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सात घूंघट वाला मुखड़ा

अमृतलाल नागर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8751
आईएसबीएन :9788170288213

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अमृतलाल नागर ने हिन्दी साहित्य को जो कालजयी उपन्यास दिए हैं, सात घूंघट वाला मुखड़ा उनमें से एक है।

Saat Ghoonghat Wala Mukhara (Amritlal Nagar)

यह उपन्यास अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दौर में उत्तर भारत की राजनीति में जबरदस्त हलचल मचा देने वाली बेगम समरू के रहस्य और रोमांच से भरे जीवन पर आधारित है। जब औरतें मर्दे से बाहर नहीं निकलती थीं, कोठे पर मुजरा करने वाली समरू ने एक यूरोपीय सेनानी को अपना दीवाना बनाकर शादी कर ली। समरू ने पति के साथ अपनी एक छोटी सी सेना खड़ी कर ली और बड़े-बड़े सूरमाओं को अपनी बहादुरी और रणकौशल से धूल चटा कर मेरठ के समीप सरदाना की गद्दी पर जा बैठी।

सिर पर पगड़ी बांधे, घोड़े पर सवार होकर सेना का नेतृत्व करती वीरांगना...कल्पना कीजिए उस आश्चर्यचकित कर देने वाले दृश्य की !

अमृतलाल नागर की लेखनी की विशिष्ट कला चातुरी से ही इतिहास पर आधारित शुष्क कथानक भी बेहद सरस बन पड़ा है। बेगम समरू पर केन्द्रित कहानी में स्थान-स्थान पर रोमांस के दृश्य गुदगुदाते हैं, सभासदों और शाही कारिंदो के छल-प्रपंच अचंभित करते हैं और कहानी में आगे आने वाली घटनाओं के प्रति जिज्ञासा निरंतर बनी रहती है।

पद्मभूषण से सम्मानित अमृतलाल नागर ने हिन्दी साहित्य को एक नया मोड़ दिया। भाषा की अनूठी शैली के द्वारा उन्होंने कथा साहित्य को एक नया अन्दाज़ और नई भंगिमा दी। अपनी किस्सागोई शैली के कारण नागर जी ने अपना एक विशाल पाठकवर्ग तैयार किया। उनका जन्म 17 अगस्त 1916 को गोकुलपुरा आगरा में हुआ। नागर जी ने ग्रन्थ की सभी विधाओं में उत्कृष्ट रचनाएं दीं। वे अपनी कथात्मक कृतियों में एक चिन्तनशील कलाकार के रूप में उभरे। उनका चिन्तक व्यक्तित्व समाज की बुराइयों और विसंगतियों से निरंतर संघर्ष करता रहा। भारतीय जनमानस को आन्दोलित करने वाले सामयिक प्रश्नों को आन्दोलित करने वाले सामयिक प्रश्नों रो उन्होंने न केवल अपनी रचनाओं में उठाया वरन् उन्हें समाधान की दिशा भी दी। अपने कथा-साहित्य में अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों को समेटने का सामर्थ्य रखने वाले अमृतलाल नागर जी का निधन 23 फरवरी 1991 को हुआ।

 

एक

 

अहाते की उजाड़ पड़ी रहने वाली खंडहर कोठरी में बशीर खाँ अपनी बन्दूक साफ कर रहा था। ज़रा-से खटके से उसकी सहमी हुई नज़रें चौंककर उठ जाती थीं। धूप गली के पीपल की चोटी से उतरकर अब सामने वाली छत की मुँडेर पर आकर पसर चुकी थी। बशीर खाँ की चोर नज़रों से जब पकड़े जाने का डर मिटा मुँडेर से नीचे उतरती हुई धूप उसे ऐसी लगी मानो कोई अल्हड़ चिलबिली लड़की मुँडेर से टाँगें लटकाए बैठी हो और किसी भी वक्त झम्म से बशीर खाँ के अहाते में कूद पड़ने को तैयार हो। इस ख्याल से तबीयत में ताज़गी आई, जी हल्का ही नहीं खुश भी हो उठा। टोपीदार बन्दूक की सफाई नये जोश में होने लगी, मौन में हल्के-हल्के गाना भी शुरू कर दिया –



आगर आँ तुर्क शीराज़ी बदमस्त आरद दिलेमारा।
बख़ाले हिन्दुपश बख्शम समरकंदो बुखारा रा।।



बशीर खाँ के मन का चोर अब पूरी तरह से उसके काबू में आ चुका था। मुन्नी उर्फ दिलाराम को साफ़-साफ़ यह बतलाना ही होगा कि गो वह उसे चाहता ज़रूर है पर उसका पिछले पाँच बरसों का इश्क महज़ एक फरेब था। उसके अब्बा ने जब मुन्नी को ख़रीदा था तब बैठकखाने में बेहोश पड़ी उस हुस्न के गुलाब की नायाब कली को देखकर कहा था, ‘‘यह हुकूमत करने के लिए पैदा हुई है, इस पर हुकूमत की नहीं जा सकती। बशीर को इसे इश्क के जादू से बाँधकर राह पर लाना होगा।’’ शकूर खाँ ने अपने आला तस्वीरनिगार और बड़ी-बड़ी दिलफरेब आँखों वाले बेटे को कसम दिला दी थी, ‘‘मैं तुम्हारी मर्दानगी और सआदतमन्दी का इम्तहान ले रहा हूँ। आग को सर पर रखकर चलना है, और वह भी दस्तार से ढ़ककर इस तरह से चलना है कि चाहे सर जल जाए, पर पगड़ी पर आँच न आने पाए।...’’ पुराने लोग बात किस अन्दाज़ से कहते थे ! बशीर को अपने अब्बा की याद आ गई। उन्हें मरे अभी पूरा साल भी नहीं गुज़रा।


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