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ग़ज़ल मेरी इबादत है

माणिक वर्मा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7818
आईएसबीएन :978-81-288-2895

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दिलों को सुकून देता माणिक वर्मा जी का ताजा तरीन गजल संग्रह...

Gazal Meri Ibadat Hai - A Hindi Book - by Manik Varma

जिस तरह तारे किसी ठहरी हुई झील को चमकीले बिंबों के आघात से अभिव्यक्ति देते हैं, उसी तरह गजल के शेर भी मन को मन की ठहरी हुई झील में कंकरी फेंक कर उसे बोलने पर विवश करते हैं। जब मन कुछ बोलना चाहे और बोल ना पाये, जब किसी को देखा चाहे और देख ना पाये, किसी की आवाज सुनना चाहे और सुन ना पाये, तब मन की इसी आंतरिक छटपटाहट की अभिव्यक्ति का नाम है गजल। नये जमाने की खूबसूरत शायराना तजुर्बों में रची-बची माणिक वर्मा की ऐसी ही गजलें पुरानी यादों को ताजा करती हैं। जिंदगी के तपते रेगिस्तान का जी हल्का करने के लिए जिस तरह किसी हरित भूमि की तलाश की जाए उसी तरह माणिक वर्मा की यह ताजा तरीन गजल संग्रह दिलों को सुकून देता है।

ग़ज़ल मेरी वंदना


जब सुखन की बात होगी
अपने माणिक की ग़ज़ल
जो भी पत्थर दिल सुनेगा
देवता हो जायेगा

सारी दुनिया से अगर
वो रूठ के जाये तो क्या
ये ग़ज़ल का बागवाँ है
महकता रह जायेगा

उनकी ग़ज़लों के विषय में
मेरा दावा है यही
शेर बहरा भी सुने तो
झूमता रह जायेगा

हमसे माणिक ने कहा
है मेरी वंदना ग़ज़ल
आपका यदि स्वर मिला
वंदन भजन हो जायेगा

–पं. प्रेम किशोर ‘पटाखा’

जब तलक लगती नहीं हैं बोलियाँ मेरे पिता,
तब तलक उठती नहीं हैं डोलियाँ मेरे पिता।

आज भी पगड़ी मिलेगी बेकसों की पाँव में,
ठोकरों में आज भी हैं पसलियाँ मेरे पिता।

बेघरों का आसरा थे जो कभी बरसात में,
उन दरख़्तों पर गिरी हैं बिजलियाँ मेरे पिता

आग से कैसे मचाएँ खूबसूरत ज़िन्दगी,
एक माचिस में कई हैं तीलियाँ मेरे पिता।

जब तलक ज़िंदा रहेगी जाल बुनने की प्रथा,
तब तलक फँसती रहेंगी मछलियाँ मेरे पिता।

जिसका जी चाहे नचायें और एक दिन फूँक दें,
हम नहीं है काठ को वी पुतलियाँ मेरे पिता।

मैंने बचपन में खिलौना तक कभी माँगा नहीं,
मेरा बेटा माँगता है गोलियाँ मेरे पिता।

आपको गुस्से में देखा और फिर देखा गगन,
माँ की आँखों-सी लगी हैं बदलियाँ मेरे पिता।

***

जब भी चिड़ियों को बुलाकर प्यार से दाने दिए,
इस नई तहज़ीब ने इस पर कई ताने दिए।

जिन उजालों ने किया अंधी गुफ़ाओं से रिहा,
बेड़ियाँ पहनाके हमने उनको तकख़ाने दिए।

हमने माँगी थी ज़रा-सी रोशनी घर के लिए,
आपने जलती हुई बस्ती के नज़राने दिए।

हादसे ऐसे भी गुज़रे उनके मेरे दरमियाँ,
लब रहे ख़ामोश और आँखों ने अफ़साने दिए।

ज़िंदगी खुशबू से अब तक इसलिए महरूम है,
हमने जिस्मों को चमन, रूहों को वीराने दिए।

आस्मानों को भी सजदों के लिए झुकना पड़ा,
वो भी क्या सदियाँ थीं, जिनने ऐसे दिवाने दिए।

ज़िंदगी चादर है, धुलके साफ़ हो जायेगी फिर,
इसलिए हमने भी इसमें दाग़ लग जाने दिए।

हाथ में तेज़ाब में फ़ाहे थे मरहम की जगह,
दोस्तों ने कब हमारे ज़ख्म मुरझाने दिए।

ज़िंदगी का ग़म नहीं, ग़म है हमें इस बात का,
उनने मुर्दे भी नहीं, क़ब्रों में दफ़नाने दिए।

***

ऐसा अपनापन भी क्या जो अजनबी महसूस हो,
साथ रहकर भी मुझे तेरी कमी महसूस हो।

आग बस्ती में लगाकर बोलते हैं, यूँ जलो,
दूर से देखे कोई तो रोशनी महसूस हो।

भीड़ के लोगों सुनो, ये हुक्म है दरबार का,
भूख से ऐसे गिरी कि बन्दगी महसूस हो।

नाम था उसका बगावत कातिलों ने इसलिये,
क़त्ल भी ऐसे किया कि खुदकुशी महसूस हो।

शाख़ पर बैठे परिन्दे कह रहे थे कान में,
क्या रिहाई है कि हरदम बेबसी महसूस हो।

फूल मत दे मुझको, लेकिन बोल तो फूलों से बोल,
जिनको सुनकर तितलियाँ-सी ताज़गी महसूस हो।

आप उस ख़ाली जगह पे नाम लिख़ देना मेरा,
जब हरइक राय में किसी राय की कमी महसूस हो।

शर्त मुर्दों से लगाकर काट दी आधी सदी,
अब तो करवट लो कि जिससे ज़िंदगी महसूस हो।

हो अगर जज़्बे अमल की बेकली इंसान में,
सर पे तपती दोपहर भी चाँदनी महसूस हो।

सिर्फ़ इतने पर बदल सकता है दुनिया का निज़ाम,
कोई रोय, आँख में सबकी नमी महसूस हो।

दे रहा हूँ आपको अपना पता मैं इसलिए,
याद कर लेना कभी, मेरी कमी महसूस हो।

***

आपसे किसने कहा स्वर्णिम शिखर बनकर दिखो,
शौक दिखने का है तो फिर नींव के अंदर दिखो।

‘चल पड़ी तो गर्द बनकर आस्मानों पर दिखो,
और अगर बैठो कहीं, तो मील का पत्थर दिखो।

सिर्फ़ दिखने के लिए दिखना कोई दिखना नहीं,
आदमी हो तुम अगर तो आदमी बनकर दिखो।

ज़िंदगी की शक्ल जिसमें टूटकर बिखरे नहीं,
पत्थरों के शहर में वो आईना बनकर दिखो।

आपको महसूस होगी तब हरइक दिल की जलन,
जब किसी धागे-सा जलकर मोम के भीतर दिखो।

एक ज़ुगनू ने कहा मैं भी तुम्हारे साथ हूँ,
वक़्त की इस धुंध में तुम रोशनी बनकर दिखो।

एक मर्यादा बनी है हम सभी के वास्ते,
गर तुम्हें बनना है मोती सीप के अंदर दिखो।

पंछी ! इनसे आ रही है, कातिलों की आहटें,
लड़के इन पूजाघरों से अपनी शाख़ों पर दिखो।

डर न जाए फूल बनने से कोई नाजुक कली,
तुम ना खिलते फूल पर तितली के टूटे पर दिखो।

कोई ऐसी शक्ल तो मुझको दिखे इस भीड़ में,
मैं जिसे देखूँ उसी में तुम मुझे अक्सर दिखो।

ऐशगाहें चाहती हैं सब लुटा चुकने के बाद,
तुम किसी तंदूर में हँसते हुए जलकर दिखो।
 ***

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