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गीता प्रेस, गोरखपुर >> मनुष्य जीवन की सफलता - 2

मनुष्य जीवन की सफलता - 2

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 877
आईएसबीएन :81-293-0719-7

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प्रस्तुत पुस्तक में मनुष्य को कैसे व्यवहार करना चाहिए...

Manushy Jeevan Ki Saphalata a hindi book by Jaidayal Goyandaka - मनुष्य जीवन की सफलता - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नम्र निवेदन

‘कल्याण’ के अधिकांश 28वें और 29वें वर्ष में प्रकाशित मेरे लेखों को संशोधन करके इस पुस्तक में संगृहीत किया गया है। इनमें शीरीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक, व्यावहारिक, नैतिक, धार्मिक, पारमार्थिक आदि उन्नति का विषय भी दिया गया है, जो मनुष्यमात्र के लिये लाभदायक है तथा स्त्रियों को घरवालों के साथ परस्पर किस प्रकार त्यागपूर्वक व्यवहार करना चाहिये, यह भी बताया गया है। ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, सदाचार और मन-इन्द्रियों के संयम की बातें तो कल्याणकामी पुरुष के लिये इसमें पर्याप्त हैं। उत्तम गुण, उत्तम भाव, सत्पुरुषों के संग, महिमा, गुण, प्रभाव एवं गीता-रामायण आदि अध्यात्मिक विषयक शास्त्रों के स्वाध्याय आदि की बातें भी लिखी हैं। दुःखी और अनाथों की निष्काम सेवा करने से मनुष्य की शीघ्र उन्नति हो सकती है तथा गृहस्थाश्रममें रहकर किस प्रकार अपना जीवन बिताना चाहिये, यह भी बताया है। ईश्वर, महात्मा, शास्त्र और परलोकमें श्रद्धा-विश्वास करनेसे शीघ्र कल्याण होने की बात बतायी गयी है। ईश्वभक्ति-विषय में गीता का तात्त्विक विवेचन भी किया गया है एवं भाइयों को परस्पर किस प्रकार प्रेम-व्यवहार करना चाहिये, यह भी दिखाया गया है।

कोई भी भाई या माता-बहिनें इसे पढ़कर लाभ उठावें, उनका मैं आभारी हूँ। पुस्तक में त्रुटियाँ रहनी स्वाभाविक हैं, अतः इसमें जो भी त्रुटियाँ रही हों, उनके लिये विज्ञजन क्षमा करें और मुझे सूचना देने की कृपा करें।


जयदयाल गोयन्दका

मनुष्य-जीवन की सफलता भाग-2

नामका माहात्म्य

श्रीभगवान् के नाम और गुणों के कीर्तन की महिमा सारे संसार में विख्यात है। कोई किसी भी सिद्धान्त को माननेवाला क्यों न हो, भगवान् के नाम और गुणों के कीर्तन को तो सभी लोग मानते हैं। हाँ, यह भेद रहता है कि किसी की किसी नाम में श्रद्धा-प्रीति होती है तो किसी की किसी नाम में। किंतु गम्भीरता से विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि वास्तव में सभी नाम उस परमात्मा के हैं। इसलिये भगवदृष्टि से कोई चाहे किसी भी नाम की उपासना करे, वह करता है भगवान् की ही उपासना। जैसे जलके बहुत-से नाम हैं, कोई उसे अप् कहते हैं, कोई नीर, जल या पानी, कोई आब और कोई वाटर (Water) कहते हैं; किंतु इन सभी का लक्ष्य एक जल ही है; इसी प्रकार भगवान् के ॐ, हरि, तत्, सत्, राम, कृष्ण, केशव, शिव, नारायण, वासुदेव, अल्लाह, खुदा, गॉड (God) आदि-आदि अनेके नाम हैं, परंतु उन सबका लक्ष्यार्थ एक ही है। हिंदू, मुसलमान और ईसाइयों के परमात्मा अलग-अलग नहीं हैं। मुसलमान भाई अल्लाह खुदा के नामसे जिसका जप करते हैं, वह भी सर्वशक्तिमान परमात्मा ही है। ईसाई भाई गॉड नामसे जिसकी उपासना करते हैं, उनकी वह उपासना भी भगवान् की ही उपासना है। आर्यसमाजी और जैनी भाई जो ‘ॐ’ का जप करते हैं, वह भी भगवान् के नामका ही जप है। श्रुति-स्मृति, इतिहास-पुराण आदि शास्त्रों में भी ‘ॐ’ की महिमा विशेषरूप से गायी गयी है।

श्रीमाण्डूक्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र में बतलाया है—

ओमित्येतदक्षरमिदँ सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोंकार एव। यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योंकार एव।

‘ॐ’ इस प्रकार का यह अक्षर (अविनाशी परमात्मा) है, यह सम्पूर्ण जगत् उसी का है उपव्याख्यान अर्थात् उसी की निकटतम महिमा का लक्ष्य करनेवाला है। भूत, वर्तमान और भविष्यत्—यह सब-का-सब जगत ऊँकार ही है तथा जो उपर्युक्त तीनों कालों से अतीत दूसरा कोई तत्त्व है, वह भी ऊँकार ही है।’

श्रीकठोपनिषद में कहा है—


एतद्धयेवाक्षरं ब्रह्म एतद्धयेवाक्षरं परम्।
एतद्धयेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्।।


(1/2/16)


‘यह ऊँकार अक्षर ही सगुण ब्रह्म है। यह अक्षर ही निर्गुण परम ब्रह्म है, इस ऊँकाररूप अक्षरको ही जानकर जो मनुष्य जिस वस्तुको चाहता है, उसको वही मिल जाती है।’


एतदालम्बनँ श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।।

‘यही भजने योग्य अत्युत्तम आलम्बन है। यही सबका अन्तिम आश्रय है। इस आलम्बन को भलीभाँति जानकर साधक ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है।’

श्रीप्रश्नोपनिषद् में आता है—


तस्मै स होवाच एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः।
तस्माद्विद्वानेतेनैवायतनेनैकतरमन्वेति।


‘शिबिपुत्र सत्यकाम के पूछनेपर उससे उन पिप्लाद मुनिने कहा—हे सत्यकाम ! निश्चय ही यह ऊँकार है, वही परब्रह्म और अपर ब्रह्म भी है। इसलिये इस प्रकार का ज्ञान रखनेवाला मनुष्य इस एक ही अवलम्ब से अर्थात् प्रणवमात्र के स्मरण से अपर और परब्रह्म में से किसी एक का (अपनी श्रद्धा के अनुसार) अनुसरण करता है।’


यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीत स तेजसि सूर्ये सम्पन्नः। यथा पादोदरस्त्वचा विनिर्मुच्यत एवं ह वै स पाप्मना विनिर्मुक्तः स सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकं स एतस्माज्जीव-घनात्परात्परं पुरिशयं पुरुमीक्षते।


‘जो तीन मात्राओंवाले ऊँकाररूप इस अक्षर के द्वारा ही इस परम पुरुष का निरन्तर ध्यान करता है, वह तेजोमय सूर्यलोक में जाता है तथा जिस प्रकार सर्प केंचुली से अलग हो जाता है, ठीक उसी तरह वह पापों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। इसके बाद वह सामवेदकी श्रुतियों द्वारा ऊपर ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है, वह इस जीव-समुदायरूप पर-तत्त्वसे अत्यन्त श्रेष्ठ अन्तर्यामी परम पुरुष परमात्मा को साक्षात् कर लेता है।’

गीतामें भगवान् कहते हैं—

ओमित्येकारक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।


(8/13)


‘जो पुरुष ‘ॐ’ इस एक अक्षररूप ब्रह्मके नामका उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्मका चिन्तन करता हुआ शरीर को त्याग करता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है।’

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः) स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।


(17/23)


ॐ तत् सत—ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसीसे सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गये।’


तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्।।

(17/24)


‘इसलिये वेदमन्त्रों का उच्चारण करनेवाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ‘ॐ’ इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।’

महर्षि पतञ्जलि ने भी योगदर्शन के प्रथम पाद में बतलाया है कि ईश्वर-प्रणिधान से चित्त की वृत्तियों का निरोधरूप समाधि हो जाती है। तदनन्तर, ईश्वर का स्वरूप बतलाकर उसका नाम ‘प्रणव’ बतलाया है तथा प्रणव के जप और अर्थ की भावना से सारे विघ्नों का नाश और आत्मा का साक्षात्कार होना बतलाया है। श्रीपतञ्जलि जी कहते हैं—


ईश्वरप्रणिधानाद्वा। (1/23)


‘ईश्वर की शरणागति यानी भक्ति से भी निर्बीज समाधि की सिद्धि शीघ्र हो सकती है।’


क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।


‘जो क्लेश,1 कर्म2, विपाक3 और आशय4 के सम्बन्ध से रहति तथा समस्त पुरुषों से उत्तम है, वह ईश्वर है।’


तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्।

(1/25)

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1-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश (मरण-भय)—ये पाँच ‘क्लेश’ हैं।
2-पुण्य, पाप, पुण्य-पाप-मिश्रित और पुण्य-पापरहति—ये चार ‘कर्म’ हैं।
3-कर्मों के फलका नाम ‘विपाक’ है।
4-कर्मोंके संस्कारों का नाम ‘आशय’ है।


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