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कविता संग्रह >> अपने सामने

अपने सामने

कुँवर नारायण

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :107
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8097
आईएसबीएन :8126705620

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अपने सामने...

कुंवर नारायण का यह कविता-संग्रह एक लम्बे समय कें बाद आ रहा है। ‘आत्मजयी’ के बाद की ये कविताएँ रचनाकाल की दृष्टि से किसी एक ही समय की नहीं हैं; इसलिए एक तरह की भी नहीं हैं। विविधता वैसे भी उनकी विशिष्टता है क्योंकि जीवन को अनुभूति और चिन्तन के विभिन्न धरातलों पर ग्रहण करने वाले कवि कुंवर नारायण अपनी कविताओं में सीमाएँ नहीं बनाते; उनकी ज्यादातर कविताएँ किसी एक ही तरह की भाषा या विषय में विसर्जित-सी हो गयी नहीं लगतीं - दोनो को विस्तृत करती लगती हैं। अनेक कविताएँ मानो समाप्त नहीं होती, एक खास तरह हमारी बेचैनियों का हिस्सा बन जाती हैं।

इस तरह से देखें तो वे अपने को सिद्ध करनेवाले कवि हमें नहीं नजर आते। वे बराबर अपनी कविताओं में मुहावरों से बचते हैं और अपने ढंग से उनसे लड़ते भी हैं। उनकी कविता की भाषा में धोखे नहीं हैं। अधिकांश कविताओं का पैनापन ज़िन्दगी के कई हिस्सों को बिल्कुल नये ढंग से छूता है।

वे मानते हैं कि दैनिक यथार्थ के साथ कविता का रिश्ता नज़दीक का भी हो सकता है और दूर का भी और दोनों ही तरह वह जीवन के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है...सवाल है कविता कितने सच्चे और उदार अर्थों में हमें आदमी बनाने की ताकत रखती है। कविता उनके लिए जीवन का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं, जीवन का सबसे आत्मीय प्रसंग है-कविता जो अपने चारों तरफ़ भी देखती है और अपने को सामने रखकर भी। उनकी कविताओं में हमें बहुत सतर्क किस्म की भाषा का इस्तेमाल मिलता है; वह कभी बहुत गहराई से किसी ऐतिहासिक या दार्शनिक अनुभव की तहों में चली जाती है और कभी इतनी सरल दिखती है कि वह हमें अपने बहुत क़रीब नजर आती है। बहुआयामी स्तरों पर भाषा से यह लड़ाई और प्यार कुंवर नारायण को चुनौती देता है, खासतौर पर एक ऐसे वक्त में जब कविता का एक बड़ा हिस्सा एक ही तरह की भाषा में अपने को अभिव्यक्त किये चला जा रहा है। हिन्दी के अग्रणी आधुनिक कवि कुंवर नारायण की कविता को दुनिया में जाने का मतलब जिन्दगी को गहराई और विस्तार से देखने और जानने का अच्छा मौका पा लेना है।

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