लोगों की राय

लेख-निबंध >> कल्पतरु की उत्सवलीला

कल्पतरु की उत्सवलीला

कृष्णबिहारी मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :596
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 85
आईएसबीएन :81-263-1292-0

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

33 पाठक हैं

श्री रामकृष्ण परमहंस के जीवन प्रसंग पर केन्द्रित, अब तक प्रकाशित साहित्य से सर्वथा भिन्न यह प्रस्तुति अपनी सहजता और लालित्य में विशिष्ट है।



अपने आलोक-आपूरित लीला-प्रसंग और सहज आध्यात्मिक उद्भावना के आत्मीय स्पर्श से परमहंस श्री रामकृष्ण देव ने ब्राह्मनायक केशवचन्द्र सेन, ब्राह्म आचार्य विजयकृष्ण गोस्वामी और शशधर पण्डित जैसे शीर्षस्थ विदग्धजन के ही जीवन में रूपान्तर नहीं रचा; बल्कि समाज में कदाचार-लिप्त के रूप में कुख्यात (नाट्यशिल्पी एवं रंगकर्मी गिरीशचन्द्र घोष), पतिता नारी चरित्र (वारांगना-अभिनेत्री ‘नटी विनोदिनी’) और अस्पृश्य –अभिशाप से आहत लोगों (दक्षिणेश्वर काली मन्दिर के जमादार रसिकलाल हाड़ी) का अपने अन्तरंग संस्पर्श से ग्लानि-मोचन कर उनके मनः लोक को उज्जवल सोपान की ओर प्रवृत्त किया दुर्भाग्यग्रस्त नारी-चरित्र में आशा आश्वासन रचकर मरु-मनोभूमि को हरीतिमा-सम्पन्न किया जैसे अभिशप्त अहल्या का राम ने उद्धार किया था। उन्नीसवीं शताब्दी के सांस्कृतिक नवजागरण का वह उज्ज्वल अध्याय निपढ़ परमहंस श्री रामकृष्ण लीला-प्रसंग ने रचा था।

उनकी सहज-सरल भाषा को बाँच–समझकर अपदार्थ के रूप में परिचित देश का एक बड़ा अवहेलित वर्ग आत्म-विकास के प्रति आश्वस्त हो गया था। सामान्य जन के लिए परमहंसदेव की राह और गँवई भाषा-बोली अतिशय सुगम और अपनी जान पड़ती थी। परमहंसदेव की आत्यन्तिक सरलता और ग्राम्य भंगिमा ही पण्डितों के मन में संशय जगाती थी। किंचित् निकट पहुँचने पर उन्हें पोथी विद्या के स्वामी पाखण्डी पण्डितों पर विद्रूप करनेवाले रामकृष्ण परमहंस की ऊँचाई का बोध होता था, और तब अपनी लघुता उन्हें ठाकुर के सामने प्रणत कर देती थी। परमंहस तत्त्व की गहरी-गूढ़ बातों को घरेलू दृष्टान्त के माध्यम से, हँसी-परिहास करते खोलकर एक अपरिचित, किन्तु मोहक उजास रच देते थे। और लाटू जैसे निरक्षर ‘आपनजन’ भी विद्या के बोध से आलोकित हो जाते थे। नवजागरण की विचारणा सरणि जहाँ विशिष्ट गोष्ठी तक सीमित थी, वही परमहंसदेव की लीला–रचित उजास जन-जन को स्पर्श करती थी। लोक–मानस में आश्वस्ति जगी की धर्म जाति, कुल विद्या और वित्त की विशिष्टता का मुखापेक्षी नहीं होता, वह उन सबका होता है, जो उसे हृदय से वरण करते है। मनुष्य की कूट बुद्धि से निर्मित घेरानों का धर्म बन्दी नहीं होता। छल बाँकपन और असत्य का संहार ही धर्म का मुख्य प्रयोजन है। विशिष्ट पण्डितों, श्रीमन्तों और सामान्यजन को रामकृष्ण परमहंस एक ही भाषा में, अपनी सहज–सरल बोली में सम्बोघित करते थे। उसी बोली में तत्व की गूढ़ बातें भी समझाते थे, जिसमें गँवई हँसी-ठिठोली करते थे। इसलिए उनका प्रवेश ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के आँगन और रानी रासमणि के महल से लेकर राश्के (रसिकलाल हाड़ी) और अघोरमणि (गोपाल माँ) के आँगन तक समान रूप से था। और शुचिता-अशुचिता का निर्णय करनेवाला विवेक नितान्त प्रखर। इस बिन्दु पर वर्ण-विद्या की विशिष्टता का परमहंसदेव के यहाँ कोई अर्थ नहीं था। व्यक्ति के चरित्र के आधार पर ही वे पवित्रता का निर्णय करते थे। अपनी अन्तर्भेदी प्रातिभ दृष्टि से वे स्वांग मुद्रा में से, पण्डिताई के आंतक से, वर्ण की विशिष्टता के आवरण में यत्नपूर्वक छिपाये–दबाये गये चारित्रिक कलुष को रामकृष्णदेव देख-चीन्ह कर सटीक निष्कर्ष निकाल लेते थे। मन्दिर की मालकिन रानी रासमणि की मर्यादा-अनवधानता हो या मन्दिर के पुजारी, शास्त्रज्ञान के दर्प से दहकते रहने वाले, वाकसिद्धि के स्वामी, अपने चचेरे बड़े भाई पं. हलधारी चट्टोपाध्याय का चारित्रिक स्खलन हो, रामकृष्ण परमहंस की दृष्टि में समान रूप से अक्षम्य अपराध था, जिस पर तीखी टिप्पणी करते वे सकुचाते नहीं थे।

...Prev |

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book