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उपन्यास >> लता और वृक्ष

लता और वृक्ष

क्रांति त्रिवेदी

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7899
आईएसबीएन :81-88267-98-8

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मानवीय संबंधों में भी छल-प्रपंच, एक ओर धन के प्रति व्यक्ति का पागलपन, तो दूसरी ओर सर्वस्व समर्पण, नारी की इच्छाशक्ति, समाज की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं को रेखांकित करता एक रोमांचक एवं पठनीय उपन्यास।

Lata Aur Vriksh - A Hindi Book - by Kranti Trivedi

‘‘कहो न मिनी, इसका क्या अर्थ है ?’’
‘‘मन तौ शुदम का अर्थ होता है—मैं तेरा हो गया।’’
शब्द और अर्थ पर वार्त्तालाप होते देख इंदरानी खिसक ली, नहीं तो देखती अपार प्रेम भरा आलिंगन कैसे हुआ करता है।
सुखबीर ने बहुत ही कोमलता से पूछा, ‘‘इसके आगे भी कुछ होगा, मिनी ? आज इसी क्षण सुनने का मन हो रहा है।’’
संसार की सबसे सुखी नारी के स्वर में मिनी ने कहना आरंभ किया—‘‘फारसी का यह पूरा छंद है—

मन तो शुदम, तौ मन शुदी।
मन तम शुदी, तौ जाँ शुदी।
ता कथाम गीयंद वाद अजी।
मन दीगरम व तौ दीगरी।’’

‘‘अब अर्थ भी बता दो, यह तुमने कहाँ पढ़ा था ?’’
‘‘मरियम अम्मा की नोट-बुक में था। मुझे अच्छा लगा तो रट लिया। इसका अर्थ है—
मैं तेरा हो गया, तू मेरा हो गया।
मैं शरीर बन गया, तू प्राण बन गया।
कभी कोई यह कह न सके मैं और तू और तू और मैं हैं।’’

—इसी उपन्यास से

मानवीय संबंधों में भी छल-प्रपंच, एक ओर धन के प्रति व्यक्ति का पागलपन, तो दूसरी ओर सर्वस्व समर्पण, नारी की इच्छाशक्ति, समाज की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं को रेखांकित करता एक रोमांचक एवं पठनीय उपन्यास।

लता और वृक्ष


कितने ही वर्षों से आस-पास के सभी लोगों से वह यह शब्द सुनती रही थी—‘‘आपको यह सब लिखकर, इसे स्थायी बना देना चाहिए।’’
किंतु उन्होंने स्वयं को इस योग्य नहीं माना था कि लेखनी उठाकर कुछ ऐसा लिखें, जो पुस्तक का आकार ले सके। पुस्तकों के लिए उनके मन में बहुत आदर था, क्योंकि वह जानती थीं कि पुस्तकें क्या-क्या बन सकती हैं।

मरियम अम्मा के साथ वाले उन दिनों में कभी-कभी वह किसी पुस्तक को उठाकर माथे से लगाती, उसे गुरु के स्थान पर बैठा देती और बहुत कुछ पथप्रदर्शन पा लेती। कभी हृदय से लगाए अंतरंग सहेली-सा स्थान देकर कुछ उसकी सुनती तो कुछ अपनी कहती। विपन्नता के उन दिनों में पंजाब प्रदेश की हड्डियों को कँपा देने वाली सर्द में जब उसे अपनी पुरानी सी रजाई में नींद नहीं आती तो पुस्तक उसके लिए दूसरी रजाई बन जाती थी, और जब कम खाने के कारण भूख उसे परेशान करने लगती तो वह अपनी कोई प्रिय पुस्तक उठा लाती और उससे कहती—अब तुम ही कृष्ण कन्हैया बनकर इस भूख के राक्षस को मारो। कृष्ण कन्हैया से उसका परिचय मरियम अम्मा ने ही कराया था।

किसी-किसी पुस्तक से वह वार्तालाप कर मन हलका कर लेती थी। इसीलिए वह सोच नहीं पाती थी कि उसके वे उँगलियाँ, जिन्होंने जीवन-पर्यंत अन्य सभी प्रकार के परिश्रम किए हैं, वह ऐसी वस्तु की रचना भी कर सकती हीं। किंतु अनेक का आग्रह था।

अमृतसर की लॉरेंस रोड से जो गली अंदर आर्यनगर की ओर जाती थी, उसमें पहले मंदिर पड़ता था, फिर और भी आगे जाने पर यह मकान था, और इसके बाद कुछ नहीं था। कुछ खाली जमीन थी और उसके बाद सरकारी जेल की ऊँची दीवार थी। मिनी को वह घर संसार का सबसे सुरक्षित स्थान लगता था।

मिनी की सबसे प्रथम-स्मृतियों में मरियम अम्मा और उनके अनाथालय की बच्चियाँ थीं। यह संख्या घटती-बढ़ती रहती थी; किंतु खुशी उसमें जुड़ती रही थी, घटी नहीं थी; क्योंकि वह मरियम अम्मा द्वारा घटाई नहीं जा सकी थी। उनके प्रयत्नों के बाद भी नहीं घटाई जा सकी थी; क्योंकि बच्चियों में सबसे बड़ी मिनी को लेने जिसे आना था, वह नहीं आए थे, न उनकी कोई खबर आई थी। बहुत पूछने पर उन्होंने नाम-पता भी नहीं बताया था।

उसी सुदूर बचपन के दिनों में एक शाम को अनायास पानी बरसने लगा। एकाएक जाने कहाँ से बादल आए। गर्जन कर अपने आने की घोषणा की और फिर मानो वर्षा के मौसम का सारा बचा हुआ पानी इसी शहर पर उड़ेल दिया।

मिनी की सारी रात जागते बीती थी। जब ऐसा मूसलाधार पानी बरसता है तो कई वर्षों से मिनी को ऐसा ही करना पड़ता है।

इसके पहली रात वह पूरा काम नहीं कर पाई थी। बच्चों को मरियम अम्मा के कमरे में ही इकट्ठा कर लिया था, और फिर मरियम अम्मा के पैताने बैठकर उनके पैर दबाने लगी थी। वह जानती थी, यदि दस मिनट भी न दबाएगी तो अम्मा कराहकर दयनीय स्वर में कहेंगी—

‘‘थोड़ी देर और दबा दो बच्ची, बड़ी ऐंठन हो रही है। छाती में भी ऐंठन है, पर वहाँ तो तुम कुछ नहीं कर सकतीं।’’
वह रुक-रुककर इतना बोल गई थीं। उनके हर शब्द के साथ मिनी को पता चल रहा था कि उन्हें बोलने में कितना कष्ट हो रहा है। साँसें ऐसे चल रही थीं मानों किसी सुखी लकड़ी पर आरी चल रही हो।

मरियम अम्मा, सूखी लकड़ी ही तो थीं। पाँच और अस्सी वर्ष की आयु थी उनकी।
मिनी पैर दबाते हुए दुःखी होकर सोच रही थी—

‘‘क्या हुआ जो पचासी वर्ष की आयु थी उनकी। दो दिन पहले तक कितना काम कर लेती थीं। चलती-फिरती नहीं थीं, तो बैठे-बैठे ही सारा काम व्यवस्थित कर देती थीं, और काम करने में ऐसी थकावट नहीं होती थी—अब कल की बरसात की बात ही लो। किसी-न-किसी तरह उन्हें पहले ही पता चल जाता कि अब पानी बरसने वाला है और वह सारी टपकने वाली जगहों पर बालटी, तसले रखवा देतीं, कम-से-कम यह बच्चे तो नहीं भीगे होते और वह स्वयं भी न ऐसी भीगी होती कि बुखार इतना बढ़ जाए। अब वह करे तो क्या करे ! सुबह होगी तो डॉ. रेनॉल्ड के पास जाएगी। इस गाँव में मरियम अम्मा के एक वही परिचित बचे हैं।

मिनी ने अपनी काली-काली आँखें घुमाकर चारों ओर देखा। एक कोने में वह भीगी बच्चियाँ सिकुड़ी पड़ी थीं और एक ओर मरियम अम्मा का पलंग था। कमरे की शेष जगह पर तरह-तरह के बरतन रखे थे, जिनमें अब तक बूँदें गिर रही थीं। मरियम अम्मा कराहीं तो मिनी का ध्यान फिर उधर ही चला गया।

दो दिन पहले तक तो वह चाबी से चलनेवाली गुड़िया की तरह चल-फिर रही थीं। गुड़िया केवल उपमा के लिए एक शब्द था, मिनी को याद नहीं आता था कि उसने कभी गुड़िया से खेला हो। बचपन से ही मरियम अम्मा उसे या तो पढ़ाती रहतीं या छोटे-मोटे काम करवातीं। स्कूल की तरह की पढ़ाई नहीं थी उसकी। अम्मा ने पहले उर्दू सिखाई, जब वह उसे अच्छी तरह पढ़ने-लिखने लगी तो अंग्रेजी सिखाई, उसके साथ थोड़ा सा गणित भी सिखाती रहीं। इन सबको जब अच्छी तरह सीख लिया तो उन्होंने एक नई भाषा सिखाना शुरू कर दिया। मिनी तब तक प्रश्न पूछने लगी थी—अम्मा, मैं दो तरह से लिख-पढ़ लेती हूँ, फिर अब यह क्यों ?

पढ़ाते समय अम्मा न कभी नाराज होती थीं, न धीरज खोती थीं। उनका शरीर सूख-सा गया था। हड्डी और चमड़ी के बीच बहुत थोड़ा मांस रहा होगा, किंतु चेहरा सदैव खिला रहा था। पढ़ते-पढ़ते मरियम की दृष्टि मिशन के सामने लगे उस पुराने पेड़ की ओर चली जाती, जिसका तना मरियम अम्मा के शरीर जैसा ही था—किंतु हवा में हिलती उसकी पत्तियों को देखकर यही लगता था, मानो उनमें से प्रसन्नता झर रही है। अंतरात्मा की जाने किस परत से यह प्रसन्नता निकलती रहती थी। बिलकुल ऐसा ही मरियम अम्मा का चेहरा होता था, जब वह पुरानी बातें याद करने लगतीं।

‘‘इस पेड़ की और मेरी एक ही उम्र है।’’ इसने भी वही चहल-पहल देखी है जो मैंने देखी थी। जब मैं स्पेन से चलने लगी थी, तो अन्य सब मिशनरियों ने मुझे बधाई दी थी—

‘‘मरियम, तुम ठंडे प्रदेश में रहोगी। सुना है वहाँ बड़ी हरियाली है, और सर्दियों में जब यहाँ पेड़-पौधे बर्फ से ढक जाते हैं तब वहाँ बसंत के फूल खिलते हैं।’’
‘‘लेकिन मैं फूलों के लिए तो नहीं जा रही, मेरा ध्येय सेवा है।’’

जोसेफीन ने कहा, ‘‘सिस्टर, वहाँ के लोग भी सुंदर होते हैं, और बड़े जिंदादिल भी। त्योहारों पर खूब नाच-गाना होता है।’’
‘‘क्या वहाँ गरीबी नहीं है, न अशिक्षा ?’’
‘‘कुछ-न-कुछ तो होगा, जो वहाँ मिशन स्थापित किया जा रहा है।’’

इसके आगे की कथा उन्होंने यू बताई थी—चलने के पहले मरियम को बता दिया गया था कि उस प्रदेश में अभी तक कोई मिशन नहीं है। मरियम को जाकर देखना होगा कि वहाँ ईसाई धर्म का किस तरह प्रचार-प्रसार कर सकती है। लोगों का मन जीतने के लिए सेवा से ही आरंभ करना चाहिए, वैसे भी प्रभु ईसा ने सेवा को बहुत महत्त्व दिया है।

शेरकोट आने पर मरियम को सबसे पहले चकित किया था इसी इमारत ने, जिसकी छत से अब जगह-जगह से पानी टपक रहा है।
मिशन ने ऐसी इमारत क्यों ली ? यह तो छोटा-मोटा किला है। एक टीले के ऊपर मकान बना था दो हिस्सों में। दोनों में एक कमरा सामने और तीन पीछे। इन कमरों के पीछे कुछ दूरी पर कुछ कोठरियाँ थीं, जो अवश्य सेवक-सेविकाओं के लिए बनी होंगी।

मरियम से कहा गया था। मकान के पीछे एक आदमी अपने परिवार सहित रहता है। जब मकान खरीदा गया तो उसने कहा कि वह मिशन में चौकीदारी का काम कर लेगा और उसकी पत्नी आने वाली मेम साहब का काम कर देगी। सामान तो ताँगेवाले से रखवा लिया था। मरियम की आँखें उन दोनों को खोज रही थीं, जो इस भूतहे से दिखने वाले घर को मनुष्यों के आवास का प्रमाण-पत्र देने के लिए थे।

कठिनाइयों से जूझने, कष्ट से न कतराने का व्रत लेकर अगर वह यहाँ न आई होती तो इस समय घबराई और पसीने से भीगी होती। मरियम पचास पार कर चुकी थी। जिस मिशन हाउस से वह आई थी, वह पूर्व स्थापित था तथा वहाँ सारी सामान्य सुविधाएँ भी उपलब्ध थीं।

उस मकान के बीच खड़ी वह सोच रही थी—‘‘यहाँ तो उन्हें किसी युवा मिशनरी को भेजना चाहिए था, किंतु फिर उसे वह सब कारण याद आ गए, जिनसे परिचित कराकर उसे यहाँ भेज दिया गया था।’’

हर क्षेत्र के निवासी कुछ अधिक हिंसक प्रवृत्ति के तो थे ही, उनमें नैतिकता भी काफी कम थी। युवा मिशनरी यदि पुरुष होता तो वह उसकी ओर सदैव संशय भरी निगाहों से देखते थे और यदि स्त्री होती तो उसकी ओर लोलुपता से। उस समय कोई भी प्रौढ़ मिशनरी सुलभ न था। इसके अतिरिक्त इस मिशन को जो रुपया दिया जाने वाला था, उसमें कोई अनुभवी व्यक्ति ही काम चला सकता था।

उस मकान के आँगन में खड़े होकर मरियम ने सोचा—इन कारणों के बावजूद भी किसी युवा का यहाँ आना ही उचित होता।

पहले जिस मकान में मिशन चलता था, वह किराए का था और मकान मालिक से सदैव झगड़ा रहता था। अंत में मिशनरी के प्राणों पर संकट आने की संभावना हुई तो उसे वापस बुला लिया गया और मकान छोड़ दिया गया। अब ऐसी संकटपूर्ण जगह में एक स्त्री को भेज दिया, वह भी पचास पार किए हुई थी। इस क्षेत्र में अवैध बच्चों की सबसे बड़ी समस्या थी। स्त्रियाँ परदे में रहती थीं, इसलिए गर्भावस्था तो किसी तरह पार हो जाती थी, प्रसूति भी मायके में हो जाती, लेकिन फिर बच्चा कहाँ रखा जाए ! लड़का होता तो उसे किसी तरह पाल लिया जाता, किंतु लड़कियों को गला दबा मारकर फेंक दिया जाता था। विगत में आए मिशनरियों ने यह सूचना दी थी, अतः इस बार का मिशन लगभग एक नया मिशन था और मरियम को एक नया कार्य करना था। उसे इन नवजात कन्याओं को बचाना था। उन्हें क्रिश्चियन बनाना और विधिवत् पढ़ाना-लिखाना था। इस इमारत में एक छोटा सा अनाथालय चलाना, स्कूल चलाना और बच्चियों को पालना था। इस इमारत में एक हॉलनुमा कमरा था, इसलिए ही इस इमारत को पसंद किया गया था। इसके अतिरिक्त यह ऊँचाई में होने के कारण सुरक्षित थी।

मरियम में एक विशेषता और थी, जिसके कारण उसका चयन किया गया था। उसने मिडवाईफ अर्थात् दाई का प्रशिक्षण लिया हुआ था। शेरकोट आने के पहले उसे प्रथमिक चिकित्सा, इंजेक्शन लगाने और ऑक्सीजन देने का प्रशिक्षण भी दे दिया गया था।

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