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धर्म एवं दर्शन >> प्रेम दीवानी मीरा

प्रेम दीवानी मीरा

आनन्दमूर्ति गुरुमाँ

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :278
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8123
आईएसबीएन :9788121612531

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प्रेम दीवानी मीरा

Prem Deewani Meera by Anandmurti Gurumaa

नहिं ऐसो जन्म बार-बार
मानव जन्म का गुणगान गाती है मीरा।
नहिं ऐसो जन्म बार-बार
का जानूं कुछ पुण्य है प्रगटे, मानुष का अवतार।
बढ़त छिन-छिन, घटत पल पल, जात न लागे बार
वृक्ष से ज्यों पात टूटै बहुरो न लागे डार। नहिं...।
भवसागर अति जोर लहिए, अनन्त कुंडी धार
राम नाम का बांध ले बेड़ा, उतर-उतर ले पार। नहिं...।
ज्ञान चौसर मंडी चोहटे, सुरता पासा सार
या दुनिया में कैसी बाजी, जीत ते पावे हार। नहिं...।
साधु संत महंत ज्ञानी चलत करत पुकार,
दासी मीरा लाल गिरधर, जीवन है दिन चार।

एक व्यक्ति अपने गांव से दूर शहर में व्यापार करने गया। घर लौटने में देर हो चली, तो सोचा कुछ विश्राम कर लेता हूं। वो एक नदी के किनारे बैठ गया। जंगली जानवरों के भय के कारण से सो भी नहीं पाए और नींद को दूर भागने का उपाय कुछ समझ न आया। ऐसे ही इधर-उधर हाथ फैलाया तो हाथ में एक थैली आ गई। अंधेरे में टटोला तो लगा किसी बच्चे ने पत्थर बीन-बीनकर डाल दिए होंगे थैली में। तो थैली का मुंह खोला, पत्थर हाथ में था, नदी सामने थी, दूर नदी में निशाना बांध के पत्थर फेंका। दूर पत्थर फेंकता और नदी में पत्थर के गिरने की आवाज़ को वह सुनता, यूं वह अपनी रात बिताने लगा। रात बीतती गई, पौ फटने लगी, आखिरी पत्थर हाथ में था। अभी निशाना बांध के फेंकने ही लगा था कि सूर्य की रोशनी में उस पत्थर की चमक नजर आई। गौर से देखा और माथा पीट लिया, जिन्हें वह पत्थर समझकर रातभर नदी में फेंकता रहा, वह तो हीरे थे। कोई व्यापारी गुजरा होगा, जिसकी थैली गिर गई होगी। और इसके हाथ खजाना भी लगा पर अन्धकार के कारण वह उन चमचमाते हीरों को पत्थर समझ के नदी में फेंकता गया। आखिरी पत्थर हाथ में और समझ में आ गई कि ये पत्थर नहीं हैं। बहुमूल्य हीरे! संभाल लिया! पर अफसोस दिल में बड़ा आया कि अगर उन सबको भी मैं पहचान लेता, तो फिर मेरे जैसा धनी कौन होता?

आनन्दमूर्ति गुरुमाँ एक समृद्ध, आंदोलनकारी, रहस्यदर्शी व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने उपने समकालीन ज्ञान-सूत्रों से जीवन व जगत को एक नया रूप प्रदान किया है। उनके सहज व स्वाभाविक जीवन-सूत्र एक नयी चेतना व जागरूकता की नींव रखते हैं, जिसमें जीवन के सभी तत्त्वों का सन्तुलन दिखता है।

गुरुमाँ की ओजस्वपूर्ण आभा के परिणामस्वरूप सहज ही आन्तरिक शान्ति व आत्म अनुभूति का वातावरण तैयार होता है। अपने प्रवचनों से गुरुमाँ ने हर रहस्यदर्शी सन्त के संदेशों को उजागर किया है और इसके अलावा कला, समाज जैसे विषयों पर भी अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।

वे कहती हैं - आध्यात्मिकता और चिंतन का कोई अन्त नहीं है। यह तो जीवन के प्रति प्रेम है।

उनके प्रवचनों से उपजी जागरूकता एक नवीन भावना उत्पन्न करती है तथा श्रोताओं के शुद्धिकरण के लिए उत्कृष्ट वातावरण तैयार करती है। उनका प्रत्येक शब्द आन्तरिक शान्ति एवं मौन के रहस्य को प्रदर्शित करने की कुंजी है।

प्रेम के मार्ग में भाव है और भाव में क्या होता है? भाव में बस डूबना है। जो डूबना नहीं जानता वह भाव में नहीं है। जो विचार में पड़ा है, वह भाव में नहीं है। विचार का मार्ग एक अलग मार्ग है। विचार करते-करते ज्ञानी जिस समाधि में पहुँचता है, भाव करते-करते प्रेमी भी उसी समाधि में पहुँचता है।


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