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उपन्यास >> सुमन

सुमन

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8684
आईएसबीएन :0

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सुमन...

 

पौधे के शीर्ष पर एक पुष्प होता है...हंसता, खिलता, मुस्कराता हुआ।

एक फूल...जो खुशियों का प्रतीक है, प्रसन्नताओं का खजाना है...किंतु फूल के नीचे...जितने नीचे चलते चले जाते हैं वहां कांटों का साम्राज्य होता है। जो अगर चुभ जाएं तो एक सिसकारी निकलती है...दर्द भरी सिसकारी।

जब कोई बच्चा हंसता है, तो बुजर्ग कहते हैं कि अधिक मत हंसाओ वरना उतना ही रोना पड़ेगा। क्या मतलब है इस बात का? ये उनका कैसा अनुभव है?

क्या वास्तव में हंसने के बाद रोना पड़ता है?
ठीक इसी प्रकार बुजुर्गों का अनुभव शायद ठीक ही है...प्रत्येक खुशी गम का संदेश लाती है...प्रत्येक प्रसन्नता के पीछे कष्ट छुपे रहते हैं। कुछ ऐसा ही अनुभव गिरीश का भी था।

उसके जीवन में सुमन आई...हजारों खुशियां समेटकर...इतने सुख लेकर कि गिरीश के संभाले न संभले।
 
उसने गिरीश को धरती से उठाकर अम्बर तक पहुंचा दिया।
 
गिरीश जिसे स्वप्न में भी ख्याल न था कि वह किसी देवी के हृदय का देवता भी बन सकता है।

पहली मुलाकात...।
उफ! उन्हें क्या मालूम था कि इतनी साधारण-सी मुलाकात उनके जीवन की प्रत्येक खुशी और गम बन जाएंगे उन्हें इतना निकट ला देगी। वे एक-दूसरे के हृदयों में इस कदर बस जाएंगे? एक-दूसरे से प्यारा उन्हें कोई रहेगा ही नहीं।

अभी तक तो वह बाहर पढ़ता था...इस शहर से बहुत दूर।
वह लगभग बचपन से ही अपने चचा के साथ पढ़ने गुरुकुल चला गया था, जब वह पढ़ाई समाप्त करके घर वापस आया तो पहली बार उसने अपना वास्तविक घर देखा।

जब वह अपने ही घर में आया तो एक अनजान की भांति उसके आने के समाचार से घर में हलचल हो गई। वह अंदर आया, मां ने वर्षों बाद अपने पुत्र को देखा तो गले से लगा लिया, बहन ने एक मिनट में हजार बार भैया...भैया कहकर उसके दिल को खुश कर दिया।

खुशी और प्रसन्नताओं के बाद–
उसकी निगाह एक अन्य लड़की पर पड़ी जो अनुपम रमणी-सी लगती थी...उसने बड़े संकोच और लाज वाले भाव से दोनों हाथ जोड़कर जब नमस्ते की तो न जाने क्यों उसका दिल तेजी से धड़कने लगा...वह उसकी प्यारी आंखों में खो गया था। उसकी नमस्ते का उत्तर भी वह न दे सका। रमणी ने लाज से पलकें झुका लीं।

किंतु गिरीश तो न जाने कौन-सी दुनिया में खो गया था।

यूं तो गिरीश ने एक-से-एक सुंदरी देखी थी लेकिन न जाने क्यों उस समय उसका दिल उनके प्रति क्रोध से भर जाता था जब वह देखता कि वे आधुनिक फैशन के कपड़े पहनकर अपने सौंदर्य की नुमायश करती हुई एक विशेष अंदाज में मटक-मटककर सड़क पर निकलतीं। न जाने क्यों गिरीश को जब उनके सौंदर्य से नफरत-सी हो जाती, मुँह फेर लेता वह घृणा से।

किंतु ये लड़की...सौंदर्य की ये प्रतिमा उसे अपने विचारों की साकार मूर्ति-सी लगी।

उसे लगा जैसे उसकी कल्पना उसके समक्ष खड़ी है।
वह उसे उन सभी लड़कियों से सुंदर लगी जो अपने सौंदर्य की नुमायश सड़कों पर करती फिरती थीं।
 
वह चरित्र का उपासक था...सौंदर्य का नहीं।
वह जानता था–न जाने कितने नौजवान, युवक-युवतियां एक-दूसरे के सौंदर्य से...कपड़ों से...तथा अन्य ऊपरी चमक-दमक से प्रभावित होकर अपनी जवानी के जोश को प्यार का नाम देने लगते हैं। किंतु जब उन्हें पता लगता है कि इस सौंदर्य के पीछे जिसका एक उपासक था, एक घिनौना चरित्र छुपा है...यह सौंदर्य उसका नहीं बल्कि सभी का है। कोई भी इस सौंदर्य को अपनी बाहों में कस सकता है तो उसके दिल को एक ठेस लगती है...उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। तभी तो गिरीश सौंदर्य का उपासक नहीं है, वह उपासक है चरित्र का। उसकी निगाहों में नारी का सर्वोत्तम गहना चरित्र ही है–उसका सौंदर्य नहीं। उसे कितनी बार प्यार मिला किंतु वह जानता था कि वह प्यार के नाम को बदनाम करने वाले सौंदर्य के उपासक हैं। कुछ जवानियां हैं जो अपना बोझ नहीं संभाल पा रही हैं।

किंतु आज...आज उसके सामने एक देवी बैठी थी...हां पहली नजर में वह उसे देवी जैसी ही लगी थी।

उसके जिस्म पर साधारण-सा कुर्ता और पजमियां...वक्ष-स्थल पर ठीक प्रकार से पड़ी हुई एक चुनरी...सबसे अधिक पसंद आई थी उसे उसकी सादगी।

‘‘क्या बात है, भैया...क्या देख रहे हो?’’ उसकी बहन ने उसे चौंकाया।

‘‘अ...अ...क...कुछ नहीं...कुछ नहीं।’’ गिरीश थोड़ा झेंपकर बोला।

‘‘लगता है भैया तुम मेरी सहेली को एक ही मुलाकात में दिल दे बैठे हो। इसका नाम सुमन है।’’

और सुमन...।
सुनकर वह तो एक पल भी वहां न ठहर सकी...तेजी से भाग गई वह।

भागते-भागते उसने गिरीश की ये आवाज अवश्य सुनी–
‘‘क्या बकती हो, अनीता?’’ गिरीश ने झेंप मिटाने के लिए यह कहा तो अवश्य था किंतु वास्तव में उसे लग रहा था जैसे अनीता ठीक ही कहती है।
 
सुमन...कितना प्यारा नाम है। वास्तव में सुमन जैसी ही कोमल थी वह।

बस...यह थी...उसकी पहली मुलाकात...सिर्फ क्षण-मात्र की।
इस मुलाकात में गिरीश को तो वह अपनी भावनाओं की साकार मूर्ति लगी थी किंतु सुमन न जान सकी थी कि गिरीश की आंखों में झांकते ही उसका मन धक् से क्यों रह गया।

उसके बाद–
वे लगभग प्रतिदिन मिलते...अनेकों बार।

दोनों के कदम एक-दूसरे को देखकर ठिठक जाते...नयन स्थिर हो जाते...दिल धड़कने लगता किंतु फिर शीघ्र ही सुमन उसके सामने से भाग जाती।

क्रम उसी प्रकार चलता रहा...किंतु बोला कोई कुछ नहीं...मानो आंखें ही सब कुछ कह देतीं। वक्त गुजरता रहा...आंखों के टकराव के साथ ही साथ उसके अधर मुस्कराने लगे।

वक्त फिर आगे बढ़ा...मुस्कान हंसी में बदली...बोलता कोई कुछ न था किंतु बातें हो जातीं...प्रेमियों की भाषा तो प्रेमी ही जानें...दोनों ही दिल की बात अधरों पर लाना चाहते किंतु एक दूसरे की प्रतीक्षा थी।

दिन बीतते गए।
सुमन पूरी तरह से उसके मन-मंदिर की देवी बन गई। किंतु अधरों की दीवार अभी बनी हुई थी। कहते हैं सब कुछ वक्त के साथ होता है...एक ही मुलाकात में कोई किसी के मन में तो उतर सकता है किंतु प्रेम का स्थान ग्रहण नहीं कर सकता, प्रेम के लिए समय चाहिए...अवसर चाहिए...ये दोनों ही वस्तुएं सुमन और गिरीश के पास थीं अर्थात पहले लाज का पर्दा हटा...आमने-सामने आकर मुस्कराने लगे...धीरे-धीरे दूर से ही संकेत होने लगे।

देखते-ही-देखते दोनों प्यार करने लगे। किंतु शाब्दिक दीवार अभी तक बनी हुई थी। अंत में इस दीवार को भी गिरीश ने ही तोड़ा। साहस करके उसने एक पत्र में दिल की भावनाएं लिख दीं। उत्तर तुंरत मिला–आग की तपिश दोनों ओर बराबर थी।

फिर क्या था...बांध टूट चुका था...दीवार हट चुकी थी...पत्रों के माध्यम से बातें होने लगीं। एक दूसरे के पत्र का बेबसी से इंतजार करने लगे। पहले जमाने की बातें हुईं...फिर प्यार की बातों से पत्र भरे जाने लगे...धीरे-धीरे मिलन की लालसा जाग्रत हुई।

पत्रों में ही मिलन के प्रोगाम बने–फिर मिलन भी जैसे उनके लिए साधारण बात हो गई। वे मिलते, प्यार की बातें करते, एक-दूसरे की आंखों में खो जाते...और बस...।

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