐसा लगता है। भले ही गलत हो या किसी को न रुचे। मैं जानता हूँ, मेरे बहुत से साथी जो अब नहीं लिख रहे, मुझसे ज्यादा चर्चित भी थे और अच्छा भी लिखते थे। वे अभी भी उतने ही चर्चित हैं। उनकी कहानियाँ ही उसके पीछे हैं। साहित्य एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ न पद की पूजा होती है, न धन की, न ताकत की, न प्रचार की-बस, रचनात्मक गुणवत्ता की ही पूछ है। अपने उन साथियों के बारे में सोचकर, जो चुप हैं, यही एक प्रश्न उठता है कि क्या अपनी रचनात्मक सामर्थ्य को किसी एक बिन्दु पर पहुँचकर जलती लालटेन की बत्ती की तरह कम करके एक कोने में रख देना चाहिए ? क्या यह सम्भव है कि लिखें तो श्रेष्ठ ही लिखें, उसके अलावा कुछ न लिखें। है तो यह आदर्श स्थिति पर श्रेष्ठता का प्रश्न कौन तय करेगा ? क्या लेखक स्वयं ? अगर इस को तय करने का अधिकार लेखकों को दे भी दिया जाए तो क्या जीवित रहते तय किया जा सकता है ? इस श्रेष्ठता के तमगे के पीछे दौड़ना क्या अपने आप में मृगतृष्णा नहीं ?

मैं कई बार सोचता हूँ कि कहानियाँ क्यों लिखता हूँ ? मैं जानता हूँ अनेक कथाकारों ने मुझसे अच्छी कहानियाँ लिखी हैं और लिख रहे हैं। इनके बीच मैं कहाँ हूँ ? मेरे कई साथी, नये और पुराने, प्रकारान्तर से मुझे सुझाव दिया करते हैं कि मैं उन्यास विधा पर ही अपने-आपको केन्द्रित करूँ। ऐसा नहीं कि मैं उनकी बात समझता नहीं। मेरी कहानियाँ शायद उन्हें पसन्द नहीं आतीं। कई लोग स्पष्ट रुप से बताते हैं कि मेरी कहानियों में सरसता नहीं होती। मेरी पत्नी भी उन्हीं में हैं। प्रगतिशील मानदण्डों पर वे भी शायद पूरी नहीं उतरतीं। एक वर्ग तो उन्हें बिना पढ़े ही छोड़ देता है। प्रश्न है जब एक इतना बड़ा जिर्गा मेरी कहानियों को पसन्द नहीं करता तो मैं लिखता और छपवाता क्यों हूँ ? दरअसल जितना मैं बाहर के लोगों के सामने इन कहानियों के माध्यम से अपने को खोलता हूँ, उतना ही अपने सामने भी अपने-आपको खोलता हूँ। ये प्रश्न ऐसे हैं कि हर रचनाकर्मी के सामने किसी न किसी रुप में आते हैं और आने भी चाहिए। न आएँ तो वह अपने-आपको समझे कैसे ? हर लेखक पसन्द भी किया जाता है और नापसन्द भी। नापसन्दगी का अगर सकारात्मक उपयोग हो सके तो वह ऊर्जा का काम कर सकती है। अस्वीकृति लेखकीयकर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।अस्वीकृति को वहन कर सकना ही लेखक को लेखक बनाता है। यह मैंने इलाहाबाद में सीखा। मैं वहाँ सात-आठ साल रहा। मेरे तब तक दो उपन्यास ‘लोग’ और ‘चिड़ियाघर’ और दो कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। सब लोग मिलते थे, बातचीत करते थे, प्यार से बैठाते थे पर मेरी रचनाओं के बारे में कोई बात नहीं करता था। उसने मेरे अन्दर एक जिद पैदा की। उसी जिद पर मुझे निरन्तर लिखने की प्रेरणा दी।
अब कहानियों की बात करुँ ! अपनी कहानियों की नहीं, एक सामान्य बात। कुछ कहते हैं, कहानी केन्द्रीय विधा है। कुछ कहते हैं, नहीं। नामवर करते हैं कि कवि कथाकारों ने जो कहानियाँ लिखीं वे सामान्य कथाकारों से बेहतर हैं। अज्ञेय का कहना है कि उन्होंने कहानी को अर्थवत्ता की दृष्टि से नाकाफी पाया। राजेन्द्र यादव कहते हैं, मौलिक कुछ नहीं होता, नया होता है। जनवादी और प्रगतिशीलों का कहना है कि जो कथा साहित्य वर्ग-संघर्ष को तेज करता वह प्रतिक्रियावादी है। भले ही उनका या हमारा व्यक्तिगत जीवन जीने का तरीका भी उस संघर्ष में सहायक न होता हो पर सैद्धान्तिक रुप से तो बात ठीक है। सच कहूँ तो मैं अपने आपको इन सबमें कहीं भी नहीं पाता। फिर वही सवाल कि जब मैं कहीं भी नहीं तो मैं क्यों लिखता हूँ ? हर लेखक के मन में उपजने वाले, उसकी रचनात्मकता से जुड़े सवाल, उसकी रचनात्मकता से ही पैदा होते हैं और उनके जवाब भी उसी रचनात्मकता में होते हैं।

कहानी विधा मुझे अपने समाज, जिन्दगी विविधताओं और जटिलताओं को समझने और उनको जीने में मदद करती है। कहानी के दौरान और कहानी के माध्यम से हम एक अनुभव को बार-बार जीते हैं। न जीएँ तो कहानी न बने। आदमी की जिन्दगी का हर अनुभव एक बड़ा अनुभव नहीं होता। हम जिन्दगी का साक्षात्कार अनुभव इकाइयों के माध्यम से टुकड़ों-टुकड़ों में करते हैं। ये अनुभव इकाइयाँ छोटे-छोटे कालखण्डों में घटित होती हैं। जैसे प्रेमी-प्रेमिका के किसी क्षण को देखा वह क्षण ‘बूमरैंग’ की तरह पलटकर और लेखक की संवेदना से आ टकराता है। कोई रचनाकार उसे एक गुजरते हुए दर्शक की तरह केवल एक बार देखकर आगे नहीं बढ़ जाता। जहाँ तक निजी अनुभव का प्रश्न है उसे वह जीता तो सामान्य आदमी की तरह ही है। परन्तु जिस बिन्दु पर वह सामान्य घटना विशिष्ट रचनात्मक अनुभव में तबदील होती है, तो वही आदमी जिसने सामान्य आदमी की तरह उसे जिया था, लेखक के रुप में उस अनुभव को अदल-बदलकर तरह-तरह से जीना शुरु कर देता है। उसे अलग-अलग स्थितियों में रखकर देखता है। कई परमुटेशन-कम्बीनेशन बनाता-बिगाड़ता है। घटाता-बढ़ाता है। उस स्थिति को वह, रचनात्मक स्तर पर, पूरी संवेदना के साथ जीने के लिए अपने को बाध्य करता है। स्वानुभूत अनुभव हो या दत्तक अनुभव, रचनात्मक प्रक्रिया एक-सी होती है। हर अनुभव इकाई हरुफ सोख्ते पर पड़ी रोशनाई की बूँद की तरह फैलती जाती है। अनुभव की यही विविधता और उसको अभिव्यक्ति से जोड़ने की जद्दोजहद कहानी विधा के साथ गहराई से जुड़ी है।
यह प्रश्न उठ सकता है कि उपन्यास में भी तो विविधता होती है। दरअसल उपन्यास की विविधता उपन्यास विशेष की आवश्यकता पर निर्भर करती है। उसकी विषय-वस्तु, अनेकानेक चरित्र, स्थितियाँ, अन्तर्विरोध आदि उस विविधता को तय करते हैं लेकिन यह सब कथानक के डोरे में पिरे रहते हैं कहानी भले ही एक अनुभव इकाई को लेकर लिखी जाती हो, एक लेखक की कहानियाँ हों या कई लेखकों की-समाज की विविधता की एक विस्तृत तस्वीर प्रस्तुत करती हैं।
जब मैं चेखव की कहानियों के बारे में सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि रूसी समाज अनुभवों की विविधता का ऐसा समुद्र है जिसमें जगह-जगह पर अलग-अलग रंग चमचमाते नजर आते हैं। क्षमा करें यह विविधता ‘वार ऐण्ड पीस’ को पढ़कर नहीं लगती। न प्रेमचन्द की कहानियाँ पढ़कर लगती है। उनकी कहानियाँ पढ़कर यही लगता है कि इस देश में एक-सा ही समाज है और सबकी लगभग समान समस्याएँ हैं, उन सबका जिन्दगी जीने का भी करीब-करीब एक-सा ही ढंग है। बच्चों को लेकर उनकी कहानियाँ जरूर विविधता लिये हैं पर वे बहुत कम हैं। प्रेमचन्द एक सकारात्मक बिन्दु है कि उन्होंने कहानी को शरतचन्द्रिय स्त्री-पुरुष के योग-वियोग और भावना प्रधान रोचकता से मुक्त किया। कहानी को जिन्दगी के यथार्थ की जमीन पर खड़ा किया अगर प्रेमचन्द ने यह नयी जमीन न तोड़ी होती या उनसे पहले कोई लेखक धारा को मोड़ दे चुका होता तो प्रेमचन्द को इतिहास के इस संक्रमण बिन्दु का यह लाभ न मिल पाता। चूँकि उनके पास एक सामाजिक दृष्टि थी अतः उन्होंने इस बिन्दु को पहचानकर उसका पूरा लाभ उठाया। यह वही कर सकता है जो समय और परिवर्तन को पहचानने की समझ रखता हो। लेकिन यशपाल के पास विविधता भी है, तार्किकता और सोच भी-सच पूछिए तो हिन्दी कहानी को विचार और तर्क से जोड़ने वाले यशपाल ही अकेले कथाकार हैं। मुझे लगता है जैसे कबीर को समय रहते समर्थ आलोचक नहीं मिला और लगभग छः सौ वर्ष तक वे समय की पर्तों के नीचे दबे कबीरपन्थी गायकों के कवि बने रहे उसी तरह यशपाल को भी शायद इन्तजार करना होगा। यशपाल प्रेमचन्द्र से ज्यादा वस्तुपरक और ‘ऐण्टीरोमाण्टिक कथाकार हैं। वैज्ञानिक युग के वे ज्यादा नजदीक हैं। प्रेमचन्द ने चाहे साम्प्रदायिकता पर लिखा हो या किसानों के आर्थिक अन्तर्विरोधों पर उनकी पूरी ‘एप्रोच’ रोमाण्टिक है। कम-से-कम यशपाल से तो ज्यादा ही।
कहानी को स्त्री-पुरुष सम्बन्धों, किसान, गाँव, टूटते परिवारों तक सीमित नहीं रखा जा सकता। इनके साथ-साथ कहानी का अनुभव क्षेत्र ज्यादा विकसित करना होगा। कहानी को और भी अधिक गहरी सामाजिक पहचान और उसके तर्क से जोड़ना होगा। आलोचकों ने कहानी के चारों तरफ धीरे-धीरे एक लक्ष्मण रेखा खींच दी। से जोड़ना होगा। उसके अन्दर है तो सीता, बाहर गयी तो-कुलच्छनी। यह तो ठीक है, जो बड़ा कथाकार होगा वह इस कठघरे को चरमरा देगा। लेकिन जो नये कथाकार हैं वे क्या करें ? उन्हें वही कहानियाँ लिखने के लिए बाध्य होना पड़ता है जो प्रतिष्ठित लेखक लिखते हैं या पत्र-पत्रिकाएँ छापना चहती हैं पत्र-पत्रिकाओं के ऊपर भी उनके अपने दबाव होते हैं। लेकिन मुझे लगता है कहानी की मूल मानसिकता या उसके मिजाज को समझने और उसकी विविधता को बनाये रखने के लिए उसे समाज की उस अन्तर्धारा से जोड़ना होगा जो निरन्तर और तेजी से बदल रही है।

यह युग विज्ञान का है, विज्ञान के प्रभाव को नजरअन्दाज करके मात्र प्रेमचन्द के नुस्खे पर लिखी कहानी नहीं चल पाएगी या स्त्री-पुरुष सम्बन्धों, सेक्स और अन्य परिभाषित विषयों तक कहानी को सीमित रखना उसकी हत्या करना होगा। प्रेमचन्द के व्यक्तित्व को और बड़ा बनाने के लिए यह जरुरी है कि जिस प्रकार उन्होंने अपने समय के अन्तर्विरोध को पहचाना और पकड़ा उसी तरह हम भी अपने वक्त को समझें। वक्त की चूल को उसकी जगह से हटने न दें। प्रेमचन्द का किसान भी अब देश की इस विकृत आर्थिक व्यवस्था का ऐसा पुर्जा बन चुका है जो अपनी जगह फँसा रहकर खट-खट करके चलते रहने के लिए बाध्य है। वह उपभोक्तावाद का शिकार ही नहीं हिस्सा भी है। भ्रष्ट राजनीतिक चक्र पर बैठी मक्खी की तरह घूम ही नहीं रहा उसमें आनन्द भी ले रहा है। प्रच्छन्न सामन्तवाद नोनी मिट्टी की तरह उसकी जड़ को सुखा रहा है। भाषाओं का अन्तर्विरोध निरन्तर एक ऐसी भाषा की तरफ धकेल रहा है जहाँ संवेदना के कुण्ठित होने का खतरा है। आरोपित विज्ञान जीवन के पूरे ढर्रे को प्रभावित कर रहा है। नौकरशाही और राजनीतिशाही के बीच एक समझौता है जो सामान्य आदमी के विरुद्ध खड़ा है। अगर हम कहानी की चौहद्दियों को छोटा करेंगे तो जैसा कि देखने में आ रहा है, अन्य कुछ विधाओं की तरफ वह भी आप्रासंगिक होती जाएगी। ये जो नयी चुनौतियाँ सामने आ रही हैं उन्हें नजरअन्दाज करके हम घिसी-पिटी कहानियाँ लिखकर विविधता वाले गुण को समाप्त कर देंगे।
प्रेमचन्द का मात्र अनुयायी बने रहना कहानी को आगे नहीं बढ़ने देगा जैसा कि शरतचन्द्र के अनुयायी बने रहकर प्रेमचन्द इतने बड़े कथाकार नहीं हो सकते थे। अपने वक्त को पहचानना उनकी बाध्यता थी। हमारी बाध्यता भी यही है। मुझे हमेशा यही लगता है कि मैं खुली आँखें रखकर वक्त के तेजी से बढ़ते इस जुलूस का हिस्सा होते हुए भी उसे देखता और जाँचता रहूँ। कई बार मैं यह अनुभव करता हूँ कि कहानी को इरादतन या संयोगवश सीमा में बाँधा गया तो वह स्थिति उसके लिए आत्महन्ता साबित हो सकती है। कहानी को अगर चेखव की कहानी बनाना है या मण्टो की कहानी बनाना है वह तभी सम्भव है कि बच्चों की तरह समुद्र के किनारे या रेगिस्तान की ढलानों पर मुक्त होकर खेलें और जिएँ। कोई ‘दादा’ यानी ‘बिग ब्रदर’ हमें ताड़ न रहा हो या फन्दा लिए न बैठा हो जिसे वह कभी भी फेंककर वापस घसीट ले।
कहानी मुझे सबसे ज्यादा जीवन्त विधा लगती है। इसको वही वहन कर सकता है जो अपनी जटाएँ खुली रखे। कहानी का सही रूप बँधे हुए कूपों में नहीं दिखाई पड़ेगा। मैं कहानी में जिस विस्तार और विविधता का हामी हूँ, भले ही वह मुझे न मिल पायी हो, परन्तु मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि इस विविधता से भारतीय कहानी की सही शक्ल बनेगी। जिस तरह एक वैज्ञानिक नये-नये क्षेत्रों और आयामों को खोजता है उसी तरह शायद कहानीकारों को भी खोजना होगा। अब पढ़कर टसुए बहाने वाली कहानियों की शायद उतनी आवश्यकता नहीं जितनी उस तर्क की है जो नजरिया स्पष्ट करे, समय को समझने में मदद दे। कहानी विधा के बारे में नये नजरिये से सोचने का वक्त आ गया है।
मैं भाई बिशन टण्डन का आभारी हूँ कि उन्होंने ज्ञानपीठ के लिए कहानी संग्रह देने के लिए मुझे आमन्त्रित किया। ज्ञानपीठ का यह बदलता रुप-रंग और बिशन भाई का साहित्यिक सोच पुनः ज्ञानपीठ को एक साहित्यिक आन्दोलन में बदल सके, यही कामना करता हूँ।
जहाँ यशपाल को याद कर रहा हूँ, वहाँ कृष्णा सोबती को भी याद करता हूँ जिन्होंने कहानी की जद्दोजहद को समझा!

प्रेम-पत्र

घर पर चिट्ठियाँ नहीं आती थीं। आती थीं तो इतनी कम कि उनका आना या न आना बराबर था। ज्यादातर चिट्ठियाँ पापा के पास दफ्तर में ही पहुँचती थीं। पापा कहीं बाहर गये हों तो बात अलग। दरअसल चिट्ठियों का स्वाभाविक अवतरण बिन्दु पापा का कार्यालय ही था। जब कभी घर पर चिट्ठी आ जाती थी तो उसकी प्रतिक्रिया ठीक वैसी ही होती थी जैसी चीनी के बर्तनों की दुकान में बिजार के घुस जाने पर होती होगी।
पापा दौरे पर गये हुए थे। वैसे पापा बड़ी मुश्किल से कहीं जाते थे। वहाँ तो जाना ही था। उसे कैसे मना करते ! उसी दिन रात की गाड़ी से लौटना था। चिट्ठी घर आ गयी थी। भैया नीचे ही था। उसमें उसका कोई कसूर नहीं। चिट्ठी उसी के हाथ पर पड़ी। वह चौथी-पाँचवीं में तो पढ़ता ही है। उम्र ही कितनी है। अलबत्ता इतना पढ़ सकता है कि चिट्ठी पर लिखा नाम और पता किसका है। चिटठी पर दीदी का नाम लिखा था। उसने पढ़ा और सोचने लगा। तर्क-बुद्धि जितनी थी उतनी ही थी। सोच चालू रखने के लिए काफी थी। दीदी के नाम से कभी चिट्ठी आती नहीं ? फिर आज कैसे आयी ? किसने लिखी ? पापा घर पर नहीं है ? हालाँकि वह यह नहीं समझ रहा था कि वह यह सब क्यों सोच रहा है ? इससे वह किस नतीजे पर पहुँचना चाहता है ? पर सोच रहा था। शायद इसलिए उसने दीदी को तत्काल नहीं पुकारा। हालाँकि जब डाकिये ने घण्टी बजायी तो दीदी जाग गयी थीं। उन्होंने पूछा भी- कौन है ? तो वह नहीं बोला। निर्णय पर पहुँचने में उसने कुछ समय और लिया। दीदी को बताऊँ या न बताऊँ ? या माँ के आने पर चिट्ठी माँ को ही दूँ ? पर चिट्ठी तो दीदी की ही है ! माँ से क्या मतलब ? इतने में दीदी ने दोबरा पूछ लिया। तब उसे लगा कि बता देना चाहिए।
वह बोला, ‘‘दीदी, तुम्हारी चिट्ठी आयी है।’’
‘‘चिट्ठीऽ !’’ कहती हुई दीदी पलँग से ऐसे कूदी जैसे बिल्ली ने चूहा देख लिया हो।
‘‘हाय चिठ्ठी !’’
आते ही उन्होंने सबसे पहले उसके साथ से चिट्ठी झपटी ! फटाफट खोलकर पढ़ी। हल्का-सा-हँसीं। भैया ने पूछा, ‘‘किसकी चिट्ठी है ?’’
‘‘किसी की नहीं।’’
‘‘तो फिर क्या पढ़ रही हो ?’’
‘‘चुप रहेगा कि नहीं?’’
दीदी कभी ऐसे नहीं बोलतीं। उसके चेहरे पर आश्चर्य-भरे दुःख का भाव आ गया। वह उसकी तरफ जरा भी मुखातिब नहीं थीं। उसका गुस्सा बढ़ता गया। वह बोला, ‘‘तुम ऐसे क्यों बोलती हो, दीदी ?’’
‘‘कैसे ?’’
‘ऐसे ही !’’
‘‘मैं कैसे बोली’’
‘‘मैं माँ से कहूँगा कि तुम मुझसे इस तरह बोलीं।’’
दीदी ने चिट्ठी बन्द करके अपने ब्लाउज में रख ली और खुशामदाना आवाज में बोलीं, ‘‘मैंने तुझे क्या कहा ? मैंने तो तुझे कुछ भी नहीं कहा। इतना ही तो कहा, चिट्ठी पढ़ लेने दे।’’
उसका पारा गर्म था, ‘‘तुमने यह कहाँ कहा ? माँ घर पर नहीं होतीं तो तुम मुझे डाँटती हो। फोन आता है तो तुम दौड़कर अपने-आप उठा लेती हो, मुझे छूने तक नहीं देतीं। कुछ पूछता हूँ तो जबाव नहीं देतीं।’’
‘‘अच्छा बाबा, ले मैं कान पकड़ती हूँ-तुझे कभी कुछ नहीं कहूँगी।’’

‘‘मैं जानता हूँ तुम मुझसे फिर इसी तरह बोलोगी...।
माँ लौट आयी थीं। माँ को देखते ही भैया बिखर गया। दरअसल दीदी को इतना समय ही नहीं मिला था कि वह उसे मना लेतीं। वह आते ही बोला, ‘‘आज दीदी ने मुझे डाँटा।’’
माँ ने हँसते हुए कहा, ‘‘खबरदार, जो तूने मेरे बेटे को कभी डाँटा ! मेरा राजा-सा बेटा।’’
‘‘दीदी चिट्ठी पढ़ रही थीं तो हमने पूछ लिया, किसकी चिट्ठी है तो बोलीं-किसी की नहीं, चुपकर-’’ अन्तिम शह्द उसने लड़कियों की-सी आवाज बदलकर कहे।
दीदी ने फौरन विरोध किया, ‘‘मैंने चुप कर कब कहा ?’’
माँ चिट्ठी के नाम पर ऐसे चौंकी थीं जैसे करेण्ट लग गया हो। उन्होंने उसकी बात की ओर ध्यान न देकर चकित भाव से उच्चारा, ‘‘चिट्ठी !’’ फिर बोलीं, ‘‘किसकी थी ?’’
‘‘किसी की नहीं।’’
‘‘यह झूठ बोल रहा है ?’’
‘‘यह तो दुत्ता है, इधर की उधर लगाता रहता है।’’
‘‘माँ, दीदी झूठ बोल रही हैं-उन्होंने चिट्ठी कपड़ों में छिपा ली है।’’
‘‘बताती क्यों नहीं ?’’
‘‘बता तो दिया, मेरी दोस्त की है।’’
‘‘मुझे ही झूठा बना रही है !’’
‘‘इसमें झूठा बनाने की क्या बात ? चिट्ठी तो दोस्त की ही आती है....’’
‘‘पहले तो कभी नहीं आयी।’’
‘‘जो काम पहले नहीं हुआ तो क्या वह आगे नहीं हो सकता ?’’
माँ भी उसके बात करने के ढंग से चौंक गयीं थीं, ‘‘तू कैसे बोल रही है ?’’
‘‘ठीक तो बोल रही हूँ !’’
‘‘तू बताएगी नहीं किसकी चिट्ठी है ?’’
‘‘बता तो दिया, मेरी दोस्त की।’’
‘‘मेरी दोस्त की या मेरे दोस्त की ?’’
‘‘यही समझ लीजिए।’’ उसने तल्खी के साथ कहा।
माँ की समझ में नहीं आ रहा था, वह इस स्थिति से कैसे निबटें। वे वहाँ से झल्लाती हुई चली गयीं, ‘‘लौटने दे पापा को-आज जिस तरह तूने मुझे जवाब दिये, वैसे कभी किसी ने नहीं दिये। एक ही चिट्ठी ने तुझे घरवालों से फ्रण्ट कर दिया। माँ से ऐसे सवाल-जवाब करने लगी जैसे मैं तेरी नौकरानी हूँ।’’
माँ-बेटी के बीच इतनी नाराजगी हो गयी कि उस दिन काम की बात के सिवा कोई दूसरी बात ही नहीं हुई।
पापा लौटे तो घर चुप्पी थी। दीदी ने पापा को नमस्ते की और अपने कमरे में चली गयीं। उन्होंने खाना खाते समय दो-तीन बार पूछा, ‘‘दिव्या नजर नहीं आ रही ?’’
माँ ने एक सीधा-सादा-सा जवाब टिका दिया, ‘‘होगी यहीं।’’

वास्तव में यह आश्चर्य की बात थी कि पापा दो दिन बाद बाहर से आएँ और दिव्या उनके चारों तरफ मँडराती नजर न आए। पापा खाना खा चुके थे तो माँ पान लगाने चली गयीं। भैया धीरे-से पापा के पास आया और पापा के कान पास मुँह ले जाकर बोला, ‘‘दीदी की चिट्ठी आयी थी। माँ और दीदी की लड़ाई हो गयी। माँ दीदी से नहीं बोलतीं।’’ अन्तिम वाक्य उसने दुःख भरे स्वर में कहा।
चिट्ठी की बात सुनकर पापा भी चौंक गये, ‘‘कैसी चिट्ठी ?’’
‘‘चिट्ठी पापा, चिट्ठी !’’
पापा ने वहीं से पुकारा, ‘‘सुनो जरा !’’
‘‘आयी।’’
तब तक भैया खिसककर अपनी छोटी-सी मेज कुर्सी पर जा बैठा और जोर-जोर से पढ़ना चालू कर दिया, ‘‘सम्राट अकबर तेरह साल की आयु में हिन्दुस्तान की गद्दी पर बैठा-बैरम खाँ अकबर का सिपहसालार था-हेमू बक्काल-लड़ाई में हार गया-बैरम खाँ ने भरे दरबार में अपनी तलवार से उसकी गर्दन उतार ली-अकबर का बेटा सलीम नूरजहाँ से प्रेम करता था-सलीम की माँ जोधाबाई राजा मानसिंह की बहिन थी-’’ रुककर पूछा, ‘‘पापा, प्रेम करना क्या होता है ?’’
पापा पाइप पी रहे थे। बेटे का सवाल सुनकर वे झल्ला गये, ‘‘जो लिखा चुपचाप याद कर लो-बकवास करते रहते हो !’’
माँ पान बना लायी थीं। उन्होंने पान मुँह में रखते हुए कहा, ‘‘क्यों जी, यह मैं क्या सुन रहा हूँ ?’’
‘‘क्या ?’’ माँ ने आँखें ऊँची करके पूछा।
‘‘दिव्या की कोई चिट्ठी आयी है ?’’
पहले माँ चुप रहीं। उन्होंने फिर पूछा, ‘‘तुमने सुना, मैं क्या पूछ रहा हूँ ?’’
‘‘क्या ?’’
‘‘दिव्या के पास किसी की चिट्ठी आयी है ?’’
‘‘उसी से पूछो।’’
‘‘क्यों, तुमने क्या मुँह सी रखा है ?’’
‘‘मुझे पता हो तो मैं बताऊँ। मुझसे तो वह दोपहर से ही नहीं बोली। मुझे कुछ समझती थोड़े ही है। मैं उसकी लगती ही क्या हूँ ?’’
‘‘हूँऽऽ !’’ पापा ने बहुत बड़ा हुंकार भरा। थोड़ी देर पान चुबलाने और चार छः दम लगाने के बाद पुकारा, ‘‘दिव्या...!’’
भैया का इतिहास याद करना बन्द हो गया। वह गर्दन कन्धे में घुसाकर अगली घटना घटित होने की प्रतीक्षा करने लगा। अब पता चलेगा दीदी को-बहुत बनती थीं। पापा मारेंगे तो नहीं...? इस बात को सोचकर वह थोड़ा सुस्त और परेशान हो उठा। तभी पता नहीं माँ को क्या हुआ। वह अचानक बोलीं, ‘‘जा, जाकर सो क्यों नहीं जाता ?’’
माँ का अचानक इस तरह कह देना उसे इतना बुरा लगा, जितनी बुरी दिन में दीदी की बेरुखी लगी थी। माँ और दीदी में फर्क क्या रहा ? दीदी को तो उसने फिर भी कह दिया था। माँ के सामने तो वह बिलकुल उसी तरह ‘शटअप’ रह गया जैसे हेडमास्टर के सामने रह जाना पड़ता है। अगर न बताते तो माँ को पता ही नहीं चलता कि दीदी के नाम चिट्ठी आयी है। अब हमें ही भगा रही हैं। आगे से मैं माँ को कोई बात नहीं बताऊँगा।
तब तक पापा ने दोबारा पुकार लिया। इस बार दीदी बोलीं, ‘‘आयी पापा...’’

आवाज से भैया को लगा कि दीदी रो रही हैं। इस बात से उसे और भी चोट पहुँची। उसका मन हुआ वह उसी तरह कान पकड़कर उठक-बैठक लगाये जैसे अँग्रेजी वाले मास्टरजी लगवाया करते हैं। अँग्रेजी चाहे वह जितना भी याद करे, मास्टरजी के पूछते ही भूल जाता है। दीदी आयीं तो सबसे पहले उसने उनकी आँखें देखीं। वे खुश्क थीं। जरूर पोंछकर आयी हैं। यह तो हो ही नहीं सकता कि दीदी को पापा के इस तरह पुकारने से डर न लगा हो।
माँ फिर बोल दीं, ‘‘अरे जा, जाकर सोता क्यों नहीं ? टव्वा-सा बैठा बातें सुन रहा है।’’
माँ के कहने के साथ ही पापा ने भी उसकी तरफ देख लिया। वह उठकर चल दिया। रोज तो कहती हैं, जल्दी पढ़कर सो जाता है। पढ़ता है तो कहती हैं, जाकर सोता क्यों नहीं। यह भी कोई बात हुई, पढ़ो तो सोता क्यों नहीं, सोओ तो पढ़ता क्यों नहीं। जाओ, हम अब रात को नहीं पढ़ेंगे, बिलकुल नहीं पढ़ेंगे। पापा भी माँ की बात में आ गये।
वह चला तो गया पर अपने कमरे की दीवार से कान लगाकर सुनने की कोशिश करने लगा। कुछ भी सुनाई नहीं पड़ा तो उसे सबसे ज्यादा चिन्ता इसी बात की थी कि कहीं पापा दीदी की पिटाई न कर दें।
पापा पहले तो चुपचाप अपना पाइप पीते रहे। थोड़े देर बाद बोले, ‘‘यह चिट्ठी वाला क्या मामला है ?’’
वह जमीन की तरफ देखती चुप खड़ी रही।
उन्होंने फिर पूछा, ‘‘कोई चिट्ठी आई है ?’’
उसने गर्दन हिला दी। यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उनका दूसरा सवाल यह नहीं था कि चिट्ठी किसकी है, बल्कि उन्होंने यह पूछा, ‘‘घर पर कैसे आयी ?’’
‘‘घर का ही पता लिखा था।’’
पापा रहे तो संयम में पर आवाज तेज हो गयी, ‘‘पता क्या अपने-आप लिखा गया-बिना तुम्हारे बताए ?’’
‘‘हाँ, मैंने पता किसी को नहीं बताया।’’
‘‘किसकी है।’’
‘‘दोस्त की।’’
‘‘किस दोस्त की ?’’
तब तक माँ बोल पड़ीं, ‘‘बताएगी थोड़े ही, मैं तो पूछते-पूछते थक गयी-मुझे तो यह चिउँटी बराबर भी महत्त्व नहीं देती।’’
‘‘तुम चुप रहो-किस दोस्त की ?’’
उसने चिट्ठी ब्लाउज में से निकाली औऱ बढ़ा दी, ‘‘पढ़ लीजिए।’’
‘‘क्या मतलब ?’’
अनायास उनके मुँह से निकला। दरअसल वे इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थे। उनका खयाल था कि चिट्ठी प्राप्त करने के लिए एक-आध चपत भी लगाना भी पड़ जाए। लेकिन सब काफी जद्दोजहद करनी पड़ेगी। हो सकता है कि इतनी जल्दी हो जाएगा, इस पर माँ तक की आँखें फटी रह गयीं।

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