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मोहन चोपड़ा की श्रेष्ठ कहानियाँ

सुनील चोपड़ा (संपादक)

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7916
आईएसबीएन :978-93-80146-88

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हैडमास्टर कहने लगा, ‘‘हमारी तरह के इन प्राइवेट स्कूलों में कोई हमेशा पक्का नहीं होता। मेरी अपनी बात ले लो, आज मैं इस पोज़ीशन में हूँ, न मालूम कल मैनेजिंग कमेटी में कैसी हवा चले और मैं बाहर कर दिया जाऊँ।’’

Mohan Chopra Ki Shreshth Kahaniyan - A Hindi Book - by Sunil Chopra

मोहन चोपड़ा का कथा-संसार मध्यवर्गीय सामाजिक जीवन की विडंबनाओं, अंतर्विरोधों और मूल्यों के विघटन के इस दौर में एक व्यक्ति के अंतःसंघर्ष की गांठें खोलता है। पूँजावादी संस्कृति और बाज़ार के दबावों के बीच मनुष्य के लगातार एक उपभोक्ता में बदलते चले जाने तथा भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरित होने की पृष्ठभूमि से उपजी हताशा, मोहभंग, अनास्था और अकेलेपन के बीच कहानीकार संबंधों के सत्त्व और मानवीय ऊष्मा की गहन खोज में प्रवृत्त है तथा वह हमें उम्मीद की टिमटिमाती रोशनियों को सहेजने के लिए प्रेरित भी करता है।

मोहन चोपड़ा की कहानियों में मध्यवर्ग अपनी तमाम विविधताओं के साथ उपस्थित होता है। मध्यवर्ग की उस दोहरी एवं टुच्ची मानसिकता को उन्होंने अपनी कहानियों में लक्षित किया है, जहाँ आर्थिक अथवा सामाजिक स्तर पर बदलाव आते हैं इस वर्ग के लोगों के आचरण में भी बदलाव आ जाता है और वे पुरानी केंचुलें उतारकर नई केंचुलें धारण कर लेते हैं। मध्यवर्गीय जीवन की विडंबनाओं को जीने का लेखक का अपना अनुभव ही अनुभूति के स्तर पर उनकी कहानियों में प्रवाहित है, और इसीलिए वे इतनी प्रामाणिक लगती हैं।

उनकी कहानियों का यह संचनय उनकी विविधरंगी-बहुआयामी सर्जनात्मकता से परिचय कराने का एक प्रयास है।

अनुक्रम


  • बड़ा साहब
  • लैंड स्लाइड
  • धुंध में एक आदमी
  • देव अंकल
  • छाता
  • बगीचे की मालकिन
  • क्लब में एक शाम
  • तीन बहनें
  • पुराने साथी
  • खामोश आदमी
  • सूट
  • चुनाव
  • एक क्षण आयाम
  • हत्यारा

  • बड़ा साहब


    उस रोज़ सारे स्कूल में इस बात की चर्चा थी कि डिवीज़न के बड़े साहब नई लाइब्रेरी का उद्घाटन करने के लिए तशरीफ ला रहे हैं। विशेष रूप से हैडमास्टर खड़बंदा इस खबर से बहुत ही खुश-खुश दिखाई दे रहा था और प्रार्थना के वक्त जब सभी विद्यार्थी और अध्यापक हॉल में इकट्ठे हुए तो उसने यह घोषणा भी की कि उद्घाटन के बाद देसी घी के लड्डू भी बाँटे जाएँगे।

    स्टाफ रूम में बैठे हुए कई एक अध्यापकों के बीच चेमेगोइयाँ हो रही थीं। ‘अंधेरगर्दी है यह,’’ मास्टर रामचंद कह रहा था, ‘‘कि हम अफसरों और लीडरों को इस तरह के कामों के लिए बुलाएँ। ये स्कूल-कॉलेज उन लोगों के मोहताज नहीं हैं। क्यों नहीं विद्वानों, शायरों, यूनिवर्सिटी प्रोफेसरों और साहित्यकारों को बुलाया जाता ?’’ दो क्षण रुककर वह कहने लगा, ‘‘मैं कहता हूँ, अंधेरगर्दी है यह कि ये जो बड़े-बड़े लीडर और अफसर लोग हैं, वे सभी जगह घुसते चले आ रहे हैं....क्या आर्ट, क्या एजूकेशन और क्या कल्चर !’’

    कँवर ने प्रत्युत्तर में कहा, ‘‘अगर ये लोग न बुलाए जाएँ तो स्कूल-कॉलेजों को ग्रांट कौन देगा ? पिछली बार हमारे स्कूल में जो एक डिप्टी मिनिस्टर आया था, उसके स्वागत में स्कूल ने पाँच सौ रुपए खर्च करके बहुत ही शानदार प्रोग्राम किया। इससे वह इतना खुश हुआ...इतना खुश हुआ कि बीस हज़ार की ग्रांट स्कूल के नाम करवा दी। शायर बेचारे तो भूखे मरते हैं, वे हमारे क्या काम कर सकते हैं ?’’

    एक तीसरा अध्यापक, जिसका नाम परमानंद था, कहने लगा, ‘‘मैं आप भाइयों को पहले भी बता चुका हूँ कि मैंने भी आई० ए० एस० का इम्तहान दिया था। अगर मेरा हिस्टरी का पेपर ठीक हो जाता तो मैं भी आज एक बहुत बड़ा अफसर होता। तब मुझे भी स्कूल वालों ने बुलाया होता और आप लोग मुझसे इंट्रोडक्शन करने के लिए एक लाइन में खड़े कर दिए जाते। तब आप झुक-झुककर मुझे नमस्ते करते और यह क्षण आपकी ज़िंदगी में एक महत्त्वपूर्ण क्षण बन जाता। घर आकर आप अपनी पत्नियों को कहते–सुनती हो अशोक या पुष्पा या कुक्कू की माँ, बड़े साहब ने मुझे हाउ डू यू डू कहा है।’’

    राधेलाल, जो अब तक खामोश बैठा था, एकाएक बोल पड़ा, ‘‘यह जो बड़ा साहब आ रहा है, मेरा क्लासफैलो रह चुका है और दोस्त भी।’’
    जिन्होंने यह सुना, वे इस तरह स्तम्भित-से रह गए जैसे धमाका हुआ हो। जब चंद क्षणों बाद उनकी मुद्राएँ कुछ-कुछ स्वाभाविक-सी होने लगी तो एक ने व्यंग्य से अपने होंठ काटकर पूछा, ‘‘क्या कहा, तुम्हारा दोस्त ?’’
    ज़रा भी न बौखलाए हुए राधेलाल ने उत्तर दिया, ‘‘बेशक ! हम पहली जमात से लेकर चौदहवीं तक साथ-साथ पढ़े हैं।’’

    उसके साथी तब भी उसे संदेहपूर्ण नज़रों से घूर-घूरकर देख रहे थे। राधेलाल को यह देख अंतर्खीज-सी होने लगी। अपने कथन की सच्चाई में वह कुछ और कहने के लिए उद्यत हुआ, ‘‘आपको तब तक यकीन नहीं आ सकता जब तक वह यहाँ आ नहीं जाता। मेरा खयाल है...खयाल ही नहीं, यकीन है कि वह देखते ही मुझे अपनी बाँहों में भर लेगा और तब आप लोग मारे अचरज के पसीना-पसीना हो जाएँगे। यह सच है कि पिछले पंद्रह सालों से हमने एक-दूसरे को नहीं देखा, लेकिन पंद्रह सालों का अरसा इतना लंबा अरसा नहीं होता कि पुराने दोस्त एक-दूसरे को पहचान ही न सकें। जहाँ तक मेरी बात है, इस अरसे में मेरी शक्ल-सूरत में बहुत कम परिवर्तन हुआ है। मैं ही क्या, आप भी तो यही बात पूरे विश्वास के साथ अपने बारे में कह सकते हैं, क्योंकि हमने जो प्रोफेशन अपनाया है, इसकी बदौलत हम बहुत लंबे अर्से तक जवान रह सकते हैं। सुबह से लेकर शाम तक हम नौजवानों के साथ ही तो रहते हैं।’’

    कँवर ने उसे टोक दिया, ‘‘राधेलाल, तुम बहक रहे हो या शायद हमें खुश करने के लिए यह कह रहे हो ताकि हम यकीन कर लें कि बड़ा साहब तुम्हारा दोस्त रह चुका है। मैं कहता हूँ, मुबारक हो तुम्हें उसकी दोस्ती, लेकिन भगवान् के लिए हमारे प्रोफेशन की तारीफ मत करो। जितनी तनख्वाह हमें मिलती है, उससे हमारा आधा पेट भरता है और आधा खाली रहता है…आधी कमीज़ बनती है और आधी नहीं…पैंट नहीं मिलती, पाजामा मिलता है और सोसाइटी में हमारी कोई इज़्ज़त नहीं। अगर दुर्भाग्य से आप शादीशुदा हों, जैसे तुम हो, मैं हूँ और यह परमानंद है, जिसे यह डींग मारने की आदत है कि अगर उसकी हिस्टरी का पेपर ठीक हो गया होता तो वह भी बड़ा अफसर बन जाता, भई असलियत तो यह है कि हमारी बीवियाँ हमसे शादी करके पछता रही हैं या वे यह समझती हैं कि आप लोगों से शादी करके हमने बहुत अहसान किया है…।’’ उसकी यह कहने भर की देर थी कि सभी लोग ‘ही-ही’ करके हँसने लगे।

    राधेलाल इस हँसी में शरीक नहीं हुआ। अपनी मुद्रा में ढेर सारी संजीदगी लाकर वह कहने लगा, ‘‘कँवर, तुम बिलकुल सिनिक हो। जहाँ तक मेरी बात है, मुझे अपने प्रति ज़रा भी शिकायत नहीं। मेरी ज़िंदगी बड़े मज़े से चल रही है, क्योंकि मैंने अपनी ख्वाहिशों पर काबू पाना सीख लिया है। मेरी पत्नी भी बड़ी सुलझी हुई औरत है…वह सचमुच उन औरतों में नहीं, जो एक आदमी को उसकी आर्थिक स्थिति देखकर प्यार करती हो। दस साल शादी को हो चुके हैं, लेकि आज तक उसने मेरी नुक्ताचीनी नहीं की। कँवर, मुझे तुम्हारे साथ पूरी हमदर्दी है, लेकिन तुम्हें सैल्फ-पिटी का शिकार नहीं होना चाहिए।’’

    यह सुनते ही कँवर बिलकुल भिन्ना गया और बोला, ‘‘तुम झूठ बकते हो !’ ख्वाहिशें काबू नहीं की जातीं, उन्हें सिर्फ दफनाया जाता है। अगर हमारे दिलों की खुदाई की जाए तो न मालूम कितनी ख्वाहिशें गड्ढों में दबी हुई मिलेंगी। तुम महात्मा नहीं हो कि ख्वाहिसों पर काबू पाना सीख लो। मामूली से मामूली इंसान भी ऊँची जगहों की सैर करना चाहता है। बड़े साहब की मिसाल तुम्हारे सामने है, जिसे तुम अपना दोस्त समझते हो। अगर वह भी तुम्हारी तरह सोचने लगता तो वह कभी इतना ऊँचा न उठ सकता था।’’

    ‘‘लेकिन तुम नहीं जानते,’’ राधेलाल की आँखों में हलकी-सी चमक पैदा हुई, ‘‘मुझे अच्छी तरह याद है, उसने अपनी ज़िंदगी का कुछ और ही रास्ता सोचा था। वह कहा करता था कि एक लेखक बनना चाहता है और लेखक भी ऐसा जिसे घुमक्कड़ी का शौक हो। वह चाहता था कि खाकी कमीज़, काडराय की पैंट, मोटे तले वाली चप्पल, गले में बाईं तरफ़ कैमरा और दाईं तरफ बैग लटकाकर इस खूबसूरत और विशाल देश का चप्पा-चप्पा देखने के लिए निकल पड़े। घुमक्कड़ी और लेखक बनने की बड़ी-बड़ी उमंगें उसके दिल में मचला करती थीं। मुझे याद है, वह गोर्की और राहुल की किताबें बड़े चाव से पढ़ा करता था। उन दिनों उसकी उम्र बीस साल से ज़्यादा नहीं थी और उसने पाँगी क्या, चीनी क्या और अमरनाथ क्या…ये सारी जगहें पैदल जाकर देख ली थीं। एक बार मैं भी उसके साथ ट्रेकिंग के लिए गया था…।’’
    ‘‘कहाँ ?’’ किसी ने पूछा।

    ‘‘खजियार–डलहौज़ी से बारह मील आगे। मैंने लक्कड़मंडी की चढ़ाई खच्चर पर बैठकर की थी, लेकिन उसने पैदल। वह बुरी तरह हाँफ रहा था, लेकिन वह कहा करता था कि जो मज़ा पहाड़ों की चढ़ाई के वक्त हाँफने में है, वह मज़ा और किसी चीज में नहीं। सैर और कुदरत के नज़ारे उसे बहुत भावुक बना देते थे। दोस्तो, मैं सच कहता हूँ कि उन दिनों उसकी बातों को सुनकर और उसकी हरकतों को देखकर कभी यह खयाल ही नहीं आ सकता था कि आज कमिश्नर बना हुआ होगा...एक ऊँची नस्ल का क्लर्क, सुबह से लेकर शाम तक फाइलों में रमा रहने वाला।’’

    कँवर व्यंग्यपूर्ण हँसी हँसते हुए बोला, ‘‘भई, तुमने इतनी बातें बताई हैं, अब हम मान लेते हैं कि वह तुम्हारा दोस्त रह चुका है। मगर सुनो, तुम भले ही उसे ऊँची नस्ल का क्लर्क कह लो, लेकिन असलियत यह है कि वह अब इतना बड़ा आदमी है कि यह विचार उसके दिल में हरगिज़ पैदा नहीं होगा कि तुम उसके दोस्त रह चुके हो। यह भी हो सकता है कि वह तुम्हें पहचानते हुए भी पहचानने से इनकार कर दे। खामखाह सेंटीमेंटल बनने का कोई फायदा नहीं।’’

    उसके खामोश होते ही स्कूल की घंटी बजी और एकाएक वहाँ बैठे हुए बहुत-से अध्यापक उठ खड़े हुए और अपनी-अपनी किताबें और हाज़िरी के रजिस्टर उठाकर क्लास-रूमों की तरफ जाने लगे। राधेलाल भी इन्हीं लोगों में से था और उसका अब गणित का पीरियड शुरू हुआ था।

    तीसरे दिन स्कूल में बहुत गहमागहमी थी और जमादारिन बंतो से लेकर हैडमास्टर खड़बंदा तक सभी कर्मचारी बहुत ही व्यस्त दिखाई दे रहे थे। क्लास-रूमों की सब की सब खिड़कियाँ और रोशनदान खोल दिए गए थे। स्कूल के कंपाउंड में जहां पहले खुश्क और पीली रेत उड़ा करती थी, उस रोज़ इस कद्र छिड़काव किया गया था कि गीली मिट्टी की सोंधी-सोंधी महक सारे वातावरण में रच गई थी। फूलों वाले गमलों पर सुर्खी पोत दी गई थी और मेन गेट के ऊपर बहुत बड़ा ‘स्वागतम्’ लटका दिया गया था, जो धूप में सोने की तरह चमक रहा था।

    बड़ा साहब ग्यारह बजे पहुँच रहा था, लेकिन यह बात सच है कि राधेलाल की रिस्टवॉच में समय छलाँगें मारता हुआ दौड़ रहा था। ज्यों-ज्यों सम्भ्रांत अथिति के आने का समय नज़दीक आता जाता था, उसके दिल की धड़कन प्रतिपल बढ़ती जाती थी। वह बहुत ही बेचैनी से अपने पैर इधर-उधर पटक रहा था।

    हैडमास्टर खड़बंदा को भी यह खबर पहुँचाई जा चुकी थी कि बड़ा साहब उसका क्लास-फैलो अथवा दोस्त रह चुका है, चुनाँचे बात-बात में खड़बंदा ने उससे कहा, ‘‘मैंने सुना है कि कमिश्नर बहुत ही मगरूर आदमी है...वह एक टिपिकल ब्यूरोक्रेट है। तुम्हारी क्या राय है ?’’

    ‘‘जनाब,’’ राधेलाल ने हैरान होकर उत्तर दिया, ‘‘उन दिनों जब वह मेरा दोस्त था, बहुत सीधी-सादी और मिलनसार तबीयत का हुआ करता था। हमारे कई एक क्लासफैलो उसे बहुत छेड़ा करते थे, लेकिन वह कभी गुस्सा नहीं करता था। एक बार...।’’

    ‘‘सुनो’’, हैडमास्टर ने उसे अपना कथन पूरा नहीं करने दिया, ‘‘मैं चाहता हूँ कि जब वह यहाँ आए तो एक हार तुम भी उसे पहना देना। हम उसकी जितनी भी इज़्ज़त करेंगे, थोड़ी है। वह चाहे तो पूरे दस हज़ार की ग्रांट हमें डिस्ट्रिक्ट रिलीफ फंड से दिलवा सकता है। भई राधेलाल, अगर वह वाकई तुम्हारा दोस्त है तो इस ग्रांट के लिए तुम्हें हमारी मदद जरूर करनी चाहिए। मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि तब तुम अपनी नौकरी को पत्थर की लकीर की तरह पक्की समझो।’’
    ‘‘लेकिन जनाब, मेरी नौकरी तो पहले ही पक्की की जा चुकी है।’’

    हैडमास्टर कहने लगा, ‘‘हमारी तरह के इन प्राइवेट स्कूलों में कोई हमेशा पक्का नहीं होता। मेरी अपनी बात ले लो, आज मैं इस पोज़ीशन में हूँ, न मालूम कल मैनेजिंग कमेटी में कैसी हवा चले और मैं बाहर कर दिया जाऊँ। तो भई मैं इसलिए कहता हूँ कि तुम्हारी ज़िंदगी में एक सुनहरा मौका आ पहुँचा है जब तुम स्कूल की बहुत भलाई कर सकते हो। तुम्हें इस मौके से ज़रूर फायदा उठाना चाहिए।’’ तत्क्षण उसने देखा कि राधेलाल ने अपना चेहरा बहुत ही गंभीर बना लिया है, इसलिए उसे पूछना पड़ा, ‘‘राधेलाल, क्या सोच रहे हो भई ?’’

    ‘‘मैं यह सोच रहा हूँ कि मैं उसे पंद्रह सालों के बाद मिलूँगा और अगर मैंने मिलते ही उससे इस किस्म की बातें करनी शुरू कर दीं तो वह कितना घटिया आदमी समझेगा मुझे। अगर आप मेरी जगह होते तो...।’’ राधेलाल को बोलते वक्त झटके-से लग रहे थे।
    ‘तो फिर रहने दो। तुम्हारी दोस्ती का फायदा फिर किसी वक्त उठा लेंगे। मैं चाहता हूँ कि फंक्शन के वक्त अपनी स्पीच में उसकी बहुत तारीफ करूँ, जिससे वह खुश हो जाए।’’

    खड़बंदा के इस उत्तर से राधेलाल के ज़ेहन पर जो बोझ आ पड़ा था, हट गया। वह उसकी चापलूसी करने लगा, ‘‘जनाब, आपकी स्पीच जादू का असर करने वाली होती है। यह आपकी स्पीच का तो कमाल है कि जो भी बड़ा आदमी यहाँ आता है, वह स्कूल को कुछ न कुछ देने के लिए मजबूर हो जाता है।’’

    ‘‘झूठी तारीफ करना है तो घटिया-सा काम, लेकिन हम लोग मजबूर हैं।’’ जब हैडमास्टर खड़बंदा यह कह रहा था, एकाएक उसने देखा कि तीन-चार विद्यार्थी कंपाउंड में मटरगश्ती कर रहे थे। यह देखकर उसे बहुत गुस्सा आया, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि विद्यार्थी स्कूल में इधर-उधर बेमतलब घूमते हुए दिखाई दें।

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