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अमृत कण

ओशो

प्रकाशक : ओशो इंटरनेशनल प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7842
आईएसबीएन :9788172611170

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ओशो की देशना के रंग-बिरंगे उपवन से चुने हुए कुछ फूलों का मनोरम गुलदस्ता

Amrit Kan - A Hindi Book - by Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मैं एक गहरे अंधेरे में था, फिर मुझे सूर्य के दर्शन हुए और मैं आलोकित हुआ। मैं एक दुख में था, फिर मुझे आनंद की सुगंध मिली और मैं उससे परिवर्तित हुआ। मैं संताप से भरा था और आज मेरी श्वासों में आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

मैं एक मृत्यु में था—मैं मृत ही था और मुझे जीवन उपलब्ध हुआ और अमृत ने मेरे प्राणों को एक नये संगीत से स्पंदित कर दिया। आज मृत्यु मुझे कहीं भी दिखाई नहीं देती। सब अमृत हो गया है। और सब अनंत जीवन हो गया है।

अब एक ही स्वप्न देखता हूं कि वही आलोक, वही अमृत, वही आनंद आपके जीवन को भी आंदोलित और परिपूरित कर दे, जिसने मुझे परिवर्तित किया है। वह आपको भी नया जन्म और जीवन दे, जिसने मुझे नया कर दिया है।

उस स्वप्न को पूरा करने के लिए ही बोल रहा हूं और आपको बुला रहा हूं। यह बोलना कम, बुलाना ही ज्यादा है।
जो मिला है, वह आपको देना चाहता हूं। सब बांट देना चाहता हूं।
पर बहुत कठिनाई है।

सत्य को दिया नहीं जा सकता, उसे तो स्वयं ही पाना होता है। स्वयं ही सत्य होना होता है। उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। पर मैं अपनी प्यास तो दे सकता हूं, पर मैं पुकार दे सकता हूं। और, वह मैं दूंगा और आशा करूंगा कि वह पुकार आपके भीतर—आपके अंतस में प्यास की एक ज्वाला बन जाएगी और आपको उन दिशाओं में अग्रसर करेगी, जहां आलोक है, जहां आनंद है, जहां अमृत है।

ओशो

अमृत प्रवेश


जीवन छोटे से राजों पर निर्भर होता है।
और बड़े से बड़ा राज यह है कि सोया हुआ आदमी
भटकता चला जाता है चक्कर में,
जागा हुआ आदमी चक्कर के बाहर हो जाता है।
जागने की कोशिश ही धर्म की प्रक्रिया है।
जागने का मार्ग ही योग है।
जागने की विधि का नाम ही ध्यान है।
जागना ही एकमात्र प्रार्थना है।
जागना ही एकमात्र उपासना है।
जो जागते हैं, वे प्रभु के मंदिर को उपलब्ध हो जाते हैं।
क्योंकि पहले वे जागते हैं, तो वृत्तियां, व्यर्थताएं,
कचरा, कूड़ा-करकट चित्त से गिरना शुरू हो जाता है।
धीरे-धीरे चित्त निर्मल हो जाता है जागे हुए आदमी का।
और जब चित्त निर्मल हो जाता है,
तो चित्त दर्पण बन जाता है।
जैसे झील निर्मल हो, तो चांद-तारों की प्रतिछवि बनती है।
और आकाश में भी चांद-तारे उतने सुंदर नहीं मालूम पड़ते,
जितने झील की छाती पर चमक कर मालूम पड़ते हैं।
जब चित्त निर्मल हो जाता है जागे हुए आदमी का,
तो उस चित्त की निर्मलता में परमात्मा की छवि
दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है।
फिर वह निर्मल आदमी कहीं भी जाए–
फूल में भी उसे परमात्मा दिखता है, पत्थर में भी, मनुष्यों में भी,
पक्षियों में भी, पदार्थ में भी–
उसके लिए जीवन परमात्मा हो जाता है।
जीवन की क्रांति का अर्थ है : जागरण की क्रांति।

ओशो

ध्यान इस जगत में
सर्वाधिक बहुमूल्य घटना है।
क्योंकि ध्यान अर्थात मौन।
ध्यान अर्थात निर्विचार।
ध्यान अर्थात एक शून्य
चैतन्य की अवस्था,
जब चैतन्य तो पूरा होता है, लेकिन
चैतन्य के समक्ष
कोई विषय नहीं होता,
कोई विचार नहीं होता।
बस चैतन्य मात्र !
उस चैतन्य की घड़ी में
तुम जानोगे—तुम नहीं हो,
परमात्मा है।

मैं तो परमात्मा की परिभाषा रस ही मानता हूं। रसो वै सः।
और जितने तुम रसमग्न हो जाओ, उतने ही उसके निकट हो जाते हो।
मैं चाहता हूं कि तुम नाचो, गाओ, प्रेम करो !
तुम फूलों, पक्षियों, चांद-तारों की भांति हो जाओ।
तुम्हारी जिंदगी से चिंताएं समाप्त हों।
और यह सब हो सकता है।
कोई कारण नहीं है, इसमें कोई बाधा नहीं है।
यह पहले शायद नहीं भी हो सकता था, लेकिन अब हो सकता है।
क्योंकि विज्ञान ने सब साधन मुक्त कर दिए हैं।

धर्म का अर्थ है : स्वभाव।
और मजहब का अर्थ है :
जो तुम्हारे स्वभाव पर
दूसरों ने आरोपित किया।
हिंदू होना धर्म नहीं;
मुसलमान, जैन, ईसाई, बौद्ध,
ये सब मजहब हैं,
संप्रदाय हैं, संस्कार हैं।
ये छोड़े जा सकते हैं
क्योंकि पकड़े गए हैं।
जो पकड़ा गया है
वह छोड़ा जा सकता है।
धर्म तो तुम्हारी आत्मा का स्वभाव है;
छोड़ना भी चाहो तो छोड़ नहीं सकते।

भीतर एक अंधकार है,
वह बाहर की रोशनी से नहीं मिटता।
सच तो यह है कि बाहर जितनी रोशनी होती है,
उतनी ही भीतर का अंधकार स्पष्ट होता है,
रोशनी के संदर्भ में और भी उभर कर प्रकट होता है।
जैसे रात में तारे दिखाई पड़ने लगते हैं अंधेरे की पृष्ठभूमि में,
दिन में खो जाते हैं। ऐसे जितना ही बाहर प्रकाश होता है,
जितनी भौतिकता बढ़ती है,
उतना ही भीतर का अंधकार स्पष्ट होता है।
जितनी बाहर समृद्धि बढ़ती है,
उतनी ही भीतर की दरिद्रता पता पड़ती है।
जितना बाहर सुख-वैभव के सामान बढ़ते हैं,
उतना ही भीतर का दुख सालता है।
इसलिए मैं एक अनूठी बात कहता हूं
जो तुमसे कभी नहीं कही गई है।
मैं चाहता हूं, पृथ्वी समृद्ध हो, खूब समृद्ध हो।
धन ही धन का अंबार लगे। कोई गरीब न हो। क्यों ?
क्योंकि जितना धन का अंबार लगेगा बाहर,
उतना ही तुम्हें भीतर की निर्धनता का बोध होगा।
जितने तुम्हारे पास वैभव के साधन होंगे,
उतनी ही तुम्हें पीड़ा मालूम होगी कि
भीतर तो सब खाली-खाली है, रिक्त-रिक्त।

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