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हमारा संविधान

सुभाष कश्यप

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :341
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 78
आईएसबीएन :81-237-1913-2

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यह पुस्तक हमारे संविधान के बारे में गहन अध्ययन और व्यावहारिक अनुभवों का परिणाम है।

Hamara Sanvidhan - A Hindi Book by - Subhash Kashyap हमारा संविधान - सुभाष कश्यप

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह पुस्तक हमारे संविधान के बारे में गहन अध्ययन और व्यावहरिक अनुभवों का परिणाम है। इसमें संविधान की उत्पत्ति, कार्यप्रणाली और न्यायिक व्याख्याओं द्वारा विकसित संवैधानिक नियमों का विश्लेषण तथा संविधान के प्रत्येक भाग, अध्याय और अनुच्छेद को टिप्पणियों द्वारा समाहित किया गया है। इसके उपसंहार पृष्ठ पर संवैधानिक पुनर्निर्माण के लिए सुझावों की समीक्षा भी की गयी है। तथ्यपूर्ण, उद्देश्यपरक तथा विश्लेषणात्मक यह पुस्तक अत्यन्त रोचक है। व्यापक और संक्षिप्त रूप से एक साथ, यह लंबे समय से अपेक्षित संविधान के अध्ययन पर किसी छोटी लेकिन प्रामाणिक पुस्तक को पूरा करती है। यह न केवल विद्यार्थियों और राजनीति विज्ञान  संवैधानिक नियमों के शोधर्थियों बल्कि अधिवक्ताओं, शिक्षकों और अन्य वे लोग जो अपने संविधान तथा जिस राजनैतिक व्यवस्था में वे रहते हैं, को समझना चाहतें हैं, के लिए भी उपयोगी होगी।

डॉ. सुभाष कश्यप एक अधिवक्ता और संवैधानिक नियमों, संसदीय मामलों व राजनैतिक प्रबंधन के सलाहकार हैं। लोक सभा के महासचिव (1984-1990) रहे- डॉ. कश्यप ने 1983 तक एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन (सी.आई.डी., आई.पी.यू) का प्रतिनिधित्व किया। उससे पहले वे कई वर्षो तक संवैधानिक तथा संसदीय मामलों के संस्थान के निदेशक रहे हैं। कानून और राजनीति विज्ञान की पुस्तकों के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित डा. कश्यप संविधान की ? ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर्स कमेटी आफ एक्सपर्ट्स’ ? के सदस्य तथा संविधान पुनर्निर्माण परियोजना के मानद निदेशक भी रहे हैं। वे सेंटर फार पालिसी रिसर्च के मानद आमंत्रित प्राध्यापक, भारत सरकार के लिए पंचायती राज नियमों और संस्थानों के मानद संवैधानिक सलाहकार और दिल्ली विश्वविद्यालय में विधि अध्ययन के शोध मंडल के सदस्य हैं। उनके लेख राष्ट्रीय समाचार पत्रों और शैक्षिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, तथा वे भारत और विदेशों में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किये जाते हैं।

हमारा संविधान

आमुख


इस पुस्तक के लिखे जाने का सारा श्रेय नेशनल बुक ट्रस्ट को जाना चाहिए क्योंकि उन्हीं के आग्रह पर इस पर काम शुरू हुआ और एक निश्चित समयावधि के भीतर पूरा किया गया। इससे पूर्व ट्रस्ट ने मेरी एक पुस्तक ‘हमारी संसद’ शीर्षक से प्रकाशित की थी, उसका पाठकों ने बड़ा स्वागत किया। बारबार पुनर्मुद्रण हुआ नए संस्करण निकले तथा हिंदी और अंग्रेजी मूल पुस्तकों का कई अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। उसी श्रृंखला में 1996 में ‘संविधान शीर्षक’ प्रकाशित हुआ। अंग्रेजी में इसका तीसरा संस्करण आ चुका है किंतु, हिंदी में प्रथम संस्करण की आवृत्तियां ही अब तक आती जा रही थीं अतः मुझे यह कतिपय संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण प्रस्तुत करते हुए विशेष प्रसन्नता हो रही है। इसमें पहले संस्करण के बाद हुए परिवर्तनों का समावेश कर आज तक की सही स्थिति देने का प्रयास किया गया है। आशा है पुस्तक की उपादेयता और बढ़ेगी।

मेरी विनम्र मान्यता रही है कि भारत के प्रत्येक नागरिक को—युवक-युवती को बच्चे-बूढ़े को अपने देश के संविधान से, उसकी राजनीतिक व्यवस्था से परिचित होना चाहिए। यह दुर्भाग्य का विषय है कि संविधान की शिक्षा को विभिन्न स्तरों पर अभी तक समुचित स्थान नहीं दिया गया। और भी खेद की बात है कि हिंदी भाषा में भारत के संविधान और संवैधानिक विधि पर प्रामाणिक और मानक मूल लेखन बहुत कम हुआ है।

मैं गत पांच दशकों से संविधान और संवैधानिक विधि का विद्यार्थी रहा हूँ। वस्तुतया संविधान के निर्माण के काल से ही इस विषय में मेरी रुचि रही है। 1965 तक भारत के संविधान निर्माण पर पांच ग्रंथों पर काम पूरा करने के बाद से बराबर सोचता रहा हूं कि संविधान के विकास और कार्यकरण पर तथा न्यायालयों द्वारा विभिन्न उपबंधों की व्याख्या के आधार पर बनती बढ़ती संवैधानिक विधि पर एक संपूर्ण और प्रामाणिक किंतु साथ ही सरल, संक्षिप्त और पठनीय, पुस्तक लिखूं। किसी-न-किसी कारण वश यह काम बराबर टलता रहा जबकि इन वर्षों में मैंने अन्य विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखीं।

संसार के सबसे बड़े संविधान की व्याख्या को इस पुस्तक के थोड़े से पृष्ठों में समोकर प्रस्तुत करना काफी कठिन काम था। सच तो यह है कि भारत के संविधान और उसकी संवैधानिक विधि पर 1000 या उससे भी अधिक पृष्ठों का ग्रंथ लिखना अपेक्षाकृत आसान पड़ता।
पुस्तक की ग्राह्यता, गुणात्मकता और उपादेयता का निर्णय तो विज्ञ पाठकों का काम है, किंतु इतना विनम्र निवेदन मैं अवश्य करना चाहूंगा कि इस विषय पर अब तक जो और साहित्य उपलब्ध है, उसके संदर्भ में प्रस्तुत पुस्तक की शैली और तकनीक अपनी है, मौलिक है और प्रचलित ढर्रे हटकर है। संभवतः इसीलिए इसका इतना व्यापक स्वागत हुआ और प्रथम संस्करण की ही आठ आवृतियां निकालनी पड़ीं।

मैं समझता हूं कि इस पुस्तक ने संवैधानिक अध्ययन के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है। एक भारी कमी को पूरा करा है और राजनीतिशास्त्र, संवैधानिक विधि और लोक प्रशासन के शिक्षार्थियों, अधिवक्ताओं और साधारण नागरिकों के लिए उपयोगी सिद्ध हुई है।

विशेष संतोष का विषय है कि इस पुस्तक के पूर्व संस्करण में सांविधानिक सुधार संबंधी जो सुझाव दिए गए थे, उनमें से अधिकतर को राष्ट्रीय आयोग ने स्वीकार किया और अपनी सिफारिशों (मार्च 2002) में शामिल किया।
पुस्तक के प्रणयन में मुझे जिन मित्रों से सहायता मिली मैं उन सबका आभारी हूं।
पुस्तक में रही कमियों और त्रुटियों का दायित्व मेरा है। सभी सुझावों का मैं सदैव स्वागत करूंगा और सुधार का प्रयास करूंगा।


सुभाष काश्यप

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प्रवेश



संविधान क्या है ?

किसी देश का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का वह बुनियादी सांचा-ढांचा निर्धारित करता है, जिसके अंतर्गत उसकी जनता शासित होती है। यह राज्य की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे प्रमुख अंगों की स्थापना करता है, उनकी शक्तियों की व्याख्या करता है, उनके दायित्वों का सीमांकन करता है और उनके पारस्परिक तथा जनता के साथ संबंधों का विनिमयन करता है।

लोकतंत्र में प्रभुसत्ता जनता में निहित होती है। आदर्शतया जनता ही स्वयं अपने ऊपर शासन करती है। किंतु, प्रशासन की बढ़ती हुई जटिलताओं तथा राष्ट्र रूपी राज्यों के बढ़ते हुए आकार के कारण प्रत्यक्ष लोकतंत्र अब संभव नहीं रहा। आजकल के प्रतिनिधिक लोकतंत्रों में जनता इस बात का निर्णय करती है कि उस पर किस प्रकार से तथा किसके द्वारा शासन हो। जनता अपनी प्रभुसत्ता का सबसे पहला तथा सबसे बुनियादी अनुप्रयोग तब करती है, जब वह अपने आपको एक ऐसा संविधान प्रदान करती है जिसमें उन बुनियादी नियमों की रूपरेखा दी जाती है, जिनके अंतर्गत राज्य के विभिन्न अंगों को कतिपय शक्तियां अंतरित की जाती हैं और जिनका प्रयोग उनके द्वारा किया जाता है।
संघीय राज्य व्यवस्था में संविधान अन्य बातों के साथ-साथ एक ओर परिसंघीय या संघ-स्तर पर और दूसरी ओर राज्यों या इकाइयों के स्तर पर राज्यों के विभिन्न अंगों के बीच शक्तियों का निरूपण, परिसीमन और वितरण करता है।

किसी देश के संविधान को इसकी ऐसी आधारविधि भी कहा जा सकता है, जो उसकी राज्य व्यवस्था के मूल सिद्धांत विहित करती है और जिसकी कसौटी पर राज्य की अन्य सभी विधियों तथा कार्यपालक कार्यों को उनकी विधिमान्यता तथा वैधता के लिए कसा जाता है।

प्रत्येक संविधान उसके संस्थापकों तथा निर्माताओं के आदर्शों, सपनों तथा मूल्यों का दर्पण होता है। वह जनता की विशिष्ट सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रकृति, आस्था एवं आकांक्षाओं पर आधारित होता है।

संविधान को एक जड़ दस्तावेज मात्र मान लेना ठीक नहीं होगा क्योंकि संविधान केवल वही नहीं है, जो संविधान के मूलपाठ में लिखित है। संविधान सक्रिय संस्थानों का एक सजीव संघटृ है। यह निरंतर पनपता रहता है, पल्लवित होता रहता है। हर संविधान इसी बात से अर्थ तथा तत्व ग्रहण करता है कि उसे किसी तरह अमल में लाया जा रहा है। बहुत कुछ इस पर निर्भर है कि देश के न्यायालय किस प्रकार उसका निर्वाचन करते हैं तथा उसके अमल में लाने की वास्तविक प्रक्रिया में उसके चारों ओर कैसी परिपाटियां तथा प्रथाएं जन्म लेती हैं।


संवैधानिक विधि


संवैधानिक विधि सामान्यतया संविधान के उपबंधों में समाविष्ट देश की मूलभूत विधि की द्योतक होती है। विशेष रूप से इसका सरोकार राज्य के विभिन्न अंगों के बीच और संघ तथा इकाइयों के बीच शक्तियों के वितरण के ढांचे की बुनियादी विशेषताओं से होता है। किंतु आधुनिक संवैधानिक विधि में, खासतौर पर स्वाधीन प्रतिनिधिक लोकतंत्रों में, मूल मानव अधिकारों और नागरिकों तथा राज्य के परस्पर संबंधों पर सर्वाधिक बल दिया जाता है। इसके अलावा, संवैधानिक विधि के स्रोतों में संविधान का मूल पाठ ही सम्मिलित नहीं होता, इसमें संवैधानिक निर्णयजन्य विधि, परिपाटियां और कतिपय संवैधानिक उपबंधों के अंतर्गत बनाए गए अनेक कानून भी सम्मिलित होते हैं।


संविधानवाद


संविधानवाद एक ऐसी राज्य व्यवस्था की संकल्पना है, जो संविधान के अंतर्गत हो तथा जिसमें सरकार के अधिकार सीमित और विधि के अधीन हों। स्वेच्छाधारी, सत्तावादी अथवा सर्वाधिकारवादी जैसे शासनों के विपरीत, संवैधानिक शासन प्रायः लोकतांत्रिक होता है तथा लिखित संविधान के द्वारा नियमित होता है। लिखित संविधान में राज्य के विभिन्न अंगों की शक्तियों तथा उनके दायित्वों की परिभाषा तथा सीमांकन होता है। लिखित संविधान के अंतर्गत स्थापित सरकार सांकुश सरकार ही हो सकती है। लेकिन, यह भी संभव है कि किन्ही देशों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं-लिखित संविधान तो हों लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था न हो। कहा जा सकता है कि उनके पास संविधान है किंतु वहां पर संविधानवाद नहीं है। ऐसे भी उदाहरण हैं, जैसे ब्रिटेन, जहां लिखित संविधान नहीं किंतु लोकतंत्र और संविधानवाद है।


भारत के संविधान


हमारा वर्तमान संविधान-भारत का प्रथम संविधान जो भारत के लोगों द्वारा बनाया तथा स्वयं को समर्पित किया गया-संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को अंगीकार किया गया था। यह 26 जनवरी, 1950 से पूर्णरूपेण लागू हो गया। संविधान में 22 भाग, 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं। इस समय जो पाठ हमारे सामने है, वह इसका समय-समय पर संशोधित रूप है जिसमें कुछ अनुच्छेद संशोधनों के द्वारा निकाल दिए गए और कुछ के साथ क, ख, ग, आदि करके नए अनुच्छेद जोड़ दिए गए। किंतु, संदर्भ में सुभीते की दृष्टि से, संविधान के भागों और अनुच्छेदों की मूल संख्याओं में परिवर्तन नहीं किया गया। इस समय गणना की दृष्टि से कुल अनुच्छेद (1 से 395 तक) वस्तुतया 445 हो गए हैं। अनुसूचियां 8, से बढ़कर 12 हो गई हैं। पिछले 53 वर्षों में 87 संविधान संशोधन विधेयक पारित हो चुके हैं


संविधान के स्रोत


भारत के संविधान के स्रोत नानाविध तथा अनेक हैं। ये देशी भी हैं तथा विदेशी भी। संविधान निर्माताओं ने इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि वे नितांत स्वतंत्र रूप से या एकदम नए सिरे से संविधान लेखन नहीं कर रहे। उन्होंने जान-बूझकर यह निर्णय लिया था कि अतीत की उपेक्षा न करके पहले से स्थापित ढांचे तथा अनुभव के आधार पर ही संविधान को खड़ा किया जाए। भारत के संविधान का एक समन्वित विकास हुआ। यह विकास कतिपय प्रयासों के पारस्परिक प्रभाव का परिणाम था। स्वाधीनता के लिए छेड़े गए राष्ट्रवादी संघर्ष के दौरान प्रतिनिधिक एवं उत्तरदायी शासन संस्थानों के लिए विभिन्न मांगें उठाई गईं और अंग्रेज शासकों ने झींक-झींककर बड़ी कंजूसी से समय-समय पर थोड़े-थोड़े संवैधानिक सुधार किए। प्रारंभिक अवस्था में यह प्रक्रिया अति अविकिसित रूप में थी, किंतु राजनीतिक संस्थान-निर्माण, विशेष रूप से आधुनिक विधानमंडलों का सूत्रपात 1920 के दशक के अंतिम वर्षों में हो गया था। वास्तव में, संविधान के कुछ उपबंधों के स्रोत तो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी तथा अंग्रेजी राज के शैशव काल में ही खोजे जा सकते हैं।




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