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नारी विमर्श >> लगभग सिंगल

लगभग सिंगल

अद्वैता काला

प्रकाशक : हार्परकॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :292
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8292
आईएसबीएन :9788172239282

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बेपरवाह और बेहद मज़ाकिया, ऑल्मोस्ट सिंगल, अकेली औरतों की ज़िन्दगी की झलकियां

Lagbhag Singal - A Hindi Book by Adwaita Kala

‘‘मेरा नाम आईशा भाटिया है, मैं उन्नतीस साल की हूँ और कुँवारी, अंग्रेज़ी में बोले तो ‘सिंगल’ ! मैं ग्रैंड आर्किड होटल में गेस्ट रिलेशन्स मैनेजर हूँ। अपनी यात्राओं के दौरान लक्ज़री होटलों में खाती और पाँच सितारा होटलों में रुकती हूँ; दुनिया भर की पुरानी और नयी वाइनों के नाम पूरी स्टाइल से लेती हूँ; अपनी नौकरी को झेलती हूँ; बॉस से नफ़रत करती हूँ, और खाली समय में अपने दोस्तों से जुड़ना पसन्द करती हूँ, बादस्तूर माँ की लताड़ के कोड़े खाते हुए। मुझे अपने शरीर से भी कुछ ख़ास लगाव नहीं है और मेरा कोई प्यारा सा ‘निकनेम’ भी नहीं है। ऐसे में ये परिचय घटिया है, लेकिन सच है। और देखा जाए तो यह सिर्फ़ एक झलक है उस नज़रिए की ‘जिससे’ हमारा समाज एक ख़ास उम्र की सिंगल लड़कियों को देखता है। मेरा तो मानना है कि शराब छुड़ाने वाली संस्था जैसी कोई समाज सेवी संस्था हम जैसी लड़कियों के लिए भी होना चाहिए...’’.

लगभग सिंगल पाँच सितारा होटलों की दुनिया, शैमपेन पार्टियों, समलैंगिक मस्तियों और आज के बेपरवाह ज़माने की युवा लड़कियों की मोहब्बत और सपनों के साथी की तलाश की एक बेहद शरारती, मज़ेदार और मनोरंजक दास्तां है।


‘‘बेपरवाह और बेहद मज़ाकिया ऑल्मोस्ट सिंगल अकेली औरतों की ज़िन्दगी की झलकियों के ज़रिये आपके मन को छू जाती है।’’
-हिन्दू


‘‘एक नई नस्ल की औरतों का – जो शहरी जीवन और दकियानूसी समाज के बीच सन्तुलन ढूँढती हैं – ईमानदार चित्रण’’

-एशियन एज

‘क्या आप कृपा करके बता सकते हैं कि यहाँ से मुझे किस तरफ़ जाना चाहिए ?’
‘वो तो इस पर निर्भर है कि तुम जाना कहाँ चाहती हो,’ बिल्ली ने कहा।
‘मुझे कुछ ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता कहाँ-’, एलिस ने कहा।
‘फिर कोई फ़र्क नहीं पड़ता तुम किस तरफ़ जाओ,’ बिल्ली ने कहा।
‘बस मैं वहीं पहुँच जाऊँ,’ एलिस ने समझाने की कोशिश की।
‘वो तो तुम पहुँच ही जाओगी,’ बिल्ली ने कहा, ‘अगर तुम चलती रहो तो।’

एलिस इन वंडरलैंड, लूईस केरोल

मेरी दुनिया


सुबह सुबह फोन की घण्टी से मेरी नींद टूटी। चादर के बाहर हाथ निकाल कर मैंने फ़ोन टटोला।
‘‘आईशा, उठो कुम्भकर्ण !’’ मीशा की आवाज़ शैम्पेन के बुलबुलों-सी ताज़ी थी और मेरा सिर फटा जा रहा था। कल रात को आख़िर हुआ क्या था ? ‘‘क्या टाइम हुआ है ?’’
‘‘ग्यारह...और क्या सुहाना दिन है ! कॉफ़ी पीने बरिस्ता चलें ? बाहर बैठ सकते हैं ?’’
मैंने फोन काट दिया।
फ़ोन फिर बजा। हे भगवान, कुछ औरतें कितनी ज़िद्दी होती हैं।
‘‘बोलो मिश,’’ मैंने चिड़चिड़ा कर रहा। ‘‘मुझे कॉफी नहीं पीनी। दाँतों पर दाग पड़ जाते हैं।’’
‘‘अच्छा ! और जो दिन में एक पैकेट सिगरेट पी जाती हो उसका क्या ? बहाने मत बनाओ।’’

मैंने इसका जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा। बहस करना फ़िजूल था। और साढ़े ग्यारह बजे मिलना तय हुआ। मैं 45 मिनट और सो सकती थी और इसी ख़याल से बिस्तर में जा घुसी। अन्दर से उठ रही मितली के लिए ख़ुद को तैयार किया, लेकिन उसके उठने से पहले रात की यादें ताज़ा हो आयीं। कल रात हम लड़कियों की रात थी। चलो दोबारा कहती हूँ, ठीक से : आजकल ज़्यादातर लड़कियों के साथ पार्टी करने की रातें होती है। फ़र्क इतना है कि कल रात बाहर जाने के बजाये हमने घर पर ही पार्टी की। मीशा ने कोई फ्रेंच नुमा नाम की शैम्पेन पर पैसे उड़ाये थे और कीमत वसूलने के लिए हमने पूरी बोतल खाली कर दी। लेकिन कीमत तो मैं अब चुका रही थी।

ज़्यादातर लोगों के लिए, ज़िन्दगी और प्यार, बिन्दु जोड़ने वाले खेल-सा होता है। बिन्दुओं को जोड़ती सीधी लकीरें एक सुन्दर चित्र बनाती हैं, पर बाकी बचे-खुचे लोगों के लिए – ख़ासतौर से मेरी दुनिया के लोग – बिन्दुओं की जगह सिर्फ़ छोटे-बड़े धब्बे दिखाई देते थे और कोई सीधी लकीरें नहीं थीं।

यह मेरी कहानी है और उनकी, जो मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा हैं। मेरा नाम आईशा भाटिया है। मैं उन्नतीस साल की हूँ और कुँवारी, अंग्रेज़ी में बोले तो ‘सिंगल’ ! लेकिन यह सब कहने से पहले मैं एक बात कहना चाहती हूँ और अपना वज़न तो कतई नहीं बताऊँगी। इतना कह सकती हूँ कि ठीक लगता है क्योंकि लम्बाई की वजह से मैं उतनी भारी नहीं लगती जितनी शायद हूँ। काफ़ी घाटी परिचय है यह, शराब छुड़ाने वाली किसी संस्था के इश्तिहार सरीखा, इससे ज़्यादा क्या कहूँ, समझ में नहीं आता। मुझे अपनी नौकरी बिलकुल पसन्द नहीं – असल में अपना बॉस नापसन्द है और मैं उसमें पड़ना नहीं चाहती। अभी तो मुझे अपने शरीर से भी कुछ ख़ास लगाव नहीं है और मेरा कोई प्यारा सा ‘निकनेम’ भी नहीं है। ऐसे में ये परिचय ख़राब है लेकिन सच है। और देखा जाए तो यह सिर्फ़ एक झलक है और उस नज़रिए की ‘जिससे’ हमारा समाज एक ख़ास उम्र की सिंगल लड़कियों को देखता है। मेरा तो यह मानना है कि शराब छुड़ाने वाली संस्था जैसी कोई संस्था हम जैसी लड़कियों के लिए भी होनी चाहिए। कभी नौकरी छोड़ूँगी तो मैं ही शुरू कर लूँगी।


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