लोगों की राय

लेख-निबंध >> आलाप और अन्तरंग

आलाप और अन्तरंग

गोविन्द प्रसाद

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8457
आईएसबीएन :9788126720910

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

111 पाठक हैं

संवाद-संलाप... - समाज से, अपने बीते हुए से, अपने आज से और अन्ततः अपने आप से – अपने के भी अपने से।

Aalap Aur Antrang (Govind Prasad)

संवाद-संलाप... - समाज से, अपने बीते हुए से, अपने आज से और अन्ततः अपने आप से – अपने के भी अपने से। उस अपने से जो दिन-रात समय की गर्दिश में तिल-तिल मिटता है, बनता है और इसी मिटने-बनने की प्रक्रिया में कहीं अपने समय और अपने समाज की धड़कनों को कुछ और क़रीब से सुन पाता है – यही गोचर-अगोचर सृष्टि का भीतर से सुनना–आलाप और अन्तरंग है। संवाद-संलाप में गुँथे होने के बावजूद विच्छिन्न चिन्तन से भरा यह स्वर-आलाप। स्वगत संवाद और एकालाप से लेकर संवाद-संलाप की व्याकुलता भरी बहुगुर्णी छवियाँ और भंगिमाएँ इसी आलाप की संस्कृति का आईना हैं। एक प्रकार से आलाप में आकार लेता राग का अन्तरंग...!

इसी दुनिया में रहते हुए कब किसी और दुनिया (यह ‘और’ दुनिया दूसरी अथवा पराई नहीं बल्कि यह ‘और’ तो कहीं ज़्यादा अपनी है...अपने से भी ज़्यादा अपनी) में चला जाता हूँ; कोई है मुझ में जो मुझसे सवाल-दर-सवाल करता चला जाता है, कोई है मुझमें जो टूट-टूट कर अपने को फिर-फिर गढ़ता जाता है..., कोई है मुझ में जो रक्तस्नात-सा मेरी आँखों के सामने हर घड़ी मूर्तिवत् छाया रहता है...उसकी और उसमें समायी न जाने किस-किस की आर्त पुकार लगातार मेरा पीछा करती है–इसी आर्त पुकार से उपजे कुछ भाव-विचारों के अग्नि-स्फुलिंग चटक कर बिखर गए हैं–किसी टूटे हुए तारे की तरह। गोया टूटे हुए तारों का आलाप...टूटे हुए तारों की क्षणिक कौंध का यह बिखरा-बिखरा सिमटा हुआ सा हुजूम...इस कौंध में जो जितना रोशन हो गया मेरे अघाये मन ने अधीत भाव से उसे प्रसादवत् ग्रहण कर लिया।

-गोबिन्द प्रसाद


प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book