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बीच बहस में

निर्मल वर्मा

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8928
आईएसबीएन :978-81-263-1912

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निर्मल वर्मा की कहानियों के पात्र एक दूसरे को भीतर से समझते हैं, इसलिए उनमें आपस में कोई विरोध या संघर्ष नहीं है.

Beech Bahas Mein - A Hindi Book by Nirmal Verma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निर्मल वर्मा की करुणा आत्मदया नहीं है, यह एक समझदार और वयस्क करुणा है। यह करुणा जीवन में विसंगतियों को देखती है और उन्हें समझती है, गोकि कुछ करती नहीं। निर्मल वर्मा की कहानियों के पात्र एक दूसरे को भीतर से समझते हैं, इसलिए उनमें आपस में कोई विरोध या संघर्ष नहीं है, वे एक दूसरे को काटते नहीं, एक दूसरे के अस्तित्व की प्रतिज्ञाओं को तोड़ते नहीं। एक अर्थ में वे यथास्थितिवादी हैं। वे अपने केन्द्र पर अपनी अनुभूति की पूरी सजीवता से डोलते हुए सिर्फ स्थिर रहना चाहते हैं, न अपने आपको, न अपने परिवेश को और न इन दोनों के सम्बन्ध को ही बदलना चाहते हैं।

- मलयज

बीच बहस में एक मौत हुई थी। लगा था कि दिवंगत के साथ ही उसके साथ होने वाली बहस भी समाप्त हो गयी। पर बहस समाप्त हुई नहीं। हो भी कैसे ? बहस केवल उससे तो थी नहीं, जो चला गया। वह तो अपने आप से है, उनसे है जो बच रहे हैं। और जो मौत भी हुई है, वह कोई टोटल, सम्पूर्ण मौत तो है नहीं। क्यों कोई मौत टोटल होती है ?

- सुधीर चंद्र

अपने देश वापसी

एक विदेशी का सुख मेरा सुख नहीं है। वह पहली बार सबको देखता है–औरतें, धूप, छतों पर डोलती हुई, हवा में सूखती हुई साड़ियाँ। वह हर जगह ठहरता है–नए परिचय के आह्लाद में। ठहरता मैं भी हूँ, पुरानी पहचान की धूल में आँखें झिपझिपाता हुआ–एक किरकिरी-सी पहचान जो न घुलती है, न बाहर आती है–चोखेर बाली ! न मुझमें “नेटिव” का सन्तोष है, जो आस-पास की दरिद्रता–अन्तहीन सूखी वीरानी–के किनारे-किनारे अपना दामन बचाकर चलता है। न मुझमें उन विदेशी टूरिस्टों का “भारत-प्रेम” है, जो सबको समेट लेता है, और फिर भी अछूता रहता है।

मैं पहचाना-सा प्रवासी हूँ, जो लौट आया है; एक अजनबी-सा भारतीय, जो हर जगह सन्दिग्ध है–सुख अपने सामने सबसे अधिक।

जब घर लौटता हूँ, तो मेजबान पूछते हैं, संगम देख आए-इतनी तितीरी धूप में, इतनी गर्म, हमेशा उड़नेवाली धूल में ? बहुत बरसों बाद ? मुझे हैरानी होती है कि जब से मैं लौटा हूँ, बीच के वर्ष जो मैंने बाहर गुजारे थे, मुझे छुई-मुई झिलमिले से लगते हैं–जैसे जाने से पहले जो सुई रिकॉर्ड पर ठिठक गई थी, अब दोबारा उसी जगह से चालू हो गई है। वही संगीत अंश है, वही रिकॉर्ड–मैं जहाँ उसे छोड़ गया था, वहाँ मेरी उम्र रुक गई थी। विदेश में गुजरा समय जैसे प्लेटफॉर्म पर गुजारी रात हो, उस बाकी रिकॉर्ड के हिस्से को सुनने की प्रतीक्षा में–जहाँ धूल है, गर्मियों की रातें हैं।

आपको कैसा लगता है, इतने वर्षो बाद ? जब कोई यह प्रश्न पूछता है, तो मुझे सहसा संगम की वह तितीरी दोपहर याद हो आती है। मैं सब कुछ भूल जाता हूँ–सिर्फ़ याद आते हैं, हाथ-भर लंबे साधु, उन पर पंखा झलते हुए पगले-पगले से चेले और सामने एक फटी-पुरानी दरी पर धूल में सने बासी बताशे और नए पैसे।

“बाबू, देखते क्या हो ? साक्षात् शिव के अवतार हैं। रात-भर नहीं सोते।”

शिव के अवतार टुकुर-टुकुर मेरी ओर देखते हैं। मैं उनकी ओर। पीछे गंगा का सूखा पाट था। कुटियों की लंबी कतार, यहूदियों के “घैटो” की तरह अपने में सिमटी हुई, जिन पर रंग-बिरंगी झंड़ियाँ फहराती हैं। सूखी गंगा और शिव के अवतार के बीच धूल उड़ती है–खास हिन्दुस्तानी पर्दा डालती धूल और साँय-साँय करती हवा। वे रात-भर नहीं सोते, यह ध्यान आते ही मुझे अपनी रातें याद आती हैं–घर की छत पर, दूसरों की छतों की फुसफुसाहट से सटी हुई, पसीने से तर- बतर।

जब मैं जाने लगा, “शिवजी” के चेले ने शिकायत-भरी नजरों से मेरी ओर देखा। चुनौती-सी देते हुए बोला, “आप नहीं समझेंगे, बाबू। विलायत के लोग इनकी महिमा गाते हैं।”“ विलायत का नाम सुनकर सहसा मेरे पाँव ठिठक गए। मुझे लगा, शायद वह मुझे कोई सर्टिफिकेट दिखाएगा। यह आश्चर्य की बात न होती। जब हमारे हिन्दी साहित्यकार अमरीकी विश्वविद्यालयों में गांधीजी की महिमा गाते नहीं थकते, तो कोई साधु अपनी महिमा के सबूत में विदेशी प्रशस्तिपत्र दिखाए, तो स्वाभाविक ही होगा।

मैंने एक बार उस ठूँठ-देह को देखा, जो शिव के अवतार थे। एक बार इच्छा हुई की उन्हीं के पास बैठ जाऊँ। धीरे से कहूँ कि जैसे वह हैं, धूल में सने हुए, गंगा के किनारे आँखें मूँदे हुए, उसी में उनका गौरव है, “प्रशस्तियों” की उन्हें कोई जरूरत नहीं, चाहे वे भारतीय बाबुओं की हों, या “भारत-भक्त” अमरीकी महिलाओं की। किन्तु मुझमें इतना साहस नहीं कि कुछ कह सकूँ, कम-से-कम उस व्यक्ति के सामने नहीं, जो “रात-भर सो नहीं पाते।”

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