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धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता

हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8953
आईएसबीएन :9788131010860

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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

देवी अन्नपूर्णा और गायत्री

जीवन की प्रत्यक्ष आवश्यकताओं में प्रथम नाम अन्न का आता है। भोजन के काम में आने वाले धान्यों तथा अन्य पदार्थों को भी अन्न ही कहा जाता है। गायत्री की एक शक्ति को 'अन्नपूर्णा' कहते हैं। इनका प्रभाव अन्नादि की सहज पूर्ति होते रहने के रूप में होता है। प्रायः गृहलक्ष्मयों को अन्नपूर्णा' कहते हैं। वे अपनी सुव्यवस्था के द्वारा घर में ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होने देतीं जिससे अभावग्रस्तता का कष्ट, असंतोष एवं उपहास सहन करना पड़े। गृहलक्ष्मी जैसी सुसंस्कारी महिला को भी 'अन्नपूर्णा' कहते हैं। यह जहां भी रहेगी, वहां दरिद्रता के दर्शन नहीं होंगे। परिस्थितियां संतोषजनक बनी रहेंगी।

अन्नपूर्णा गायत्री की वह चेतना शक्ति है जिसका साधक पर अवतरण होने से उसे अभावग्रस्तता की व्यथा नहीं सहनी पड़ती। आवश्यकताओं की पूर्ति का असमंजस खिन्न-उद्विग्न नहीं करता। तृप्ति, तुष्टि और शांति की मन:स्थिति साधन-सामग्री के बाहुल्य से नहीं मिल सकती। ईंधन मिलने से आग अधिक भड़कती जाती है। वह शांत तो जल से होती है। जल संतोष है जिसमें औसत नागरिक का स्तर निर्वाह पर्याप्त माना जाता है और अहंता की तृप्ति के लिए वैभव का प्रदर्शन नहीं, महानता का आदर्श अपनाना आवश्यक समझा जाता है। ऐसी सद्बुद्धि का उदय होते ही लगता है कि जीवन संपदा अपने आपमें परिपूर्ण है। उसमें विभूतियों के अजस्र भंडार भरे पड़े हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है, वे प्रचार परिणाम में सहज ही उपलब्ध हैं।

इस अनुभूति के फलस्वरूप मनुष्य संपदा कमाने और वैभव दिखाने की मूर्खता से विरत होता है। वह अपनी क्षमताओं को आदर्शों के परिपालन में लगाता है, व्यक्तित्व को महान बनाने की महत्वाकांक्षा जगाता है और अपने पौरुष को उन प्रयोजनों में निरत करता है जिनसे लोकमंगल के साधन सधते हैं। स्रष्टा की विश्ववाटिका को अधिकाधिक सुंदर और समुन्नत बनाने के लिए किया गया हर प्रयत्न सफलता-असफलता की प्रतीक्षा किए बिना हर घड़ी उच्च स्तरीय संतोष प्रदान करता रहता है। इसी आस्था को अन्नपूर्णा कहते हैं। गायत्री की अन्नपूर्णा धारा संतोष के स्वर्गिक आनंद का रसास्वादन कराती रहती है।

गायत्री उपासना से साधक की आर्थिक स्थिति संतोषजनक रहती है और धन-धान्य की हानि नहीं होती। उन्हें ऋणी नहीं रहना पड़ता। असंतोष की आग से जलते रहने एवं लालसाओं से उद्विग्न रहने की विपत्ति भी उन्हें संत्रस्त नहीं करती। इसका कारण यह नहीं कि उनके कोठों पर आसमान से अनाज की वर्षा होती है या खेतों में चौगुनी फसल उत्पन्न होती है। वस्तुतः साधक अपने साधनों को उपार्जित करने के लिए योग्यता बढ़ाने और कठोर परिश्रम करने में दत्तचित्त रहते हैं। दरिद्र तो आलसी-प्रमादी बने रहते हैं। जिन्हें पुरुषार्थ में रुचि नहीं है और जो श्रम एवं मनोयोग के सृजनात्मक प्रयोजनों में नियोजित रहते हैं, उन्हें निर्वाह के आवश्यक साधन जुटाने में कभी कमी नहीं पड़ती। यह अन्नपूर्णा प्रवृत्ति है जो गायत्री उपासना से स्वभाव का अंग बन जाती है।

अन्नपूर्णा प्रवृत्ति का दूसरा पक्ष है-मितव्ययता उपलब्ध साधनों का इस प्रकार उपयोग करना जिससे शारीरिक, पारिवारिक एवं पारमार्थिक उद्देश्य संतुलित रूप से पूरे होते रहें। यह ऐसी सुसंस्कारिता है जिसे अपनाए बिना कुबेर को भी दरिद्र बनकर रहना पड़ता है। संपन्नता इस अर्थ-संतुलन को ही कहते हैं। वह धन के परिणाम पर नहीं, उस सत्य प्रवृत्ति पर निर्भर है जो उपार्जन की योग्यता बढ़ाने तथा अथक श्रम करने के लिए प्रोत्साहित करती है। साथ ही एक-एक पाई के सदुपयोग की मितव्ययता का महत्व भी सिखाती है।

ऐसे व्यक्ति सीमित आजीविका का भी ऐसा क्रमबद्ध उपयोग करते हैं। जिससे उतने से ही ऐसी व्यवस्था बन जाती है जिसे देखकर सुसंपन्न लोगों को भी ईर्ष्या होने लगे। इसी परिस्थिति का नाम अन्नपूर्णा है। अन्नपूर्णा के स्वरूप एवं आसन आदि का संक्षेप में तात्विक विवेचन इस प्रकार है-अन्नपूर्णा के एक मुख तथा चार हाथ हैं। हाथों में अन्नपात्र और चम्मच-अन्नदाता के प्रतीक हैं। दो हाथों में कमल अन्न में सुसंस्कारिता और पौष्टिकता के प्रतीक हैं। आसन और देवपीठ दिव्य अनुशासन की प्रतीक हैं।

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