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उपन्यास >> सुमन

सुमन

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8684
आईएसबीएन :0

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सुमन...

सुमन

 

संध्या का आगमन होते ही सूर्य अपनी समस्त किरणों को समेटकर धरती के आंचल में मुखड़ा छिपाने की तैयारी करने लगा। रजनी अपने आंचल से नग्न वातावरण को ढांपने लगी। ये क्रिया प्रतिदिन होती थी...प्रकृति का यह अनुपम रूप प्रतिदिन सामने आता था...और इसके साथ ही गिरीश के हृदय की पीड़ाएं भयानक रूप धारण करने लगतीं।

उसके सीने में दफन गमों का धुआं मानो आग की लपटें बनकर लपलपाने लगता था। उसके मन में एक टीस-सी उठती...यह एक ठंडी आह भरके रह जाता...। ये नई बात नहीं थी, प्रतिदिन ऐसा ही होता...।
 
जैसे ही संध्या के आगमन पर सूर्य अपनी किरणें समेटता...जैसे ही किरणें सूर्य में समाती जातीं वैसे ही उसके गम, उसके दुख उसकी आत्मा को धिक्कारने लगते, उसके हाल पर कहकहे लगाने लगते।

प्रतिदिन की भांति आज भी उसने बहुत चाहा...खुद को बहुत रोका किंतु वह नहीं रुक सका...इधर सूर्य अपनी लालिमा लिए धरती के आंचल की ओर बढ़ा, उधर गिरीश के कदम स्वयं ही बंध गए...उसके कदमों में एक ठहराव था मानो वह गिरीश न होकर उसका मृत जिस्म हो।

भावानाओ के मध्य झूलता...गमों के सागर में डूबता...वह सीधा अपने घर की छत पर पहुँचा और फिर मानो उसे शेष संसार का कोई भान न रहा।

उसकी दृष्टि अपनी छत से दूर एक दूसरी छत पर स्थिर होकर रह गई थी। यह छत उसके मकान से दो-तीन छतें छोड़कर थी। उस मकान की एक मुंडेर को बस वह उसी मुंडेर को निहारे जा रहा था...मुंडेर पर लम्बे समय से पुताई न होने के कारण काई-सी जम गई थी।

वह एकटक उसी छत को तकता रहा। इस रिक्त छत पर न जाने वह क्या देख रहा था। छत को निहारते-निहारते उसके नेत्रों से मोती छलकने लगे। फिर भी वह छत को निहारता ही रहा...निहारता ही चला गया।...यहां तक कि सूर्य पूर्णतया धरती के आंचल में समा गया। रात्रि ने अपना आंचल वातावरण को सौंपा...वह छत...वह मुंडेर सभी कुछ अंधकार में विलुप्त-सी हो गई किंतु गिरीश मानो अब भी कुछ देख रहा था, उसे वातावरण का कोई आभास न था।

सहसा वह चौंका...किसी का हाथ उसके कंधे पर आकर टिका...वह घूमा...सामने उसका दोस्त शिव खड़ा था...शिव ने उसकी आंखों से ढुलकते आंसुओं को देखा, धीमे से वह बोला–‘‘अब वहां क्या देख रहे हो? वहां अब कुछ नहीं है दोस्त...वह एक स्वप्न था गिरीश जो प्रातः के साथ छिन्न-छिन्न हो गया...भूल जाओ सब कुछ...कब तक उन गमों को गले लगाए रहोगे?’’

‘‘शिव, मेरे अच्छे दोस्त।’’ गिरीश शिव से लिपट गया–‘‘न जाने क्यों मुझे अमृत के जहर बनने पर भी उसमें से अमृत की खुशबू आती है।’’

‘‘आओ गिरीश मेरे साथ आओ।’’ शिव ने कहा और उसका हाथ पकड़कर छत से नीचे की ओर चल दिया।

शिव गिरीश का एक अच्छा दोस्त था। शायद वह गिरीश की बदनसीबी की कहानी से परिचित था तभी तो उसे गिरीश से सहानुभूति थी, वह गिरीश के गम बांटना चाहता था।

अतः वह उसका दिल बहलाने हेतु उसे पास ही बने एक पार्क में ले गया।

अंधेरा चारों ओर फैल चुका था, पार्क में कहीं-कहीं लैम्प रोशन थे। वे दोनों पार्क के अंधेरे कोने में पहुँचकर भीगी घास पर लेट गए। गिरीश ने सिगरेट सुलगा ली।
धुआं उसके चेहरे के चारों ओर मंडराने लगा। साथ ही वह अतीत की परछाइयों में घिरने लगा।

शिव जानता था कि इस समय उसका चुप रहना ही श्रेयकर है।

‘‘मैं तुमसे प्यार करती हूं भवनेश, सिर्फ तुमसे।’’ एकाएक उनके पास की झाड़ियों के पीछे से एक नारी स्वर उनके कानों के पर्दों से आ टकराया।

‘‘लेकिन मुझे डर है सीमा कि मैं तुम्हें पा न सकूंगा...तुम्हारे पिता ने तुम्हारे लिए जिस वर को चुना है वह कोई गरीब कलाकार नहीं बल्कि किसी रियासत का वारिश है।’’ वह पुरुष स्वर था।

‘‘भवनेश!’’ नारी का ऐसा स्वर मानो पुरुष की बात ने उसे तड़पा दिया हो–‘‘ये तुम कैसी बातें करते हो? मैं तुम्हारे लिए सारी दुनिया को ठुकरा दूंगी। मैं तुम्हारी कसम खाती हूं, मेरी शादी तुम्हीं से होगी, मैं वादा करती हूं, मैं तुम्हारी हूं और हमेशा तुम्हारी ही रहूंगी, भवनेश! मैं तुमसे प्यार करती हूं, सत्य प्रेम।’’
झाड़ियों के पीछे छुपे इस प्रेमी जोड़े के वार्तालाप का एक-एक शब्द वे दोनों सुन रहे थे। न जाने क्यों सुनते-सुनते गिरीश के नथुने फूलने लगे, उसकी आँखें खून उगलने लगीं, क्रोध से वह कांपने लगा और उस समय तो शिव भी बुरी तरह उछल पड़ा जब गिरीश किसी जिन्न की भांति सिगरेट फेंककर फुर्ती के साथ झाड़ियों के पीछे लपका। वह प्रेमी जोड़ा चौंककर खड़ा हो गया।
 
इससे पूर्व कि कोई भी कुछ समझ सके।
चटाक।
एक जोरदार आवाज के साथ गिरीश का हाथ लड़की के गाल से टकराया।

सीमा, भवनेश और शिव तो मानो भौंचक्के ही रह गए।
तभी गिरीश मानो पागल हो गया था। अनगिनत थप्पड़ों से उसने सीमा को थपेड़ दिया और साथ ही पागलों की भांति चीखा।

‘‘कमीनी, कुतिया, तेरे वादे झूठे हैं। तू बेवफा है, तू भवनेश को छल रही है। तू अपना दिल बहलाने के लिए झूठे वादे कर रही है। नारी बेवफाई की पुतली है। भाग जा यहां से और कभी भवनेश से मत मिलना। मिली तो मैं तेरा खून पी जाऊंगा।’’

भौंचक्के-से रह गए सब। सीमा सिसकने लगी।
शिव ने शक्ति के साथ गिरीश को पकड़ा और लगभग घसीटता हुआ वहाँ से दूर ले गया। सिसकती हुई सीमा एक वृक्ष के तने के पीछे विलुप्त हो गई। भवनेश वहीं खड़ा न जाने क्या सोच रहा था।

गिरीश अब भी सीमा को अपशब्द कहे जा रहा था, शिव ने उसे संगमरमर की एक बेंच पर बिठाया और बोला–‘‘गिरीश, यह क्या बदतमीजी है?’’

‘‘शिव, मेरे दोस्त! वह लड़की बेवफा है। भवनेश को उस डायन से बचाओ। वह भवनेश का जीवन बर्बाद कर देगी। उस चुडैल को मार दो।’’

तभी भवनेश नामक वह युवक उनके करीब आया। वह युवक क्रोध में लगता था। गिरीश का गिरेबान पकड़कर वह चीखा–‘‘कौन हो तुम? क्या लगते हो सीमा के?’’

‘‘मैं! मैं उस कमीनी का कुछ नहीं लगता दोस्त लेकिन मुझे तुमसे हमदर्दी है। नारी बेवफा है। तुम उसकी कसमों पर विश्वास करके अपना जीवन बर्बाद कर लोगे। उसके वादों को सच्चा जानकर अपनी जिन्दगी में जहर घोल लोगे। मान लो दोस्त, मेरी बात मान लो।’’

‘‘मि...!’’
अभी युवक कुछ कहना ही चाहता था कि शिव उसे पकड़कर एक ओर ले गया और धीमे-से बोला–‘‘मिस्टर भवनेश, उसके मुंह मत लगो...वह एक पागल है।’’

काफी प्रयासों के बाद शिव भवनेश नामक युवक के दिमाग में यह बात बैठाने में सफल हो गया कि गिरीश पागल है और वास्तव में गिरीश इस समय लग भी पागल जैसा ही रहा था। अंत में बड़ी कठिनाई से शिव ने वह विवाद समाप्त किया और गिरीश को लेकर घर की ओर बढ़ा।

रास्ते में शिव ने पूछा–‘‘गिरीश...क्या तुम उन दोनों में से किसी को जानते हो?’’

‘‘नहीं...मुझे नहीं मालूम वे कौन हैं? लेकिन शिव, जब भी कोई लड़की इस तरह के वादे करती है तो न जाने क्यों मैं पागल-सा हो जाता हूं...न जाने क्या हो जाता है मुझे?’’

‘‘विचित्र आदमी हो यार...आज तो तुमने मरवा ही दिया था।’’ शिव ने कहा और वे घर आ गए।

अंदर प्रवेश करते ही नौकर ने गिरीश के हाथों में तार थमाकर कहा–‘‘साब...ये अभी-अभी आया है।’’

गिरीश ने नौकर के हाथ से तार लिया और खोलकर पढ़ा।
‘गिरीश! ७ अप्रैल को मेरी शादी में नहीं पहुँचे तो शादी नहीं होगी।
–तुम्हारा दोस्त
शेखर।’

 

पढ़कर स्तब्ध सा रह गया गिरीश।
शेखर...उसका प्यारा मित्र...उसके बचपन का साथी, अभी एक वर्ष पूर्व ही तो वह उससे अलग हुआ है...वह जाएगा...उसकी शादी में अवश्य जाएगा लेकिन पांच तारीख तो आज हो ही गई है...अगर वह अभी चल दे तब कहीं सात की सुबह तक उसके पास पहुंचेगा।

उसने तुरंत टेलीफोन द्वारा अगली ट्रेन का टिकट बुक कराया और फिर अपना सूटकेस ठीक करके स्टेशन की ओर रवाना हो गया।

कुछ समय पश्चात वह ट्रेन में बैठा चला जा रहा था...क्षण-प्रतिक्षण अपने प्रिय दोस्त शेखर के निकट। उसकी उंगलियों के बीच एक सिगरेट थी। सिगरेट के कश लगाता हुआ वह फिर अतीत की यादों में घिरता जा रहा था, उसके मानव-पटल पर कुछ दृश्य उभर आए थे...उसके गमगीन अतीत की कुछ परछाइयां। उसकी आंखों के सामने एक मुखड़ा नाच उठा...चांद जैसा हंसता-मुस्कराता प्यारा-प्यारा मुखड़ा। यह सुमन थी।

उसके अतीत का गम...बेवफाई की पुतली...सुमन। वह मुस्करा रही थी...मानो गिरीश की बेबसी पर अत्यंत प्रसन्न हो।

सुमन हंसती रही...मुस्कराती रही...गिरीश की आंखों के सामने फिर उसका अतीत दृश्यों के रूप में तैरने लगा...हां सुमन इसी तरह मुस्कराती हुई तो मिली थी...सुमन ने उसे भी हंसाया था...किंतु...किंतु...अंत में...अंत में...उफ। क्या यही प्यार है...इसी को प्रेम कहते हैं।

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