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पियरी का सपना

मैत्रेयी पुष्पा

प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7939
आईएसबीएन :9788171382026

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पियरी का सपना मैत्रेयी पुष्पा का नवीनतम कहानी संग्रह है जिसमें वह अपने विकास और संपूर्ण सामर्थ्य के साथ मौजूद हैं...

Piyari Ka Sapna - A Hindi Book - by Maitreyi Pushpa

आज की कहानी में छूट गए सच को भरने की कोशिश देखनी हो या कहने का खूबसूरत अंदाज, समय से टकराहट देखनी हो या बेखौफ स्त्री की जबान और हिम्मत, मैत्रेयी पुष्पा एक प्रतिनिधि कथाकार का रोल निभाती नजर आती हैं। उनका नजरिया उनकी कहानियों में बेआवाज खुलता नजर आता है। पियरी का सपना उनका नवीनतम कहानी संग्रह है जिसमें वह अपने विकास और संपूर्ण सामर्थ्य के साथ मौजूद हैं। मुस्कराती औरतें जहां इस बात का जवाब देती है कि अलबम के पहले पन्ने पर मुरली की तस्वीर क्यों मौजूद है, वहीं रिश्ते का नक्शा उस सच का पर्दाफाश करती है जो बताता है कि मोहल्ले के किसानों की नींद क्यों उड़ गई थी? कैसे एक पुस्तकालय एक कहानी का आधार बना? आवारा न बन की बॉक्सर लड़की का फूट पर गुस्सा हो या बदमाश महकमे से रिश्ता, छुटकारा की छन्नों का डूबता दिल हो या बहुत पहले का चलन का सच, कथाकार की तल्लीन संलग्नता उसे एक कथा शिल्पी की पहचान देती है। उसकी स्त्री किसी के द्वारा प्रदत्त सुरक्षा नहीं चाहती, चाहती है सिर्फ अपनी समार्थ्य ताकि कोई उसके चेहरे पर तेजाब न फेंक सके। संबंध की गौरी हो या गुनाहगार की पंचायत और बहू, आरक्षित की साधना हो या मैंने महाभारत देखा था की ब्रजेश, मैत्रेयी समाज के हर हिस्से की स्त्री के सच का खुलासा कहानी में करते हुए एक जागरण अभियान ही चला रही हैं। उनके यहां एक निरंतर युद्ध है उस असंवेदनशील समाज से जो लड़कियों के लिए अन्यायी है। पियरी का सपना ही नहीं, प्रायः हर कहानी में कथाकार उस दखल से लड़ती नजर आती हैं जो पूरी आराजकता के साथ हमारे समाज में मौजूद है। ये कहानियां आंख खोलते हुए, धुंध के पार ले जाने की ऐसी रचनात्मक कोशिश हैं जहां पाठक खुद ब खुद साथ हो लेता है।

अनुक्रम


  • मुस्कराती औरतें
  • रिश्ते का नक्शा
  • आवारा न बन
  • छुटकारा
  • बहुत पहले का चलन
  • जवाबी कागज
  • संबंध
  • गुनाहगार
  • मैंने महाभारत देखा था
  • आरक्षित
  • हर बच्चों की कहानी
  • 1857–एक प्रेम कथा
  • गुल्लू
  • पियरी का सपना

  • मुस्कराती औरतें


    ‘बेपरवाह यौवन’
    ऐसे शीर्षक के साथ हमारी तस्वीर अखबार में छपी है। अखबार गांव में आया है, प्रधान के चबूतरे पर लोग देख रहे हैं। कह रहे स्वर में स्वर मिलाकर–आवारा लड़कियां–मेरे सामने बरसों पुराना यह दृश्य है।

    आवारा लड़कियों की ले-दे हो रही थी। आवारा लड़कियों को पता न था कि आवारा कैसे हुआ जाता है? मुरली ने अपनी मां से पूछ लिया कि हम आवारा कैसे हुए। माँ ने मुंह से नहीं, मुरली की चोटी को झटके दे-देकर बताया था और बीच-बीच में थप्पड़ मारे थे, कहा था–भीगकर तस्वीर खिंचानेवाली लड़कियां आवारा नहीं हुईं तो क्या सती-सावित्री हुईं?

    मुरली जरा ढीठ किस्म की लड़की थी, क्योंकि अक्सर ऐसा कुछ कर जाती, जिसकी सजा पिटाई से कम न होती। अपनी धृष्टता को बरकरार रखते हुए बोली, ‘न भीगते तो हम सती-सावित्री हो जाते। तुम हमें मुरली न कहतीं, सती या सावित्री कहतीं?’

    ‘‘जवाब देती है, चोरी और सीनाजोरी’ कहते हुए मां ने अबकी बार मुरली को अपनी जूती से पीटा, क्योंकि उनके हाथों में चोट आ गई थी। मुरली के सिर से किसी के हाथ टकराएं और जख्मी न हों, ऐसा कैसे हो सकता है?
    ‘अम्मा, सलौनी और चंदा भी तो भीगी थीं। बरसात हो तो गांव में कौन नहीं भीग जाता? सबके पास तो छाता होता नहीं है। फिर लड़कियों को तो छाता मिलता भी नहीं।’ मुरली मार खाकर रोई नहीं, बहस करने लगी।

    मां ने अबकी बार अपने माथे पर हथेली मारी, विलाप के स्वर में बोली, ‘करमजली, तू भइया का छाता ले लेती। बहुत होता मेरा लाल भीगता चला आता। ज्यादा से ज्यादा होता, उसे जुकाम हो जाता, बुखार आ जाता, पर तेरी बदनामी तो अखबार के जरिए दुनिया-जहान में जाएगी। भीगकर फोटू खिंचाई, बाप की मूंछों को आग लगा दी। हाय, जिसकी बेटी बदफैल हो जाए, उससे ज्यादा आभागा कौन?’ अम्मा ने मुंह पर पल्ला डाल लिया और मुरली अपने खींचे गए बेतरतीब बालों को खोलकर कंघी से सुलझाने लगी।

    सामने भइया आ गया, तेरह साल की मुरली अपनी तंदुरुस्ती में भइया की पंद्रह वर्षीय अवस्था से ज्यादा विकसित, ज्यादा मजबूत और ज्यादा उठान शरीर की थी। भाई से बोली, ‘तू भीगता, तेरी फोटू कोई खींच लेता, अखबार में छाप देता, तू आवारा न हो जाता। छाता इसीलिए साथ रखता है।’

    भइया माता-पिता के अपमान को अपनी तौहीन समझ रहा है, मुरली को पता न था। जब उसने कहा–मैं लड़का हूं, सो मर्द हूं। मेरी फोटू कोई कैसे खींचता? खींचकर करता भी क्या? कोई उसे क्यों देखता? सब लोग तेरी और रेनू की फोटू देख रहे थे आंखें फाड़े-फाड़कर और फिर आवारा कहकर एक-दूसरे को आंख मार रहे थे। मुझसे सहन नहीं हुआ, मैं भाग आया।
    मैंने यानी रेनू ने एक एलबम बनाई थी उन्हीं दिनों।

    मेरी एलबम में मैं हूं मुरली है। तस्वीर में हम दोनों भीगे हुए हैं। उस दिन वर्षा हो रही थी और हम घर से निकल पड़े थे। पेड़ों के नीचे छिपते फिरे, लेकिन पेड़ तो खुद ही भीग रहे थे। वे चिड़ियों तक को वर्षा से नहीं बचा पा रहे थे। गिलहरियां न जाने कहां छिप गई थीं, देखने पर भी नहीं दिखीं। एकमुश्त आकाश था, हमको नहलाता हुआ। दूर सामने चंदो कुम्हार का खच्चर था ध्यानवस्था में भीगता हुआ। हां, तालाब में बगुलों की पांतें थीं, भीगे पंखों से किलोल करती हुईं। बारिश में उजागर दुनिया यही थी, हमारे साथ।

    अचानक एक छाताधारी आता दिखाई दिया। अपने जूते भिगोता हुआ चर्रमर्र की आवाज करता हुआ चला आ रहा था। हमारे पास चला आ रहा है, मैं और मुरली अपने शरीरों से भीगे हुए चिपके कपड़ों से बेखबर उसे टकटकी बांधकर देख रहे थे।

    उसने अपना कैमरा खोला और हमारी तस्वीर खींच ली। हम कैमरे को देखकर नहीं, छातेवाले बाबू को देखकर हँस पड़े। हमारे हँसने का मकसद क्या था, हम भी नहीं जानते थे, मगर वह मुस्कराया, जैसे सब कुछ समझ रहा हो। उसने एक तस्वीर और खींची।
    जब हमें थप्पड़ और बाल खिंचाई के बीच अखबार दिखाया गया तो हम उसमें खिलखिलाकर हँस रहे थे।

    उसके बाद मैं कई दिन तक डरी रही। बारिश भी कई दिनों तक बंद रही। मेरा दिल ऐसे ही सूख गया था, जैसे बादल सूखे-सूखे…मुरली भी अपने भीतर पनपते रूखे-सूखेपन को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। वह अक्सर ही मुझसे कहती, ‘चल, बाहर चलते हैं। देखना हम हँसेंगे तो बादल बरसेंगे। बादल बरसेंगे तो छातेवाला आएगा। हम अखबार में होंगे तो दूर दुनिया तक जाएंगे।’

    ‘यह तुझसे किसने कहा मुरली?’
    ‘उसी ने, जो फोटू खींच रहा था।’
    ‘उससे तू मिलती है?’

    ‘मैं नहीं मिलती, वही मिल जाता है। ताल में नहाती चिड़ियों की तस्वीर खींचता है। अखबार में छापता है, तब कोई नाराज क्यों नहीं होता? चिड़ियां भी तो लड़कियां ही होती हैं।’
    ‘हां, होती हैं। मगर वे उड़ सकती हैं, हम कैसे उड़ें?’ ऐसी बातें करते-सोचते हम बड़े होने लगे।
    मुरली मुझसे बिछुड़ गई।

    उसका ब्याह हो गया मेरी एलबम में। ब्याह के बाद एक तस्वीर मुझे मुरली के भाई से मिली। मुरली उसमें आधा घूंघट किए गेहूं की रास की उड़ाई कर रही है। बाहें ऊपर उठी हुई हैं, क्योंकि डलिया हाथ में है। फोटो के पीछे लिखा था–‘आर्थिक गुलामी का शिकार औरत’।

    मेरी जी धक से रह गया। मुरली और आर्थिक गुलामी, नहीं-नहीं, वह तो आवारा थी।
    मैंने मुरली की यह तस्वीर अपनी अलबम में लगा ली। समाजसेवी संस्था की सदस्या का दिया शीर्षक काट दिया। उसके नीचे लिख दिया–‘आवारा औरत’, क्योंकि मुझे दासी, गुलाम और सेविका से ‘आवारा औरत’ शब्द ज्यादा ताकतवर लगता है।

    इसके बाद, अलबम के तीन पृष्ठ खाली छोड़ दिए, मुरली के लिए, मगर बहुत दिनों तक कोई तस्वीर मिल नहीं पाई। हां खबर मिलती रही कि मुरली अपने घर है। लड़ाई-झगड़ा करती है, सो भइया भी उसकी ससुराल नहीं जाता। पिता जब भी बुलाए जाते हैं, मुरली से अपनी इज़्ज़त रखने का कौल लेकर आते हैं। मुरली मेहनत करती है, खेत-खलिहान उसी के दम पर आबाद है, यही माता-पिता का सहारा है और ऐसी कल्पनाओं से मायकेवाले आश्वस्त रहते हैं।

    मेरी मां कहती है, ‘गांव की औरतें गुलामी और मुक्ति का अंतर क्या जानें? अज्ञान और चेतनाहीन होती हैं। अपने श्रम को मुफ्त लुटाती रहती हैं, आर्थिक पराधीनता से जोड़कर देख नहीं पातीं। अनाज-गल्ले को खलिहान में देखकर खुश हो जाती हैं, बस।’
    मुरली क्या करती होगी? मैंने एक पन्ने पर सवालिया निशान लगा दिया है।

    अगले पन्ने पर तस्वीरें लगी हैं, मेरे साथियों-सहपाठियों की। उनके ब्याहों की। इसके बाद की तस्वीर में मेरा ब्याह हो गया है। शादी के प्रमुख फोटो में मेरे साथ वर है और मां है। दूसरी तस्वीर में मां के साथ महिला मंगल की वे स्त्रियां हैं, जो सामाजिक स्तर पर अपनी आधुनिक पहचान के साथ हैं। मां ने इन तस्वीरों को मेरी अलबम में खासतौर पर क्यों लगवाया? ये सामाजिक कार्यकर्ता और अफसर औरतें ससुराल तक मेरे साथ अलबम के जरिए आई हैं, मां का क्या मकसद है? क्या इसलिए कि मैं गंवार मुरली के खयालों में न खोई रहूं? उसके उजड्ड से व्यवहार को भूल जाऊं। उसकी आवारा प्रवृत्तियां मेरी शिष्टता का नाश करती रही हैं। अतः मुझे पढ़ी-लिखी भद्र महिलाओं, जिन्होंने अपने लिए प्रगति-पथ चुने हैं, उनसे आधुनिकता की ऊर्जा प्राप्त करके पुनर्नवा होना है। मेरी मां ममता और लाड़ का ऐसा खजाना नहीं कि मुझे कैसे भी खुश रखने की सोचे और मेरे लिए अन्य माओं जैसा अधिक से अधिक दुलार उमड़ता आए ब्याह के बाद।

    तस्वीरवाली मेरी मां की आंखों में वह चुनौती रहती है, जिसे उन्होंने मेरे लिए खासतौर से रख छोड़ा है। जब भी फोटो देखती हूं, वे कहती नजर आती हैं, ‘गौर से देख, ये औरतें वे हैं, जो अपने पांवों खड़ी हैं। ये स्त्रियां पढ़–लिखकर घर से निकलीं, नौकरी की। आर्थिक स्वतंत्रता पैदा कर ली। स्त्रियों के लिए आर्थिक पराधीनता बेड़ियों का काम करती है। तू समझ रही है न? कि अब भी तुझ पर मुरली सवार है? अनपढ़ लड़की…बेशर्म जात।’

    हां, मैं मुरली की तरह ही अपने घर में हूं। कॉलेज की कई लड़कियों की तरह मैंने ब्याह को ब्याह के रूप में सुरक्षा कवच माना है। मां के हिसाब से मैंने ब्याह के किले में खुद को बंद कर लिया है। गृहस्थिन की तरह चारदीवारी में गुम होकर रह गई हूं। अगर मैंने नौकरी नहीं की तो निरंतर प्रताड़ित (?) होती रहूंगी। पराधीन की तरह मेरा शोषण किया जाता रहेगा।

    क्या मैं यहां से निकलने का निर्णय भी ले सकती हूं? मैं अपने बूते रहने-खाने के सुविधा-साधन जुटा सकती हूं? मैं निरी गुलाम औरत, मां का वह मंत्र नहीं माना, जिसके चलते स्त्री कुछ कमाकर आत्मनिर्भर होती है। अपनी आजादी का बिगुल बजा सकती है, साथ में मर्यादा और शील का पालन करती है।

    ‘‘आपका मंत्र अचूक नहीं है मां।’ यह बात मैं आज तक इसलिए नहीं कह पाई, क्योंकि नौकरीपेशा न होकर आश्रितों में शुमार की जाती हूं। बिना मुझसे पूछे ही ‘आश्रित’ की चिप्पी मेरे वजूद पर मां ने चिपका दी है। बिना यह समझे कि मेरे घर में मेरी हैसियत क्या है, समझ लिया है कि मेरी आर्थिक पराधीनता ही मेरे दासत्व भरे गुणों की खान है।

    मां ने कहा था, ‘उन औरतों को देख जो कामकाजी महिला होने के लिए, नौकरीपेशा बनने के लिए विवाह-बंधन तोड़ गईं या उन्हें देख, जिन्होंने अपना कैरियर पहले अर्जित किया, उसके बाद विवाह।’

    मैं जानती हूं कि मां को ब्याह के पक्ष में लिया गया मेरा फैसला रास नहीं आया था। क्या मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती तो उनकी विवाहवाली राय में कोई अंतर आता? जबकि आर्थिक रूप से आज मेरा उन पर कोई वजन नहीं। सोच-विचार में डूबी थी, अनायास ही अलबम का पन्ना पलट गया।

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