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नेताजी कहिन (सजिल्द)

मनोहर श्याम जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8717
आईएसबीएन :9788171789085

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नेताजी पर आधारित व्यंग्य लेख...

Netaji kahin Manohar Shyam Joshi

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

साप्ताहिक हिन्दुस्तान में अनियमित रूप से प्रकाशित स्तंभ नेताजी कहिन के साथ कई विचित्रताएँ जुड़ी हैं। पहली तो यह कि संपादक ‘म. श्या. जो.’ को एक बार नेताजी पर छोटा-सा व्यंग्य लिखने के कारण पाठकों ने यह ‘सजा’ दी कि वह लगातार व्यंग्य स्तंभ लिखें, संपादकी न बघारे ! दूसरी यह कि समसामयिक घटनाओं को विषय बनाने के बावजूद यह स्तंभ ‘सनातन’ में भी खूंटा गाड़े रहा। तीसरी यह कि राजनीतिक बिरादरी की संस्कारहीनता उजागर करनेवाले ये व्यंग्य कुछ महत्त्वपूर्ण पाठकों को स्वयं संस्कारहीन मालूम हुए। और चौथी यह कि बैसवाड़ी और भोजपुरी की छटा दिखाती ऐसी नेताई भाषा, कहते हैं अब तक मात्र सुनी गई थी लेकिन इस किताब में वह लिखी हुई है। बल्कि बकायदा छपी हुई। है।

व्यंग्य इन लेखों का दुधारा है। नेताओं के साथ-साथ ‘किर्रुओं’ पर भी उसकी धार है। ‘किर्रु’ यानी जो नेतोओं को कोसते भी रहते हैं और जीते भी रहते हैं उन्हीं के आसरे। दरअसल यहीं ‘म. श्या. जो’ के व्यंग्य से बचाव मुश्किल है क्योंकि तिलमिला उठता है हमारे ही भीतर बैठा कोई किर्रु ! निश्चय ही हिन्दुस्तान’ के नेताओं और ‘किर्रुओं पर किए गए ये व्यंग्य हिन्दी के कामचलाऊ’ स्वरूप, राष्ट्रीय चरित्र और जातीय स्वभाव का बेहतरीन खुलासा करते हैं।

नेता जी का निर्धारित लक्ष्यः
एक करोड़ रुपया


नेता जी किसी भी दल के नेता नहीं है। नेता-बिरादरी में उठना-बैठना उन्हें पसन्द नहीं है इसलिए दोस्तों ने उन्हें यह नाम दे डाला है। लिबास भी उनका यूथ0-लीडरवाला है-खादी की गंजी (जिसमें नोटों की गड्डी रखने के लिए गहरी जेब हो) खादी का कुर्ता-पैण्ट, जवाहर जाकेट और कोल्हापुरी चप्पल। गाँधी टोपी नहीं पहनते कि ‘ऊ सब ढकोसला अब चलता नहीं। एक तो ढकोसला करो, दूसरे खतरा मोल लो कि कोई भी एइरा-गइरा आ के उछाल दे टोपी ससुरी को।’
नेताजी को नेताओं की कृपा से नौकरियाँ मिलती रहती थीं लेकिन नौकरी उन्हें कभी रास नहीं आयी- ‘कहीं अपने जइसो का रासन-पानी नौकरी ससुरी से चल पाया है आज तक ?’ वह समझते हैं कि महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की सोहबत करते-करते वह स्वयं एक दिन महत्त्वपूर्ण हो जायेंगे- ‘भइया पालिटिक्स में हम जइसे चे गैन दालों ही की दाल गलती हय।’ न भी महत्त्वपूर्ण हुए तो कोई गम नहीं, ‘अरे माल-मत्ता तो बनबे करेगा !’ परसों शाम नेताजी हमारे यहाँ टपक पड़े।

मीटर-डाउन टैक्सी उन्होंने बाहर रोके रखी। हमने इस फिजूलखर्ची पर उन्हें प्रवचन नहीं दिया क्योंकि यह प्रवचन विशेष, नेताजी अनेक बार हमसे सुन चुके हैं। उनका कहना है कि ‘जब आखिर में पेमेण्ट किसी भगत से ही कराना हय तो इस टैक्सी ड्राइवर की गरीबी क्यों न हटवा दें। अउर बार-बार टैक्सी-स्कूटर खोजना ऊ सब हम से होता नहीं।’
नेताजी ने मुँह-हाथ धोया। शरबत पिया।, कुर्ता उतारा। गंजी से झाँकती गाड़ियों को भीतर धकेला और तकिया लेकर खटिया पर पसर गये
हमने कहा, ‘‘लगता है आज कोई तगडी मुर्गी फंसी है !’’
नेताजी बोले, ‘‘अजी मुर्गी कहाँ हम-जइसे छुटभइय्यों के भाग में ? गउरइया ससुरी फँस जाये तो गनीमत।’’ फिर एक गहरा निश्वास छोड़कर उन्होंने कहा, ‘‘ब-हूत ‘‘मन्दा चल रहा है धन्धा। सैकड़ों-हजार से किसी का काम चला आज तक ? अचार मिलने वाली बात हुई यह तो, डउल करना हय आहार का !’’

हमने पूछा, ‘‘सैकड़ा हजार अगर अचार है तो आहार भला किसे कहा जाता है।’’ ‘‘कक्का,’’ नेता जी बोले, भला बताओ, वह नेता ही क्या जिसने अपना टार्गेट कम-से-कम एक करोड़ न रखा हो। ज्यादा लालच ठीक नहीं, एक करोड़ रुपय्या हुई जाय बस !’’
‘‘चाहे कैसे भी ?’’ हमने टोका।
‘‘अब इसी कइसे-एइसे से हमें चिढ़ है कक्का ! अरे पइसा जइसे पइदा किया जाता है वइसे ही किया जायेगा ना, महीनत-मसक्कत से ! घर बइठे तो हमें मिल नहीं जायेगा। दउड़ेंगे। धूपेंगे, सऊदा करवायेंगे लोगन का सऊदा-सुल्फ के लिए चार अपनी गाँठ में भी आयेंगे।’’
‘‘हेरा-फेरी को मेहनत-मशक्कत कहते हो ?’’ ‘‘फेरी लगाना मेहनत का काम है कक्का, अउर, हेरा-फेरी में तो पसीने छूट जाते हैं कमजोर लोगन के। अच्छी सेहत अउर मोटी चमड़ी, दुई ठो चीज जरूरी हय इस धंधे के लिए।’’
‘‘लोग क्या कहेंगे ?’’

‘‘कउन लोग ? जो कुछ कहिने की हइसियत रखते हैं, उन्हें उन्हें खुदे इस धन्धे से फुर्सत नहीं ससुर कि किसी से कुछ कहें। अउर जो हैसियत नहीं रखते उनके कहिने से क्या होता है ? हाथी जा रहा है अपनी सान से, भूँकने दो कुत्तों को। जियादा ही भूँके तो डाल दो एक टुकड़ा उन्हें भी।’’
‘‘हैसियतवाले सब लोग भ्रष्ट है ? कोई अपवाद नहीं ?’’
‘‘अपवाद कोई होगा तो मारा जायेगा ससुरा। हइसियत छिनने की नउबत आयेगी तो खुद सही लाइन पर लग जाएगा।’’
‘‘सब लोग घूम लेते हैं ‍? हर काम घूम से होता है ?’’ हमने पूछा।
‘‘किस्तमवाले लेते हैं, किस्मतवालों का होता है !’’ नेताजी ने कहा और चाँदी की डिबिया में से पान मसाले और तम्बाकू का मिश्रण ग्रहण किया। पीक-भरे मुँह से वह बुदबुदाये, ‘‘जीने के पचासियों तरीके हैं, कोई जीना चाहे तब न ! मिडिल क्लासवाले कलम-घिस्सू किर्रू क्या जानें जिन्दगी किस चीज का नाम हय ? जो लाइन से नहीं लगता कक्का उस ससुरे की जिन्दगी मार तमाम लाइनों में लगे रहने में बीत जाती है। कभी रासन की लाइनों में लगे हैं, कभी दूध की, कभी बस की लाइन में लगे हैं, कभी खइराती दवाखाने की ! ससुर मरते हैं तो घरवालो को लकड़ी के लिए भी लाइन लगानी होती है।’’
‘‘सब !’’ नेताजी ने पीक थूकी, नौकर को बुलाकर पचास का नोट दिया और अतिरिक्त जलपान की व्यवस्था की। फिर उन्होंने अपने गुरुजी का एक किस्सा सुनाया।

‘‘एक मर्त्तबा,’’ नेता जी ने कहा और थोड़ा चूना जबान पर लगाया, ‘‘गुरुजी ने एक मोटी आसामी का काम हाथ में लिया। कुछ दिन बाद असामी मिला, बोला, चिन्ता में हूँ वह काम होगा कि नहीं ? गुरुजी बोले, आप काहे चिन्ता करते हैं ? अरे आपकी ओर से चिन्ता करने के पइसे हम लिए हैं कि नहीं ? काम आपका सब फिट है। मामला टिचन समझिए। असामी बोला, लेकिन उसमें तो ऊँचे लोग फइसला करने बैठे हैं। गुरुजी खीझे, बोले, बता दिया काम फिट हय, जियादा डीटेल में जाने की जरूरत नहीं। आसामी खुश हुआ। फिर उसने अपने अन्दाजे से एक रकम बतायी कि इतने में ही हो गया होगा काम। गुरुजी भिन्नाये, उन्होंने सुनायी फटकार। कहिन के, आप बिल्कुल आउट आफ डेट हो चले हैं। आपके जमाने में काम सस्ते में होते थे लेकिन होते वही थे जिनके होने की गुंजाइस हो। आज हर तरह काम काराये जा सकते हैं। पइसा, अलबत्ता, पहले से बहुत जियादा लगता हय।’’

‘‘अच्छा यह बताओ, एक ही करोड़ क्यों ?’’ हमने पूछा, ‘‘एक अरब क्यों नहीं ?’’
‘‘कहा न जियादा लालच ठीक नहीं।’’ नेताजी बोले, ‘‘एक करोड़ हो तो घर में मउज-मस्ती ठीक रहे। जहाँ जाये वहाँ राशन पानी, रिहाइस घोड़ा-गाड़ी सबका इन्तजाम फिट हो। भगत मण्डली हमेसा साथ रहे, भजन-कीर्तन चलता रहे। बस !’’
‘‘अच्छे काम क्यों न करो, जिससे समाज में नाम हो।’’ हमने शंका की। ‘‘
‘‘आपकी सुई भी रिकार्ड पर वहीं अटकी हय कक्का।’’ नेताजी बोले, ‘‘किसी का कोई काम करा देना पाप है कि पुन्न ? जो लोग यह पुन्न कमा रहे हैं वे समाज में बदनाम हैं क्या ? हमें ही लो, आपो हमें नेताजी कहते हंय कि नहीं ? यह बदनाम हुआ कि नाम ?’’
‘‘कोई ऐसा काम करने की इच्छा नहीं होती कि लोग याद करें ?’’
‘‘लोग भगवान के बाद हमें ही तो याद करते हैं।
काम फँसा, याद किया।’’

‘‘वह याद करना अलग है !’’ हमने कहा, ‘‘मरने के बाद भी तुम्हें याद किया जाए कोई ऐसा काम करना चाहिए।’’
‘‘अब मरने के बाद कउन किसको याद करता है यह किस मरने वाले ने देखा है !’’ नेताजी बोले , ‘‘हिन्दू अपने शास्त्र में मामला जरूर फिट कर गये हैं कि तीन पीढी़ तक तर्पन हो और याद किया जाये। लेकिन रासन-पानी होगा तभी न सराद्ध-तर्पन होगा। तो अक्लमन्दी इसी में है कि आदमी अपने हाथों तीन पीढी़ के रासन-पानी का प्रबन्ध कर जाये। महँगाई के इस जमाने में भी एक करोड़ रुपया तीन पीढी़ के रासन-पानी के लिए काफी है।’’
नेताजी खटिया से उठे, फोन की ओर बढ़े, नम्बर घुमाते उन्होंने मुस्कराकर कहा, ‘‘इसी मारे हमने एक करोड़ का टार्गेट रखा है। देस के उनहत्तर करोड़ लोग ससुर, एक-एक करोड़ का टार्गेट बना लें तो उद्धार न हो जाये। मगर कोई जीना चाहे तब न।’’

हम कहना चाहते थे कि लुटने के लिए इस दरिद्र देश में 69 करोड़ के लिए एक-एक करोड़ रुपया कहाँ। देश में ऐसी समृद्धि कहाँ पैदा होगी कि सबको अच्छा ‘राशन-पानी’ मिल सके ? भौतिकता के पुजारी जब राशन-पानी के अभाव में मरने-मारने पर उतारू हो जाएंगे तब देश का ही नहीं, नेताजी और उनकी बिरादरी का क्या हश्र होगा ?
हम कुछ कहें इससे पहले नेताजी को लखनऊ की लाइन मिल गयी, ‘‘मन्त्रीजी आँय ?’’ उन्होंने कहा, ‘‘जरा बात कराइए ! अरे हमारा नाम-वाम न पूछिए। उनसे कहिए आपके सी-इन-सी है दिल्ली से, चमचा-इन-चीफ !

टाप नेता कै कुण्डलियो
टाप सीक्रेट होवत हय ससुर


छुट्टी का दिन था। हम अभी बिस्तर पर पड़े-पड़े चाय की चुस्कियों के साथ अखबार की सुर्खियाँ टूँग रहे थे कि नेताजी आ पहुँचे। आज पैण्ट-कुर्ता नहीं, धोती-कुर्ता पहने थे। माथे पर भभूत लगी हुई थी, हाथ में माला थी और प्रसाद का थैला। माला उन्होंने छोटे बच्चे को नेहरुआना अदा से पहनायी, थैला बड़े बच्चे को थमाया। फिर बोले, ‘‘आप नउकरी-पेशा लोगों के तो मजे हैं ! सुबह हो गयी लेकिन बिस्तर छोड़ना हराम हय। राजनीति में मिल-टरी लाइफो से जियादा परेड़ हुई जाती हय ससुरी। रात एक भगत को लेकर मधप्रदेश भवन गये, दस वहीं बज गया। जफर साहब अपने रसिया जा रहे थे तड़के सीइंग-आफ के लिए दुई बजे जगार करनी पड़ी।’’

‘‘पालम हवाई अडडे पर कोई मन्दिर खुल गया है जो तुम यह माला और प्रसाद लिए लौटे हो ?’‘ हमने पूछा।
‘‘अरे ये हम लाये हैं छत्तरपूर के मन्दिर से। बहूत बी. आई. पी पहुँचता है वहाँ जबसे मय-डम हुई आई हैं। गुरुडजी का हमारे बिसेस आग्रह था कि ए.पी. बाबू को पटाओ अउर हम जानते हैं कि कोई छुटेटी का दिन हो तो वह जरूरे छत्तरपूर पहुँचते हैं भोर बेला। एक भगत ने गाड़ी़ हमको दे ही रखी है आजकल, तो पालम से लउटकर एक झपकी ली और फिर अस्नान-ध्यान करके जा पहुँचे छत्तरपूर। अच्छा रहा, देवी अउर ए. पी. दोनों का दरसन एक साथ हो गया सुबह-सुबह। दिन अच्छा बीतेगा ससुरा। लउटते हुए सोचा चलो कक्का को भी बी. आई. पी.मन्दिर का परसाद दे आवें।’’
‘‘अच्छा मन्दिर भी वी. आई. पी. और साधारण दो किस्म के होते हैं !’’
‘‘अरे यहाँ बी. आई. पी. जायेगा, वह बी. आई पी. मन्दिर कहलायेगा। अउर बी. आई. पी. जायेगा उसी मन्दिर में जिसमें सिद्ध-उद्धि चक्कर हो। जाकर कुछ काम-वाम बनता हो भगत का। इस समय टाप पर चल रहा है अपना बिन्धवासिनी। नार्थ का सारा बी. आई.पी वहीं जाता हय। मय-डमो गयी रही रिसेण्टली दुई बार। साउथ में तिरुपत बालाजी का जल्वा चलहि रहा हय।’’

‘‘मन्दिर काम बनवाने के लिए जाते है नेता लोग ?’’
‘‘अरे नेता हो या जनता हो, मन्दिर हो या कोई अउर जगह, बाकी किसी के कहीं जाने का सवालहि तब पइदा होता हय जब कोई काम अटका हो और उसके बनने की गुंजाइस हो। फालतू कहीं जाना अपना बखत बरबाद करना, दूसरे को बोर करना, ई सब किर्रू बिरादरी के करम हंय।’’
‘‘मन्दिर का देवता भी बोर होता है ?’’

‘‘असली देवता होगा तो जरूरे बोर होगा। इतनी लम्बी लाइन लगती हय भगतों की, कामकाज का मार टेंसन। एइसे में कोई दिले-नादान टाइप भगत आये अउर जब उससे पूछा जाये, भय्या, क्या चाहिता हय तू अउर दान-दच्छिना क्या लाया हय, तब वह कहे, जी मैं तो यवै मिलने चला आया था, लाया भी चउन्नी अउर चार बतासा हूँ। अब बताइये इस मसखरी पर देवता भिन्नायेगा कि नहीं ? यहाँ ससुरी एक-से-एक नेसनल-इण्टरनेसनल अउर क्या नाम कहते है फाइनेंसियल प्राब्लम साल्व करने में हम बिजी है अउर आप चले आये हाउ-डू-डू कहिने। हम देवता हैं कि आपकी मासूका !’’
‘‘मासूका अच्छा है ! हमने कहा, ‘‘लेकिन नेताजी, सूफियों और सिद्धों ने देवता को यही दर्जा दिया है।’’
‘‘अरे पहिले सिद्धोंवाली केटिगिरी में पहुँचियेगा तब न आपका ऊ सब नाटक जमेगा ! ’’ नेताजी बोले, ‘‘अउर उस केटिगिरी में आप पहुँच गये तो आपेका देउतावाला नक्सा हुई जायेगा ! एकाधा बी. आई. पी. भगत हुइ गया तो आपो बी.आई.पी. सिद्ध हुई जाओगे। एइसा कोई इरादा हो तो आपसे सच बताते हैं आजहि से हम आपका नक्शा जमाने में जुट जायेंगे। आप मनहर सुआमीजी, समझे ना, अउर हम आ आपके चीफ चेलाजी।’’

नेताजी हँसे। नेताजी की हँसी सुनने से ताल्लुक रखती है। किसी कबाइली के विजयनाद में अगर आप किसी कस्बा-किशोरी की शर्मीली खिखियाहट मिला दें तो नेताजी की हँसी के आस-पास पहुँच पायेंगे।
‘‘स्वामी भी टाप-फ्लाप होते रहते होंगे ?’’ हमने पूछा।
‘‘बिलकुल !’’ नेताजी ने सूचना दी, ‘‘आजकल देउरहा बाबा टाप पर है सदाचारी फ्लाप चल रहा है फिलहाल। एक नया तान्तरिक हमारे गुरुजी पक़ड़कर लाये हैं दरभंगे से। गुरुजी के लिए अनुष्ठान किया हय उसने सी. एम. से मिलवाने की बात हय। अगर वह इम्प्रेस हो गये तो पी. एमो से मिलवा देंगे। अब कउन जाने कल वही टाप हुई जाय।’’
‘‘हाँ, यह उसके सितारों पर निर्भर करता है।’’हम मुस्कराये, ‘‘तान्त्रिकों-ज्योतिषियों के भी तो सितारे होते होंगे।’’

‘‘अजी हण्डरेड परसण्ट !’’ नेताजी ने कहा, ‘‘आपसे सही बताते हैं, एक जोतसी आया था उत्तरकासी से, जिसे हमारे गुरुजी ने तब एल. एन मिस्रा अउर तमाम दूसरे टाप लोगों से मिलवाया था। सिद्धि ससुरी उसकी एइसी कि न कुण्डली देखे, न हथेली बाँचे, बस नब्ज पर अँगुली धरे अउर धाराप्रवाह बोलता चला जाए। टुटुके के नाम पर कभी लउंग दे दे, कभी सरसों के दाने, बस छः महीने तक बड़ा जल्वा रहा उसका। फिर जाने कइसी गरदिस में आया उसका सितारा कि जो कहे, उसका उल्टा हो, जो टुटका दे, उल्टा पड़े। एक अस्टेट मिनिस्टर को उसने बताया कि चउबीस तारीख आप केबिनेट रेंक पा जाइयेगा, ससुरा चउबीस तारीख को परमात्मा की केबिनेट में जा पहुँचा।’’

‘‘आजकल आपके गुरुजी राजीव की कुण्डली बँचवा रहे होंगे ?’’ हमने पूछा। ‘‘मार्केट में। एक की तुला लगन है, दूसरी सिंघ अउर तीसरी की, रामजी आपको नेकी दें, कर्क। लेकिन आपसे एक बात बता दें कांफीडेंस में, इन तीनों में से कोई आथेण्टिक नहीं है, सब अटकल-पच्चू है मामला। असली कुण्डली टाप सीक्रेट हय। टाप नेता कै कुण्डलियो टाप सीक्रेट होवत हय ससुर।’’
‘‘कुण्डलियाँ भी तो सीक्रेट होती हैं !’’
‘‘काहे नहीं ?’’ नेताजी ने पूछा, ‘‘राजनीति में एक मोर्चा ससुरा तन्तर-मन्तर जज्ञ-जाज्ञ वाला भी तो हय। दुस्समन पारटी कब क्या करा दे कुछ ठिकाना नहीं।


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