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व्यंग्यपुराणम

श्यामसुन्दर घोष

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7951
आईएसबीएन :9798128818195

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मकबूल फिदा हुसैन माधुरी दीक्षित के पीछे पड़े रहते हैं और वामपंथी लोग ममता बनर्जी के पीछे पड़े रहते हैं, तो बिहार में कुछ लोग राबड़ी देवी के पीछे पड़े हैं...

Vyangya Puranam - A Hindi Book - by Shyamsundar Ghosh

श्रीगणेश यूँ करता हूँ


मैं जल्दी किसी के पीछे नहीं पड़ता। पीछे पड़ना, मेरा स्वभाव भी नहीं। ‘पीछे पड़ना’ मुहावरा मुझे प्रासंगिक भी नहीं लगता। यह पिछड़ा हुआ प्रतीत होता है। यह युगानुकूल तो नहीं ही है।

यदि पड़ने की बात हो, तो अब पीछे पड़ने की अपेक्षा आगे पड़ना कहीं ज्यादा प्रासंगिक और कारगर है। आप जिसके पीछे पड़ते हैं, वह पीछे मुड़कर आपको देखता तक नहीं। वह तो केवल आगे ही आगे देखता है। इसलिए यदि पड़ने की ही बात हो, तो आज के जमाने में आगे पड़ना चाहिए–अब आप जैसे भी पड़ें–साष्टांग पड़ें या अर्धांग पड़ें, मुँह के बल पड़ें या छाती और पेट के बल। आगे पड़ने की विविध रीतियाँ हैं। और सबसे बड़ा लाभ यह है कि आप जिसके भी आगे पड़ते हैं, वह आपको अनदेशा नहीं कर सकता। वह आपके आगे पड़ने की नोटिस लेने को बाध्य है।

फिर भी यदि पीछे पड़ने की नौबत आ ही जाये, तो मैं दैवियों के पीछे पड़ना, फिर भी अच्छा समझता हूँ। देवियों के पीछे पड़ने से आपका नाम इतिहास में दर्ज हो सकता है। पुराने जमाने के लोग–विशेषकर दैत्यराज और दुष्टराज किस्म के लोग, यह बात जानते थे। इसलिये वे देवताओं के पीछे न पड़कर देवियों के पीछे पड़ा करते थे। शुभ्म-निशुम्भ और महिषासुर आदि सयाने लोग ऐसे ही थे। वे चतुर्भुज विष्णु की अपेक्षा अष्टभुजा दुर्गा के पीछे पड़ना ज्यादा अच्छा समझते थे।

देवियों के पीछे पड़ने से दुष्टों की गरिमा और मर्यादा बढ़ती है। इसलिए आज के जमाने में भी लोग देवियों के पीछे ही पड़ा करते हैं। मकबूल फिदा हुसैन माधुरी दीक्षित के पीछे पड़े रहते हैं और वामपंथी लोग ममता बनर्जी के पीछे पड़े रहते हैं, तो बिहार में कुछ लोग राबड़ी देवी के पीछे पड़े हैं। देवताओं के पीछे कोई नहीं पड़ता। इससे न नाम होता है न दुर्नाम और देवता यदि सुदर्शन चक्रधारी या त्रिशूलधारी हुए, तो फिर पीछे पड़ने वाले की उल्टी गिनती शुरू हो जाती है।

इसलिए यदि मैं देवताओं के पीछे नहीं पड़ता तो यह समझने लायक बात है, लेकिन पाठक यहाँ सोचेंगे कि मैं श्रीगणेश-पुराण लिख रहा हूँ और देवताओं के पीछे न पड़ने की बात करता हूँ। देवताओं में श्रीगणेश इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि सबसे पहले उन्हीं की पूजा होती है। मैंने भी पहले के अठारह पुराणों की तुलना में जो सत्ताइस पुराण लिखने की ठानी है उस सिलसिले में शायद, शुभ और आवश्यक मान कर श्रीगणेश-पुराण से ही प्रारंभ कर रहा हूँ। कथनी कुछ, और करनी कुछ का यह अच्छा उदाहरण है।

यहीं पर मैं पाठकों को चौंकाना चाहता हूँ। मेरे श्रीगणेश से आप गौरी-सुत, गजानन का अर्थ न लो। मैं श्रीगणेश का एक दूसरा ही अर्थ लेता हूँ। गणेश आर्यवृत्त के आदि बुद्धिजीवियों में से हैं। बुद्धिजीवि येन-केन प्रकारेण अपने को महत्त्वपूर्ण मान ही लेते हैं। अब श्रीगणेश जी को ही लीजिए–उन्होंने कितनी मौलिकता और कौशल से देवताओं में अपने को महत्त्वपूर्ण प्रमाणित किया है।

श्रीगणेश का गजानन रूप बुद्धिजीवियों के अनुरूप ही है। जैसे हाथी के खाने के दाँत और, दिखाने के और होते हैं, वैसे ही बुद्धिजीवियों के आचार-विचार में फर्क होता है। कहने को तो ये काफी पढ़े-लिखे, सभ्य-सुसंस्कृत होते हैं, किसी को चीरते-फाड़ते नहीं, विरोधियों के लिये नख या दाँत का इस्तेमाल नहीं करते। जैसे–हाथी किसी को सूँड से लपेटकर मारता है, या पैरों से कुचलता-रौंदता है, वैसे ही बुद्धिजीवी भी विरोधियों को कानून-कायदे या कलम से लपेट-लपेटकर मारते हैं। उसे उछाल कर इतनी दूर ले जाकर पटकते हैं कि फिर वह सही मुकाम पर नहीं आता, इसका सुख-चैन, तबादले के चक्कर में घुट-पिटकर रह जाता है।

कहा जाता है कि एक बार गणेश और कार्तिकेय में इस बात की बाजी लगी कि दोनों में से कौन सम्पूर्ण सृष्टि की परिक्रमा कर, सबसे पहले माता-पिता पार्वती और महादेव के पास पहुँचता है। कार्तिकेय को विश्वास था कि मूषक वाहन वाले गणेश उनसे पार नहीं पा सकते। उनका वाहन मयूर है। कहाँ मयूर और कहाँ चूहा।

लेकिन इस होड़ में बाजी गणेश जी ने ही मारी। कार्तिकेय उधर सृष्टि-परिक्रमा को निकले और इधर गणेश महादेव और पार्वती की परिक्रमा कर हाथ जोड़ सिर नवा कर, उनके सामने खड़े हो गए। यह क्या? माता-पिता ने विस्मित होकर पूछा–तुम अभी तक सृष्टि-परिक्रमा पर नहीं निकले? कैसे प्रतिद्वंद्विता करोगे कार्तिकेय से? गणेश ने निवेदन किया–मेरी सृष्टि-परिक्रमा तो पूरी हो चुकी है। माता-पिता ही तो वास्तविक सृष्टि है। मैंने आप दोनों की परिक्रमा कर ली, तो अब परिक्रमा करने को शेष क्या रहा है?

कितना कूट-उत्तर है? शिव-पार्वती प्रसन्न हो गए। निर्णय गणेश के पक्ष में हुआ। कार्तिकेय सृष्टि-परिक्रमा कर लौटे, तो उन्हें कूटनीतिक पराजय का सामना करना पड़ा। बुद्धिजीवी ऐसे ही गुल खिलाते हैं, बड़े-बड़े के वारे-न्यारे करते हैं। वे बौद्घिक पटकनिया देने में बड़े सिद्धहस्त होते हैं। इसीलिए मैं भी व्यंग्य पुराण लिखने के क्रम में, श्रीगणेश बुद्धिजीवी-पुराण से ही करता हूँ।

श्रीगणेश का बौद्धिक पैनापन, इससे भी जाहिर है कि उन्होंने चूहे जैसे लघुजीव को अपना वाहन बनाना पसन्द किया। यह भी गणेश जी की एक सोची समझी नीति है। चूहा दिन में कम दिखाई पड़ता है। वह अधिकतर रात में निकलता है, रात में ही अपनी सारी गतिविधियाँ चलाता है। अब जिसका वाहन अँधेरे में चलनेवाला होगा, वह क्या दिन में कहीं आए-जाएगा? गणेशजी का यात्रा-विवरण, या लॉग-बुक, शायद ही कहीं उपलब्ध हो। उन्होंने जान-बूझकर इसका कोई लेखा-जोखा नहीं रहने दिया है। उन्हें आंशका रही होगी कि यदि उनके मूषक-विहार का लोगों को पता चलेगा, तो शायद वे भी निशाचर या निशाचारी मान लिए जाएंगे।

बौद्धिक लोग, अपना सारा क्रिया-कर्म रात के अंधेरे में ही करते हैं। वे रात में ही आयोजनाएं और मंत्रणाएं करते हैं। अंधेरे में ही गोटियाँ बिछाते हैं, चाल चलने का अभ्यास करते हैं।

चूहे के बारे में प्रसिद्ध है कि वे कुतरने के बहुत शौकीन, और इस महीन कला में पटु-प्रवीण होते हैं। इनके दाँत तेजी से बढ़ते हैं कि यदि ये हरदम कुछ न कुछ कुतरते न रहें, तो उनके दाँत हाथी दाँत की तरह मुँह से बाहर निकल आयेंगे। यदि चूहों के दाँत इस प्रकार बाहर निकल आएंगे तो कैसा लगेगा? तब तो वे गजानन गणेश की बराबरी करने लगेंगे। चूहों के दाँत न बढ़ें, और वे गजानन होने का दावा न करें, इसलिये ही गणेश जी ने उन्हें अपना वाहन बना लिया। वे जानते थे कि वे जिस कुतरन-व्यवसाय को बड़े पैमाने पर चलाने वाले हैं, उसके लिये, उन्हें कुछ वैसे ही कुरतन-प्रेमी और कुतरन-पटु जीव चाहिये।

बुद्धिजीवी कुछ भी कुतरने की अद्भुत क्षमता रखता है। वह मान-मूल्य-मर्यादा कुछ भी बहुत आसानी से, बहुत नफीस ढंग से, अद्भुत तर्क देते हुए कुतर सकता है, कुतर-कुतर कर ढेर लगा सकता है। लेकिन यह काम वह खुद कैसे करें? आखिर है तो यह घटिया काम ही, भले ही बहुत कलाकारिता और मनोहरिता से किया जाये। इसलिये उन्होंने अपना वाहन चूहा बनाया। बड़े लोग जब कोई बड़ी और संगीन वारदात करना-कराना चाहते हैं, तो उसे अपने छोटे अनुगणों से करवाते हैं। उनके छोटे अनुगण यह काम करने के लिये तुरन्त तैयार भी हो जाते हैं। अधिक हल्ला-गुल्ला होने पर मामला प्रेस और मीडिया में जाने पर, वे ऐसी वारदातों से अपनी अलिप्तता जाहिर करते हैं, या अपने छोटे-छोटे अनुगणों को, कुछ को बलि का बकरा बना कर अपने को पाक-साफ प्रमाणित करते हैं।

गणेश जी मिष्टान्न प्रिय हैं। आपने जहाँ भी गणेश जी की तस्वीर देखी होगी, उनके आगे लड्डू से भरा थाल जरूर देखा होगा। लड्डू की विशेषता यह है कि वे इस ढंग से थाल में सजाये जा सकते हैं कि दर्शनीय होते हैं। लड्डुओं से संतुष्ट होने वाले देव गणेश जी दो चार, दस-बीस लड्डुओं से संतुष्ट होने वाले देव नहीं हैं। उन्हें तो भर थाल लड्डू चाहिए। जो लम्बोदर होगा, उसे कम से कम इतने लड्डू तो जरूर चाहिए।

अब इन लड्डुओं के चूरन में कुछ उनके वाहन को नसीब होता है, या नहीं, यह तो गणेश जी जानें, या उनका वाहन। यह उन दोनों का आपसी ‘टॉप-सीक्रेट’ मामला है। हम तो इतना ही कह सकते हैं कि बेचारा-मूषक लड्डू देखकर ही संतोष करने को अभिशप्त रहता होगा।

लड्डू का आकार गोल होता है। वह लुढ़कने वाला मिष्टान्न है। जितनी आसानी से सजाकर थाली या परात में पहाड़ की शक्ल में खड़ा किया जा सकता है, उतनी ही आसानी से छितराया या लुढ़काया भी जा सकता है। इस मिष्टान्न की सिफ़त बहुत कुछ उसके स्वामी-सी है–खड़ा का खड़ा और पड़ा का पड़ा। दोनों ही स्थितियों में संतुष्ट और सुशोभित! लड्डू के अनेक आकार-प्रकार होते हैं, मटर के दाने से लेकर आग्नेयास्त्रों के गोले तक। ये इतने मुलायम भी हो सकते हैं कि छूते ही बिखर जाएं और इतने कड़े और कठोर भी हो सकते हैं कि दाँतों और मसूड़ों को भी हैरान-परेशान कर दें। सबसे बड़ी बात कि ये सूखे होते हैं, गीले नहीं। ये आसानी से कहीं लाए-ले जाए जा सकते हैं, बहुत टिकाऊ भी होते हैं। इस रूप में लड्डू की बराबरी कोई मिष्टान्न नहीं कर सकता। गणेशजी ने यदि ऐसे मिष्टान्न को अपना प्रिय माना है, तो यह उनके स्वभाव और चरित्र के अनुरूप ही है। बुद्धिजीवियों की पसन्द भी तो कुछ ऐसी ही होती है।

श्रीगणेश के बहाने बुद्धिजीवियों को जानने-समझने का प्रयास मेरे जानते नया है। इसका कुछ श्रेय इन पंक्तियों के लेखक को जरूर मिलना चाहिए। आर्यावृत्त में वैसे तो अनेक बुद्धिजीवी हुए हैं, पर मुझे दो नाम अति विशिष्ट लगते हैं–व्यास और गणेश। ये बुद्धिजीवियों की दो कोटियाँ या प्रकार हैं।

व्यास ने डिक्टेशन देकर गणेश से महाभारत लिखवाया। कुछ लोग मानते हैं कि गणेश व्यास के स्टेनो थे। वे पहले शार्ट-हैण्ड विशेषज्ञ थे। मैं गणेश जी को व्यास जी का सहयोगी मानता हूँ। व्यास देव जी का दर्जा जरूर कुछ ऊँचा रहा होगा। तभी तो गणेश जी उनका डिक्टेशन लेने को तैयार हुए। पर उन्होंने एक शर्त रख दी कि उनकी लेखनी जरा भी नहीं रुकनी चाहिए। वे अपने जमाने के बहुत फास्ट राइटर थे। उनको अपनी क्षमता पर विश्वास था। यह एक प्रकार से व्यास को चुनौती थी कि उन्हें अनवरत धारा-प्रवाह डिक्टेशन देना होगा, जहाँ वे रुके कि गणेश जी ने लिखना बन्द किया।

इससे स्पष्ट है कि गणेश जी आज के से स्टेनो नहीं थे, अफसर के बार-बार रुकने पर रुक जाते हैं और फिर उनके चालू होने पर चालू होते हैं। गणेश व्यास के बौद्धिक सहयोगी थे।

गणेश जी की शर्त सुनकर, व्यास जी ने भी अपनी एक शर्त रख दी कि गणेश जी जो कुछ लिखेंगे, समझ कर लिखेंगे। यह शर्त रखकर व्यास जी ने कहीं-कहीं रुकने और सोचने का समय निकाल लिया। महाभारत में आप देखेंगे कि बीच-बीच में बहुत कठिन और क्लिष्ट श्लोक हैं, जिनका अर्थ आसानी से पहली नजर में, स्पष्ट नहीं होता। जब व्यास जी को महसूस होता था कि गणेश डिक्टेशन लेने के मामले में उन्हें पछाड़ सकते हैं, तो वे तुरन्त एक कठिन और क्लिष्ट श्लोक बोल देते, जिसे समझने में गणेश को कुछ समय लग जाता था और व्यास इस बीच अपने चिन्तन को पूर्णता देने के लिए आगे बढ़ने को तत्पर हो जाते थे।

तो ऐसे थे, गणेश। आज के बुद्धिजीवी ऐसे या इतने भी कहाँ हैं कि अपनी शर्त रख सकें और अपने को विशिष्ट प्रमाणित कर सकें। आज तो वे केवल भरपेट राजकीय लड्डू खाते हैं और चूहे-गाड़ी पर सैर करते हैं।

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