लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> पारमार्थिक पत्र

पारमार्थिक पत्र

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 887
आईएसबीएन :81-293-0732-4

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

53 पाठक हैं

प्रस्तुत है पारमार्थिक पत्र.....

Parmarthik Patra a hindi book by Jaidayal Goyandaka - पारमार्थिक पत्र - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्रीहरि:।।

नम्र निवेदन

प्रतिमास कई सौ पत्रों का उत्तर दिया जाता है, उनमें से कितने ही पत्रों की नकल रख ली जाती है। कितने ही मित्रों का आग्रह हुआ कि इन पत्रों में बहुत-से ऐसे पत्र हैं, जो सबके लिये उपयोगी हो सकते हैं, इनको ‘कल्याण’ में प्रकाशित करना चाहिये और उन प्रकाशित हुए पत्रों को पुस्तक रूप में भी निकालना  चाहिये, क्योंकि भविष्य में इनसे लोगों को शिक्षा मिल सकती है। किन्तु भगवान् श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि बहुत-से अवतार और महर्षि श्रीवेदव्यास, श्रीशुकदेव, श्रीसनकादि, श्रीनारद, श्रीप्रह्लाद, श्रीतुलसीदास आदि बहुत-से महापुरुष हुए हैं, उनके लेख और व्याख्यान आदि से संसार में प्रत्यक्ष लाभ हुआ और हो रहा है, ऐसा होते हुए भी जो लोग मेरे लेख तथा व्याख्यानों को पढ़ते-सुनते हैं, इसमें उनकी मुझपर विशेष दया और प्रेम के सिवा और क्या कारण हो सकता है। मेरी दृष्टि में तो यह बात है कि मैं एक साधारण मनुष्य हूँ तथा मेरे पत्र, लेख और व्याख्यानों के द्वारा संसार में कोई विशेष लाभ मुझे देखने में नहीं आता। फिर भी मित्रों का आग्रह देखकर इसमें रुकावट नहीं डाली गयी और पत्र, लेख प्रकाशित किये जाते तथा व्याख्यान दिये ही जाते हैं।

इस पत्र-संग्रह में आध्यात्मिक और धार्मिक विषयों के अतिरिक्त व्यापार तथा समाज-सुधार के भी कई पत्र हैं तथा कई पत्रों में लोगों के विभिन्न प्रश्नों का उत्तर देते हुए उनकी शंकाओं का समाधान भी किया गया है। भजन, ध्यान, सेवा, सत्संग, स्वाध्याय और संयम की बातें भी विशेष रूप से कही गयी हैं। दुर्गुण-दुराचार के त्याग और सद्गुण-सदाचार के सेवन पर भी जोर दिया गया है। भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, महिमा और चरित्र का तत्त्व और रहस्य भी बतलाया गया है। समय की अमोलकता बतलाते हुए साधकों को साधन के लिये सावधान किया गया है। जीव, ईश्वर और प्रकृति का भेद और तत्त्व समझाया गया है एवं शरीर, संसार और भोगों में वैराग्य तथा उपरतिकी बातें बतलाकर आत्मज्ञान के लिये प्रेरणा की गयी है।

इस पुस्तक में 91 पत्रों का संग्रह हुआ है तथा इन पत्रों का खास विषय को स्पष्ट बतलाने के लिये विषय-सूची भी साथ दे दी गयी है। इन पत्रों से जो सज्जन लाभ उठावेंगे, मैं अपने को उनका आभारी समझूँगा।
विनीत
जयदयाल गोयन्दका

श्रीपरमात्मने नम:

पारमार्थिक पत्र
(1)


रात-दिन जप का अभ्यास करो। और ज्यादा क्या लिखूँ ? बिलकुल निष्काम हो जाओ। संसार के बोगों को छोड़कर रात-दिन सत्संग करो। रात में दिन में किसी भी समय घंटा-दो-घंटा अवकाश निकालकर पाँच आदमी एकत्र होकर सत्संग करना चाहिये।
श्री.................के वैराग्य की बात पढ़कर बहुत आनन्द हुआ। श्रीहरि के नाम का जप बहुत लगन के साथ करो। तुमको और कुछ करना है नहीं। वह स्वयं अपनी जाने, तुम तो अपने काम में रहो, निष्काम-भाव से श्रीहरि के शरणागत हो जाओ, फिर कोई चिन्ता नहीं। भाईजी ! तुम्हारे आनन्द न होने का क्या कारण है ? तुम्हारे तो सब बातों का संयोग लगा हुआ है। फिर भी तुम किस कारण से आनन्द में मस्त नहीं होते हो ? अब तुम्हें किस बात की इच्छा रही है, इसकी गम्भीरता से पता लगाओ। तुम किस हेतु उस हरि में मन को अहर्निश नहीं लगा रहे हो ? किसलिये संसार की वस्तुओं को मिथ्या देखकर भी इनसे वैराग्य नहीं करते हो ? अब संसार की माया में तुम किसलिए पड़े हो ? अब तुम वैराग्य धारण करो। नाशवान् पुत्र-स्त्री-धन का आश्रय छोड़कर एक हरि के नाम का ही आश्रय ले लो। मान-बड़ाई को त्यागकर अज्ञाननिद्रा से चेत करो। अब अज्ञान में सोने का समय नहीं है। तुम्हारा रास्ता अब अधिक दूर नहीं है।
भाईजी ! तुम धन्यभाग्य हो। तुम्हारे सभी बातों की व्यवस्था है। तुमको क्या चाहिये ? माया में मत फँसो। यह पत्र बार-बार पढ़ना। जब प्रसन्नता में कमी हो, उस समय अवश्य पढ़ना।

(2)


परमेश्वर के नाम का जप रात-दिन हो। जिस किसी प्रकार इसे करते रहो। इससे किसी बात की त्रुटि नहीं रहेगी। जितना स्मरण करोगे, उतना ही शीघ्र पहुँचोगे।  एक पलक भी वृथा मत गँवाना। संसार को स्वप्न की भाँति मिथ्या आरोपित जानकर आनन्द परमात्मा के ध्यान में मग्न रहो। मिथ्या संसार के भोगों में मत फँसो। जो निष्काम भाव से ईश्वर के शरणागत हो, उसके भोगों में मत फँसो। जो निष्काम भाव से ईश्वर के शरणागत हो, उसको हमारा कोटिश: नमस्कार है। आपलोग भी धन्यभाग्य हैं।

(3)


आपने मिलने की इच्छा लिखी सो आपके प्रेम की बात है। मनुष्य को भगवान् की ही शरण लेनी चाहिये, उनकी दया से सब कुछ हो सकता है। आपके प्रेम और भाव के अनुसार मुझसे जैसी चेष्टा होनी चाहिये, वैसी नहीं होती; इसलिये मैं आपका ऋणी हूँ।
(1)    मानसिक पूजा प्रात:काल सूर्योदय के पश्चात् तथा सायंकाल भोजन के पूर्व जितनी देर श्रद्धा-प्रेम एवं शान्ति के साथ कर सकें, उतनी देर करनी चाहिये।
(2)    गुरुजनों से श्रद्धा-प्रेम की याचना आदि करना कोई दोष की बात नहीं है।
(3)    तीव्र साधन श्रद्धा-प्रेम होने से होता है और श्रद्धा-प्रेम सत्संग से होता है। सत्संग के अभाव में सत्-शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिये। विवेक और वैराग्ययुक्त चित्त से निरन्तर भगवान् के नाम का जप एवं गुण-प्रभाव सहित भगवान् के स्वरूप का ध्यान करना- यही तीव्र साधना है। इसे निष्कामभाव से करना चाहिये।
(4)    भजन-ध्यान आदि अच्छी प्रकार से हो तो इससे बढ़कर कोई अन्य पुरुषार्थ है ही नहीं; किन्तु कभी-कभी मन भजन-ध्यान के नाम पर धोखा देकर मनुष्य को आलसी और पुरुषार्थ हीन बना देता है। इसलिये भजन करते हुए ही शरीर निर्वाह के लिये न्याययुक्त प्रयत्न करना चाहिये।
(5)    आपने अपनी सारी परिस्थिति लिखी और उस पर मेरी सलाह पूछी सो साररूप में मेरी यही सम्मति है कि अहंकार, स्वार्थ, झूठ, कपट आदि दोषों को त्यागकर निरन्तर भगवान् को याद रखते हुए भगवान् की ही प्रसन्नता के लिये निष्काम भाव से न्याययुक्त व्यापार करने की चेष्टा करनी चाहिये। गीता के 18वें अध्याय के 6, 23, 26, 46, 56 और 57 वें श्लोकों पर विचार करना चाहिये।
(6)    भगवद्भक्त के लिये कभी भी निराश एवं उत्साहहीन होना अपनी विशुद्ध भक्ति में कलंक लगाना है।
(7)    आपने लिखा है कि मैं अन्धकार में हूँ, सौ भगवद्भक्तों के सिवा सभी अन्धकार में हैं। भगवान् को जानने से अन्धकार का नाश हो जाता है।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book