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युद्धबीज

ऋषिवंश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 761
आईएसबीएन :81-263-0199-6

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राजसत्ता और धर्मसत्ता पर अधिकार जमाये बैठे लोगों के भीतर फैले अपराध-बोध के कारण बिखरते मानवीय मूल्यों, आदर्शों को अभिव्यंजित करनेवाला उपन्यास....

Yuddhabeej

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


राजसत्ता और धर्मसत्ता पर अधिकार जमाये बैठे लोगों के भीतर फैले अपराध-बोध के कारण बिखरते मानवीय मूल्यों आदर्शों और टूटती मर्यादाओं को अभिव्यंजित करनेवाले इस उपन्यास में समकालीन मनुष्य की चिन्ता तथा उसके नैतिक सरोकारों को व्यक्त किया गया है। दरअसल संवेदना के धरातल पर अलग रंग और मिजाज के इस उपन्यास ‘युद्धबीज’ में सामाजिक न्याय के लिए स्वयं को समर्पित कर देनेवाले एक अद्भुत चरित्र की सृष्टि हुई है, जो उदासी, आत्म-वितृष्णा और आक्रोश की परिधि में जीने के लिए विवश है। इस उपन्यास में आस्था और आशंका, संकल्प और संघर्ष के बीच भावनाओं के जटिल संसार को मूर्त करने की पहल है। अपनी ही उपजायी परिस्थितियों और अपने ही बोये युद्धबीजों के त्रासद फलों को भोगने-काटने को बाध्य एक असहाय पीढ़ी की पतन की कहानी के साथ ही मानवीय गुणों और उसकी भी दुर्दम्य शक्तियों की संघर्ष-कथा है यह उपन्यास-‘युद्धबीज’।

युद्धबीज

गोली खाए हुए चील जैसा उसका विमान, नियन्त्रण खोने के बाद असहाय होकर, काफी ऊँचाई से घाटियों की धुंध में डूबने लगा था।। उलटते-पुलटते विमान के डैनों पर दोपहर बाद के सूर्य की किरणें बार-बार टकराकर चकाचौंध पैदा कर देती थीं। सूने निर्जन वनांचल में उस क्षण घट रही भयानक घटना बड़ी खामोशी से निस्तब्ध प्रकृति द्वारा देखी जा रही थी- एकदम साक्षी-भाव से। कुछ-कुछ वैसे ही वायुयान के चालक को भी दिख रही थी यह लोमहर्षक घटना....। एक भयंकर विस्फोट और....और .....! और जैसे चारों तरफ एक असहायता-सी व्याप्त होती जा रही थी। विमान के अन्दर और बाहर, चारों ओर की हवा में, आसपास के दृश्य-जगत् में, धूप से पीले पड़े जंगलों और जलाशयों पर, दूर-दूर तक अपरिचित सुनसान घाटियों और पहाड़ों की बेतरतीब ढलानों पर। जहाँ तक नजर जाती थी वहाँ तक। और फिर उसकी देह, उसके बाद शायद उसकी आत्मा ही थी जो हल्के आभास और स्मृति के रूप में संचित रह गयी थी.....।

जहाँ तक उसे याद आता है, इतनी हृदय-विदारक दुर्घटना, उसकी भयानक परिणित की कल्पना के बावजूद, भीतर से कहीं उसकी पुरानी सूफियाना दृष्टि ने उसकी चेतना के किसी हिस्से को झंकृत कर रखा था, जिससे दुर्घटना के प्रति उसका भय लगभग समाप्त हो गया था। चिड़ियावाली विहंगम दृष्टि से-वह, गिरते-टूटते यान, धरती-आकाश को देख रहा था। और देख रहा था-अपने भीतर सामान रूप से व्याप्त किसी परम सुहृद अज्ञात चैतन्य को।.....सब कुछ एक-दूसरे में मिश्रित और गड्डमड्ड होने के बावजूद एक स्पष्ट अनुभवात्मक ज्ञान-उस पर बना हुआ था।

-और तभी अचानक एक जोरदार भयानक आवाज के साथ पहाड़ की एक चोटी के निकट दक्षिणी ढाल पर पेड़ों के घने झुरमुटों के बीच, उसका वायुयान पृथ्वी से जा टकराया था।
तब से अब के बीच के आँकने का वह बार-बार असफल प्रयास करने लगा। लेकिन सूत्र उसकी पकड़ में नहीं रहे थे। दुर्घटनाग्रस्त उस छोटे-सुन्दर विमान के चालक को, चेतना लौटने के बाद, आसपास के वातावरण पर नजर डालने से इतना स्मरण हुआ था कि वह दुर्घटना के दिन सुबह नौ बजे के बाद रंगून शहर के पासवाले जंगलों से बम्बई के लिए उड़ा था। और यह कि दो-तीन घण्टे की उड़ान के बाद की यह दुर्घटना लगती है उसे।

बड़े प्रयास के बाद भी वह सारी घटनाओं को सिलसिलेवार नहीं रख रहा था। चेतना लौटने पर उसकी देह का एक-एक अंग भंयकर पीड़ा से टूट रहा था। माथे पर खून जमकर काला पड़ चुका था। बालों में धूल और खून के थक्के जमकर सूख चुके थे। सौ गज की दूरी पर उसका प्रिय यान क्षत-विक्षत पड़ा था। पूँछ की तरफ का उसका दो-तिहाई हिस्सा करीब-करीब जल चुका था। डैने और आगे का भाग हालाँकि देखने में सुरक्षित लगते थे, किन्तु उनका भी अन्दरूनी भाग नष्ट हो चुका था। इस समय वह दुनिया के किस हिस्से में था, इसका कतई अनुमान नहीं लगा पा रहा था। दूर-दूर तक जंगलों और पहाड़ों के बीच यह अज्ञात स्थान बहुत विचित्र लग रहा था उसे। रहस्यमय, अपरिचित किन्तु कहीं-न-कहीं जैसे चिरपरिचित-सा।

सारा बल समेटकर बार-बार उठने के उसके सारे प्रयास असफल सिद्ध हुए थे। एक बार पूरा शरीर ढीला छोडकर, फिर धीरे-धीरे ताजी प्राणवायु को फेफड़ों में खींचना, यथासम्भव रोकना, और फिर धीरे-धीरे प्रारम्भ कर दिया उसने। यह उसकी प्रिय शारीरिक क्रीड़ा थी, जिससे वह पूर्ण ताजगी पाने के साथ-साथ अपनी चेतना तथा वृत्ति को भी दूसरी ओर पलटने में सफल हो जाया करता है। प्राणायाम के प्रभाव से रक्तप्रवाह सन्तुलित होने के कारण, उसके शरीर में ऊष्मा फैलने लगी। फिर एक बार सारा बल लगाकर वह उठने में सफल हुआ, और किसी तरह गिरते-पड़ते अपने टूटे यान तक पहुँचा। काकपिट सुरक्षित दिख रहा था। आशा बँधने पर तीव्रता से उसने सारे यन्त्रों के बटन खड़खड़ाने शुरू कर दिये, लेकिन सारी मशीनरी, सारी प्रणालियाँ मृतप्राय थीं। दिशासूचक यन्त्र की सुई फ्री हो चुकी थी। टी.वी. कण्डीशनर, फोन, गीजर, टीपैन आदि सारी सुविधाएँ बन्द थीं।

ढलान के ऐन सामने सूर्य लगातार निस्तेज होता रहा था। यानी उस ओर पश्चिम दिशा थी। सूर्यास्त होने के डेढ़-दो घण्टे पूर्व का समय होगा। मशीनरी के बिगड़े होने से वह कुछ हतोत्सहित हुआ। यदि टेलीफोन-ट्रान्समीटर काम करता तो कम-से-कम अपने सहायकों को समाचार तो दे सकता था अपना, कि इस समय वह किस दिशा में कितने अक्षांश-देशान्तर पर तथा किस हालत में था। शायद इतने भयानक हादसे का उसके आदमियों को कतई भान तक न हो।
कुछ आज का दिन ही उसे बार-बार हतप्रभ कर देनेवाला साबित हो रहा था। लेकिन यह भी तो पक्का नहीं था। रंगून से चलते वक्त अजित ने कहा भी था कि वह भी साथ ही चला चलता है और वहाँ के बाकी काम तुरन्त ही वापस लौटकर निपटा लेगा। कल ही। लेकिन तब उसने सोचा था कि उन बदमाश लोगों का क्या भरोसा ?’’
 एक दिन रुककर अजित वहाँ की सारी गतिविधियों को भाँप सकता है।
अजित को वहीं छोड़कर बड़े खुशनुमा अन्दाज में वह उस दिन निकला था रंगून से रंगून में उसकी वार्ता कम-से-कम उसकी आशा से अधिक ही सफल साबित हुई थी।

रंगून की वह वार्ता समूचे ग्लोब के सभी बड़े माफिया सरगनाओं या उनके विशेष प्रतिनिधियों के बीच थी, जो बर्मा के अपराध जगत् के बेताज बादशाह हार्डी की मेजबानी में, कड़ी सुरक्षा के बीच घने जंगलों में स्थिति उनके फार्महाउस पर बड़े आमोद-प्रमोद और तामझाम के साथ हुई थी। रंगून शहर से केवल सत्रह-अठारह मील दूर, किन्तु पूर्णतया अज्ञात स्थान में। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि अपराधियों की इस वार्ता का स्वर आज कुछ दूसरा ही था।

यह तो निर्विवाद तौर पर स्पष्ट उभरा था कि उस महत्त्वपूर्ण मीटिंग में उसके प्रभाव को सभी ने सर्वाधिक और सर्वोच्च स्वीकार किया था। सबसे आश्चर्यजनक तो यह बात थी कि सम्भवतः पहली बार ऐसी आपाराधिक मींटिग में शान्ति और धर्म से जुड़ी सामाजिक पुनरुद्धार की बातें भी हुई थीं। शायद समय करवट बदल रहा था। जो कार्य धर्म-संस्थापकों उपदेशकों या राजनेताओं का होता है, वह दुनिया के इतिहास में सम्भवतः पहली बार कुख्यात माफिया गैंग करने जा रहे थे। हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा माफिया सरगना ‘किंग’ त्रिलोचन’ रंगून की उस विशेष मींटिग में अपने सर्वहितकारी विचारों-वक्तव्यों के चलते सबसे आदरवाले स्थान पर अनायास ही आरूढ़ कर दिया गया था।

इस तरह स्वाभाविक व सहज रूप से होनेवाली तालियों की गड़गड़ाहटों और रंगीनियों सुवासित पुष्षों की वर्षा में भीगी वह मीटिंग, बीसवीं शताब्दी के एकदम उत्तरार्ध में नयी उम्मीदों के साथ समाप्त हुई थी।
उसे आश्चर्य था कि इतनी भयानक गति से, उतनी ऊँचाई से टूटने के बाद भी, उसका विमान इतना भी सुरक्षित कैसे बच गया था ! लड़खड़ाते कदमों से वह रात्रि-विश्राम लायक किसी स्थान की तलाश में-इधर-उधर देखता हुआ ढलान के कटाव पर चौरस समतल-सी दिखनेवाली जगह की ओर बढ़ा। कमजोरी, भूख और हतोत्साहित होने के कारण सीढ़ीनुमा कटान से लड़खड़ाता हुआ वह थोड़ा सुरक्षित स्थान की ओर उतरने लगा और अचानक लुढ़कर उलटता-पुलटता हुआ नीम-अँधेरे एक कन्दरा-जैसे स्थान में जाकर ठुँस-सा गया।

उसने अपनी सारी बाह्य जैविक चेष्टाओं तथा क्रियाओं को छोड़ दिया सम्भवतः रक्त बहुत निकल गया था और भूख ने भी उसे शक्तिहीन कर दिया था। अचानक लुढ़ककर गिरने से उसके मस्तिष्क में अन्धकार-सा छा गया था और धीर-धीरे लाख कोशिशों के बावजूद पुनः वह चेतना खोने लगा था। एक रहस्यमय अन्धकार उसके चैतन्य पर फिर से व्याप्त होता गया। देह की समस्त संवेदनाओं से कटा हुआ अपने सारे ठिकानों और लोगों से दूर-वह अपनी इच्छा के विपरीत उस अपरिचित अँधेरी गुफा में जमीन पर अचेत पड़ा हुआ था। पहाड़ों पर से ठण्डी गुमनाम पहाड़ी हवा घाटियों में उतर रही थी। बाहर दुनिया में दुनियादारी की सारी हलचलें पूर्ववत चल रही थीं। सर्वत्र सब-कुछ अपने स्वाभाविक क्रम में प्रवहमान था। वह सोच रहा था- शायद वह भी अपनी किसी क्रमिक व स्वाभाविक यात्रा पर ही है- विराट् में एक साथ चलनेवाली अनन्त अपरिवर्तन क्रियाओं-जैसा ही !


2  



त्रिलोचन पाण्डे आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूरे बम्बई आया था। पूर्वी उत्तरप्रदेश के अपने पिछड़े हुए दकियानूसी गाँव-समाज और परम्पराओं के बीच से, सबको छोड़कर। हालाँकि मजबूरी और नियतिवश अपनी प्राचीनताओं और माँ-बाप से जुड़ी स्मृतियों को छोड़ने को तैयार हुआ था वह। तब से अब तक इन पच्चीस सालों के दौरान गाँव का एक सकपकाया हुआ संकोची और स्वप्नदर्शी कशगात लड़का बबन उर्फ त्रिलोचन पाण्डे आज अन्तर्राष्ट्रीय महानगर बम्बई का ‘किंग’ अर्थात् - ‘किंग त्रिलोचन’ बन चुका था।

‘किंग त्रिलोचन’ ! यानी अपराध-जगत् का खौफनाक मगर जगमागाता-, सम्मानित नाम
शुरू-शुरू में बबन जब बम्बई के उपनगर दादर स्टेशन पर ट्रेन से उतरा था, तब उसने कल्पना तक न की थी कि एक दिन इसी महानगर की गलियों-सड़कों में ‘किंग’ बनकर घूमेगा वह यू. पी. का ‘भइया’; और उसके इशारे पर बार-बार सलाम करने में बम्बई अपना मान समझेगी ! तब यह भी नहीं सोच पाया था कि वह इस बीच अपने आरोहों और अवरोहों से निकलकर जीवन उसे से कहाँ ले जाएगा ! और फिर कैसी आश्चर्यजनक परिणित होगी उसकी !

छेदी पहलवान बबन के गाँव का ही एक खेतिहार कुर्मी काफी सालों पहले गाँव से आकर यहाँ दादर में धन्धे-पानी से लग गया था। छेदी दादर रेलवे स्टेशनों इलाके में फल, पावभाजी, चाट वगैरह के ठेले लगाया करता था, लेकिन धीरे-धीरे मेहनत और अच्छे स्वभाव के कारण बढ़ते-बढ़ते आज पच्चीसों ठेले का खुद मालिक है। नाम चलता है छेदी पहलवान का इस इलाके में। वह अपनी ओर के जरूरत मन्द और गाँव से नौकरी की तलाश में आने वालों को ऊँच-नीच समझाकर एकाध ठेला पकड़ा देता कमीशन पर।

गाँव के सम्मानित परिवार का लड़का होने के नाते वहीं पारम्परिक ग्रामीण सम्मान देने का भरकस प्रयास करता था छेदी पहलवान अपने ‘तिरलोचन पण्डित’ को। रहने के लिए अपनी ‘खोली’ के ऊपरवाला कोठा छेदी ने बबन के लिए खुलवा दिया और दोनों वक्त भोजन की थाली ऊपर भिजवाने की व्यवस्था कर दी। उसके दैनिक खर्चों के लिए, हर ठेकेवाले को छेदी का निर्देश था कि बबन महाराज जिससे भी ‘खर्चा’ माँगें, दे दिया जाए और हिसाब देते समय दर्शा दिया जाए। छेदी पहलवान जानता था कि बवन नेकनीयत, सीधा-सच्चा युवक था और एक अच्छे-खासे परिवार का कुलदीपक था; परन्तु उसके बहुत बड़े सम्मिलित परिवार के स्वार्थी सदस्यों की आपसी रंजिश और औरतों की मूर्खताओं ने आज उस परिवार को दयनीय दशा में पहुँचा दिया था।

 गाँव में भी बबन अपने हमउम्र लड़कों के विपरीत, शान्त तथा दूसरों के दुख से द्रवित हो उठानेवाला नाजुक दिल  का एक कमजोर लड़का समझा जाता था। रूढ़िवादी संकुचित देहाती परिवेश तथा उच्च ब्राह्मण-वंश का होने के बाद भी, बबन हर जात-पाँतके लोगों से, एक-सा ही प्रेम रखता।
इसी से गाँव की छोटी-बड़ी सभी बिरादरी को एक-सा प्रिय भी था बबन। सम्भवतः इन्हीं सब कारणों से छेदी पहलवान ने अपने दादर-साम्राज्य में उसे खुली छूट दे दी थी।

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