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श्रंगार - प्रेम >> महात्मा का इंतज़ार

महात्मा का इंतज़ार

आर. के. नारायण

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7855
आईएसबीएन :9788170288817

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आर.के. नारायण की अनोखी शैली में लिखा बेहद रोचक उपन्यास...

Mahatma Ka Intezar - A Hindi Book - by R. K. Narayan

महात्मा गांधी और उनके राष्ट्रीय आंदोलन की कहानी के साथ यह दो युवा दिलों की प्रेम कहानी है। दोनों को अपनी-अपनी मंज़िल की तलाश है। दोनों प्रेमी अपनी चाहत को तब तक दबाए रखते हैं जब तक स्वतंत्रता के लिए चलने वाला संघर्ष पूरा नहीं हो जाता और उन्हें एक-दूसरे को अपनाने के लिए महात्मा गांधी की स्वीकृति नहीं मिल जाती। वर्षों चले इस इंतज़ार में उन्हें किन-किन मुसीबतों और ज़ोखिमों से होकर गुज़रना पड़ता है, इसका बेहद रोमांचक वर्णन करता है यह उपन्यास।

आर.के. नारायण की अनोखी शैली में लिखा यह बेहद रोचक उपन्यास उनके बाकी उपन्यासों से हटकर है।

महात्मा का इंतजार, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में लिखी एक प्रेमकथा है। एक ओर पूरा देश अंग्रेज़ों को भारत से खदेड़ने के लिए कमर कसे है, तो दूसरी ओर युवा क्रांतिकारियों, श्रीराम और भारती के बीच प्रेम परवान चढ़ रहा है। दोनों एक-दूसरे से शिद्दत से प्यार करते हैं, लेकिन उसे तब तक विवाह का रूप नहीं देना चाहते जब तक देश को आज़ाद करवाने का उनका सपना पूरा नहीं हो जाता। महात्मा गांधी उनके आदर्श हैं और अपने रिश्ते को वे उनकी रज़ामंदी से ही आगे बढ़ाना चाहते हैं। आर. के. नारायण के इस उपन्यास में आज़ादी के संघर्ष और श्रीराम-भारती की इसी प्रेमकहानी को बहुत रोचक और मार्मिक तरीके से गूंथा गया है।

आर. के. नारायण भारत के पहले ऐसे लेखक थे जिनके अंग्रेज़ी लेखन को विश्वभर में प्रसिद्धि मिली। काल्पनिक शहर मालगुड़ी के इर्द-गिर्द बुनी उनकी कहानियां अमर हैं। 10 अक्टूबर 1906 को जन्मे नारायण ने पंद्रह उपन्यास, पाँच लघु कथा-संग्रह, यात्रा-वृतांत आदि लिखे हैं। 1960 में उन्हें उनके उपन्यास गाइड के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। मालगुडी की कहानियां, स्वामी और उसके दोस्त, डार्क रूम, मालगुडी का आदमखोर और इंग्लिश टीचर उनकी अन्य जानी-मानी रचनाएँ हैं। 13 मई, 2001 को नारायण की मृत्यु हो गई, लेकिन उनकी रचनाएं पाठकों के दिलों में आज भी ज़िंदा हैं।

 

1

 


श्रीराम के बारे में यह कहा जा सकता है, कि उसकी माँ, जो उसे जन्म देते ही चल बसी थी, और पिता, जो युद्ध के समय मेसोपोटामिया में मारे गए, दोनों उसके लिए कहानी से ज़्यादा नहीं थे। लेकिन माँ के होने का ठोस सबूत यह था कि उसकी एक फोटो दीवार की काफ़ी ऊँचाई पर उसके देखने के लिए लगी थी और जब वह इतना लम्बा हो गया कि आसानी से धुँधली-सी यह तस्वीर देख सके, उसे माँ की सूरत ज़्यादा पसन्द नहीं आई। तो वह सोचने लगा कि घर के सामने छोटी-सी दुकान पर, जहाँ वह दादी से पैसे लेकर पिपरमिंट की गोलियाँ वगैरह खरीदने जाता है, किसी यूरोपियन महारानी जैसी जो तस्वीर टँगी है, उसे के जैसे सेब जैसे लाल-लाल गाल और घुँघराले बाल उसकी माँ के क्यों नहीं हैं ! लेकिन घर में पिता का ज़िक्र ही ज़्यादा किया जाता था। हर महीने की पहली तारीख को डाकिया उसकी दादी के नाम एक भूरा, लम्बा लिफ़ाफ़ा लेकर आता। दादी उसे हाथ में लेकर रोने लगती, और वह सोचने लगता कि इसमें ऐसा क्या है जिसके कारण दादी के आँसू निकलने लगते हैं। कई साल बाद उसे पता चला कि इसमें उसकी देखभाल के लिए पिता की सैनिक पेंशन के पैसे आते हैं। लिफ़ाफ़ा खोलते हुए दादी हमेशा कहती, ‘‘भगवान का शुक्र है कि हमारे पास काफी कुछ है और मुझे ये पैसे तुम्हारे लिए खर्च नहीं करने पड़ते।’’ फिर वह उसे अपने ही मकान की क़तार में आगे चौथे मकान में ले जाती, जिसे ‘फंड ऑफिस’ कहा जाता था–इस नाम का मतलब उसकी समझ में नहीं आता था–और वहां से लौटकर वह हमेशा कहती : ‘‘पैसा कभी हाथ में नहीं टिकता, इसे जमा करो, तभी यह बुढ़ापे में काम आता है।’’

सामने वाली दुकान पर लगी यह तस्वीर उसके मन को बड़ी अच्छी लगती। दुकानदार का नाम था कन्नी, और उकड़ूँ बैठा यह खुश्क, किनकिनाकर बात करने वाला तगड़ा-सा आदमी दिन भर अपने ग्राहकों को सौदा बेचता रहता। रात के ग्यारह बजे तक, जब वह दुकान बन्द करता, किसी-न-किसी से झगड़ता, मोल तोल करता, या उधार माँगने वाले किसी ग्राहक को धमकाता, कि ‘‘तुम मुझे समझते क्या हो ? पैसे के बिना फिर लेने चले आये ? मुझे दबा लोगे क्या ? मैं क्या हूँ, जानते हो ? तुम जैसे दस को मैं एक साथ निगल सकता हूँ, याद रखना, उसकी आवाज सुनाई देती रहती। उसकी सिगरेट, बीड़ी, गोली चटकाकर खोलने वाले सोडा वाटर और कड़क बोलचाल की दुकान में ताज सा पहने, बड़ी काली आँखों और सेब से गालों वाली यह तस्वीर ही अकेली मुलायम चीज़ थी। श्रीराम अक्सर सोचता, ‘ये आँखें मुझे ही देख रही हैं’, और उसी को देखने के लिए वह कुछ-न-कुछ खरीदने के बहाने बार-बार दुकान पर जाता रहता।

एक दफ़ा रंगीन सोडा वाटर की बोतल से चुस्कियाँ लेते हुए उसने पूछा, ‘‘किसकी तस्वीर है यह ?’’
‘‘मुझे क्या पता ?’’ कन्नी ने जवाब दिया। ‘‘किसी रानी की होगी, शायद रानी विक्टोरिया की हो।’’ इसके अलावा वह इसी विश्वास से यह भी कह सकता था कि यह मेरिया थेरेसा या एन बुलीन की तस्वीर है।
‘‘इसके कितने पैसे दिए थे ?’’
कन्नी ने ज़रा चिढ़कर कहा, ‘‘यह सब तुम क्यों पूछ रहे हो ?’’ अगर कोई दूसरा होता तो वह चिल्लाकर कहता, ‘‘और कुछ न लेना हो, तो निकलो यहाँ से। ये दर्जनों सवाल मत पूछो।’’

लेकन श्रीराम की स्थिति विशेष थी। वह काफी खरीदारी करता था, रोज़ अच्छी कमाई कराना, और बैंक में उसका अपना खाता भी था। उसने पूछा, ‘‘यह तस्वीर तुम्हें कहाँ से मिली ?’’
कन्नी भी इस वक्त हल्के मूड में था, बोला, ‘‘उस आदमी को जानते हो, जो पिल्लैया स्ट्रीट पर रेवेन्यू इन्सपेक्टर है। उस पर काफ़ी उधार बाकी था। बहुत इन्तज़ार कर लिया तो एक दिन मैं उसके यहां गया और यह तस्वीर दीवार से उतार लाया। सोचा, यही सही।’’

श्रीराम ने हिचकते हुए पूछा, ‘‘अगर इसे बेचना चाहो तो बताओ, क्या लोगे ?’’
‘‘अच्छा, अरे...’’, कन्नी यह सुनकर हँसने लगा। उसका मूड काफ़ी अच्छा था। बोला, ‘‘अरे, छोटे ज़मीदार, मुझे पता है, तुम चाहों तो महारानी को ही खरीद सकते हो। लेकिन इसे मैं नहीं बेचूँगा। यह मेरे लिए भाग्यवान साबित हुई है। जब से इसे यहाँ टाँगा है, बिक्री दस गुनी बढ़ गई है।’’
एक शाम दादी उससे पूछने लगी, ‘‘मालूम है, कल कौन-सा ग्रह निकलेगा ?’’

‘‘नहीं मालूम। मुझे कैसे मालूम हो सकता है ?’’ यह कहकर वह खिड़की की ठंडी ज़मीन पर आराम से बैठ गया और सड़क की तरफ़ देखने लगा। जबसे उसे याद पड़ता है, वह सवेरे से रात तक यहीं बैठा रहता था। जब वह सालभर का था, तभी से उसकी दादी उसे यहाँ बिठा देती और सड़क पर क्या हो रहा है, यह सब दिखाती रहती थी। बैलगाड़ियाँ, घोड़ागाडी और उस ज़माने की पहली मोटरगाड़ियाँ जो पों-पों करती, धड़धड़ाती सामने से गुज़रती रहती। वह जब तक यह सब देख न लेता, खाने को तैयार ही नहीं होता था। दादी चम्मच में दही-चावल भरकर उसके होठों तक ले जाती और कहती, ‘‘देखो, कैसी बढ़िया मोटर चली जा रही है ! हमारा राम भी इसकी सवारी करेगा !’’ और जब वह अपना नाम सुनकर कुछ कहने के लिए मुँह खोलकर, तो दादी उसमें भात डाल देती। खिड़की से बाहर देखते रहना उसकी आदत बन गई थी और अब भी कभी-कभी किताब हाथ में लिए ही अक्सर वह यहाँ बैठा बाहर देखता रहता। दादी अक्सर उसे इसके लिए झिड़कती भी रहती। आज उसने पूछा, ‘‘तुम बाहर अपनी उम्र वालों के साथ क्यों नहीं रहते ?’’

‘‘मैं जहाँ हूँ, वहीं खुश हूँ,’’ उसने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।
दादी ने सख्ती से कहा, ‘बाहर जाओगे तो कुछ और देखोगे और सीखोगे। जानते हो, तुम्हारा पापा जब इतना बड़ा था तब जंत्री ऊपर से नीचे तक पढ़ लेता और बता देता था कि किस दिन का स्वामी कौन-सा ग्रह है।’’
श्रीराम ने हिम्मत करके कहा, ‘‘पापा बहुत बुद्धिमान रहे होंगे।’’
‘‘होंगे नहीं, थे। रहे होंगे क्या होता है’’, दादी ने ज़ोर देकर कहा और तुम्हारे बाबा, मालूम है, कितने होशियार थे ! कहते हैं, पोता बाबा का अवतार होता है। तुम्हारी नाक और भौंहें दोनों बिलकुल उन्हीं जैसी हैं। उनकी उँगलियाँ भी तुम्हारी ही तरह लम्बी थीं। लेकिन इससे ज़्यादा और कुछ उन जैसा नहीं है। मैं अक्सर सोचती हूँ कि तुम्हारा यह सब उन जैसा न होकर सिर्फ़ दिमाग़ ही उन जैसा होता !’’

श्रीराम कहने लगा, ‘‘दादी, तुम उनकी कोई तस्वीर रखती तो मैं दिन-रात उसकी पूजा करके उन जैसा बनने की कोशिश करता।’’
दादी यह सुनकर खुश हो गई और कहने लगी, ‘‘मैं तुम्हें सिखाऊँगी कि उन जैसे कैसे बन सकते हो।’’ फिर वह उसका हाथ पकड़कर बड़े कमरे के बीच में खींच ले गई जहाँ लैंप जल रहा था। इसके बाद उसने बादामी कागज़ से मढ़ी जंत्री निकाली, जो ढलवाँ छत की एक टाइल के नीचे रखी थी। फिर ज़मीन पर बैठकर उसने अपने चश्मे की खोज शुरू की और उसे लगाकर जंत्री के पन्ने खोले। एक विशेष पन्ने के ऊपर उसने श्रीराम का चेहरा नीचे तक झुकाया। पन्ने पर तरह-तरह के चिह्न अंकित थे और उनके साथ कुछ छपा भी था।

श्रीराम पूछने लगा, ‘‘दादी माँ तुम कर क्या रही हो ?’’ उसने एक अक्षर पर उँगली रखी और पूछा, ‘‘पढ़ो, यह क्या लिखा है ?’’
‘‘स...’’, उसने पढ़ा।

‘‘इसका मतलब हुआ सदस्य। यही तुम्हारा ग्रह है।’’ फिर अक्षर की लाइन पर उँगली फिराकर अगले दिन की तारीख पढ़ी। बोली, ‘‘कल यह तारीख है। यह तुम्हारी जन्म राशि है। कल तुम्हारा बीसवाँ जन्मदिन होगा, हालाँकि तुम्हारा व्यवहार उससे आधी उम्र के लड़के जैसा है। मैं तुम्हारा जन्मदिन मनाऊँगी। अच्छा बताओ, किसी दोस्त को बुलाना चाहोगे ?’’
‘‘नहीं, हरगिज़ नहीं,’’ उसने एकदम मना कर दिया।

दूसरे दिन उसने अकेले ही अपना जन्मदिन मनाया। दादी ही उसके साथ रही। बाहर का कोई भी व्यक्ति यह अंदाज़ नहीं लगा सकता था कि कबीर स्ट्रीट के 14 नम्बर वाले इस घर में कितना महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम हो रहा है। यह घर दो सौ साल पुराना था और लगता भी वैसा ही था। यह सड़क का आखिरी घर था, परन्तु जब इसे दादा ने बनवाया था, तब वे इसे पहला घर कहते थे। यहाँ से मार्केट की इमारतों का पिछवाड़ा दिखाई देता था और रात-दिन दूसरी तरफ चलनेवाली भीड़ का ज़बरदस्त शोर शराबा सुनाई देता रहता था। श्रीराम के घर के बगल वाले घर में एक छोटा-सा प्रिंटिंग प्रेस लगा था, जिसकी मशीन पूरे दिन धड़धड़ाती रहती थी। इसके बाद वाला घर भी दो सौ साल पुराना था, जिसमें हर वक्त हल्ला-गुल्ला करनेवाले छह परिवार रहते थे। इसके बाद वाले घर में फंड ऑफ़िस था जिसमें दादी श्रीराम का पैसा जमा करती थी। इन घरों के सामने एक टेढ़ी-मेढ़ी गली थी; इसके एकदम पास मार्केट था, हायर एलीमेन्टरी टाउन स्कूल था, लोकल फंड डिस्पेंसरी थी, और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि मार्केट के फव्वारे के चारों तरफ आधा दर्जन बेंचे पड़ी थीं—इन सबसे कबीर स्ट्रीट में इन घरों का मूल्य काफ़ी बढ़ गया था।

घर सारे एक जैसे ही थे—हरेक में एक बड़ी ढलवाँ छत, लकड़ी के पतले खंभों पर खड़ी जिन पर बारीक कारीगरी की गई थी और ताँबे के झुनझुने लटके थे—खिड़कियों के नीचे सामने की तरफ प्योल, ईंटों का खुला चबूतरा जिस पर लोग गर्मियों के दिनों में सोते भी थे। दीवारें दो फुट मोटी थीं, दरवाज़े सौ साल पुरानी टीक की लकड़ी के बने थे, जिनपर ताँबे के हत्थे लगे थे, आग में तपाई हुई मिट्टी की बनी टायलें जो सदियों तक हवा-पानी झेलने योग्य मज़बूत थीं। सभी घर एक जैसे थे, पतले-पतले खंभों पर खड़ी टायल की छतों को आप एक-दूसरे से मिली शुरू से आख़िर तक देख सकते थे—जैसे सब मिलाकर ये एक ही बहुत लम्बा, बड़ा घर हो, दो सदियों पहले जब इन्हें बनाया गया था, उस समय से अब तक इनमें काफ़ी कुछ परिवर्तन भी हो चुके थे। कई घरों के मालिक बदल गए थे, असली मालिक को मुकदमेबाज़ी के कारण अपने अधिकार छोड़ने पड़े थे; कुछ किराये पर उठा दिए गए थे, जैसे प्रेस, मक्खन फैक्ट्ररी या फंड ऑफिस और उनके मालिकों ने भीड़भाड़ का यह इलाका छोड़कर शान्त माहौल में बसे लॉली एक्सटेंशन में अपने लिए आधुनिक घर बनवा लिए थे। लेकिन कुछ घर और उनके रहने वाले पहले के ही थे, इन्हीं में 14 नम्बर वाला घर भी था। यहाँ सदियों पहले परिवार की परम्परा शुरू हुई थी, लेकिन अब दो ही सदस्य—श्रीराम और उसकी दादी—इसमें रह गए थे।

दादी ने कहीं से एक गज़ भर लम्बा गन्ने का टुकड़ा, उसका मौसम न होते हुए भी, पूजा के लिए प्राप्त कर लिया था। उसने कहा, ‘‘जन्मदिन मनाने के लिए घर में गन्ना होना बहुत ज़रूरी है; इसे शुभ माना जाता है। उसने दरवाज़े पर आम के पत्ते लटकाये और उसके सामने चावल से अल्पना बनाई। सामने से गुज़र रहे एक पड़ोसी ने पूछा, ‘‘आज क्या कोई पूजा है ? तो हम अपने घर का चूल्हा बुझा दें और यहाँ दावत खाने आ जाएं ?’’

‘‘हाँ, हाँ क्यों नहीं, ज़रूर आइए’’, दादी ने नम्रतापूर्वक कहा, और जैसे निमन्त्रण को रद्द करने के उद्देश्य से तुरन्त यह भी जोड़ा, ‘‘आपका तो हमेशा स्वागत है।’’ उसे दरअसल अच्छा नहीं लग रहा था कि किसी को भी न्यौता नहीं दिया गया था, लेकिन, क्या करती, उसके साधु समान पोते ने इसके लिए सख्ती से मना कर रखा था। उसका बस चलता तो वह बाजे-गाजे का इन्तज़ाम करती और जुलूस भी निकलवाती, क्योंकि वह बहुत दिनों से इसके बारे में सोच रही थी–कि बीसवीं सालगिरह पर वह अपने पोते को उसकी बैंक पासबुक सौंप देगी और अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाएगी।

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