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उपन्यास >> दिमाग में घोंसले

दिमाग में घोंसले

विजय शर्मा

प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8815
आईएसबीएन :9789380044545

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कथाकार विजय शर्मा का पहला उपन्यास

Dimaagh Mein Ghonsle (Vijay Sharma)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘दिमाग में घोंसले’ कथाकार विजय शर्मा का पहला उपन्यास है, लेकिन उन्होंने जिस विश्वास और बेबाकी के साथ इस कथा को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है यह बड़े साहस की बात है। उत्तर आधुनिक दौर में नक्सलवाड़ी उभार के दौर के कलकत्ते की अंतर्कथा सुनाना या उस समय के आक्रोशित युवाओं के मनोमष्तिष्क का चित्र खींचना, निश्चय ही एक लंबी यात्रा का शिलालेख लिखने जैसा है। तभी तो उपन्यासकार विजय शर्मा लिखते हैं-

‘यात्रा’ का मतलब है- झंझट, ‘बवाल’, ‘किचाइन’, ‘चिक-चिक’... यह हमेशा सही नहीं भी होता। सोच-विचार कर छप्पन मानचित्रों को ‘कन्स्ल्ट’ करके जो यात्रा होती है, उसमें मानसिक ‘बवाल’ हो सकता हैं- होता भी है- लेकिन ग़ौर करिए तो प्रकट होता है कि ये बवाल दरअसल अधिकाधिक सोचने से है। ‘बवाल’ हो सकता है... ऐसी धारणा ही मानसिक ‘किचाइन’ का प्रमुख कारण हैं। और जहाँ यात्रा की पंचसाला योजना नहीं है, सिर्फ़ ‘निकल’ पड़ने का संकल्प भर है- साफ़ आसमान वाला, सुनहरी धूप वाला दिन हो तो क्या कहने, न भी हो तो क्या फ़र्क पड़ता है।

इस ‘फ़र्क’ की चिंता न करने वाला रचनाकार ही इन्सान के दिमाग़ी घोंसले की परख और पहचान रखते उसकी चिंताओं में मुब्तिला हो सकता है। यह उपन्यास इस सच्चाई की गवाही देता है।

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