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हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8953
आईएसबीएन :9788131010860

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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

भगवती तुलसी

भगवती तुलसी को प्रकृति देवी का प्रधान अंश माना जाता है। ये विष्णु प्रिया हैं और विष्णु को विभूषित किए रहना इनका स्वाभाविक गुण है। भारत में वक्ष रूप से पधारने वाली ये देवी कल्पवृक्ष स्वरूपा हैं। भगवान श्रीकृष्ण के नित्य धाम गोलोक से मृत्युलोक में इनका आगमन मनुष्यों के कल्याण के लिए हुआ है। ब्रह्मवैवर्त पुराण' और 'श्रीमद् भागवत पुराण के अनुसार माता तुलसी के अवतरण की दिव्य लीला-कथा इस प्रकार है-भगवान श्रीकृष्ण के नित्य धाम गोलोक में तुलसी नामक एक गोपी थीं। वे भगवान श्रीकृष्ण की प्रिया, अनुचरी, अद्धगिनी और प्रेयसी सखी थीं।

एक दिन तुलसी भगवान श्रीकृष्ण के साथ रासमंडल में हास-विलास में रत थीं कि रास की अधिष्ठात्री देवी भगवती राधा वहां पहुंच गईं। फिर उन्होंने क्रोधपूर्वक तुलसी को मानव योनि में उत्पन्न होने का शाप दे दिया। गोलोक में ही भगवान श्रीकृष्ण के प्रधान पार्षदों में सुदामा नामक एक गोप भी था। एक दिन उसके द्वारा श्री राधा जी की सखियों का कुछ तिरस्कार हो गया, अतः श्री राधा जी ने उसे दानव योनि में उत्पन्न होने का शाप दे दिया।

कालांतर में भगवती तुलसी ने भारत में राजा धर्मध्वज की पुत्री के रूप में जन्म लिया। अतुलनीय रूपराशि की स्वामिनी होने के कारण यहां भी उनका नाम 'तुलसी' ही पड़ा। उधर श्रीकृष्ण के पार्षद सुदामा परम वैष्णव दानव दंभ के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ और उसका नाम शंखचूड़ रखा गया। उसे भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से पूर्वजन्म की स्मृति थी। वह श्रीकृष्ण मंत्र और श्रीकृष्ण कवच से संपन्न होने के कारण त्रैलोक्य विजयी था।

भगवती तुलसी ने भगवान नारायण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए बदरी वन में कठोर तपस्या की। तुलसी की घोर तपस्या देखकर लोक पितामह ब्रह्मा जी ने कहा, “हे तुलसी ! सुदामा नामक गोप जो श्रीकृष्ण का साक्षात अंश है, श्री राधा के शाप से शंखचूड़ नाम से दानवकुल में उत्पन्न हुआ है। इस जन्म में वह श्रीकृष्ण-अंश तुम्हारा पति होगा। इसके बाद वे शांत स्वरूप नारायण तुम्हें पति के रूप में प्राप्त होंगे।'' यही बातें ब्रह्मा जी ने शंखचूड़ दानव से भी कहीं और उन दोनों का गंधर्व विवाह करा दिया।

परम सुंदरी तुलसी के साथ आनंदमय जीवन बिताते हुए शंखचूड़ ने दीर्घकाल तक राज्य किया। देवता, दानव असुर, गंधर्व, किन्नर और राक्षससभी उसके वशवर्ती थे। अधिकार छिन जाने के कारण देवताओं की स्थिति भिक्षुओं जैसी हो गई थी। अतः वे ब्रह्मा जी के पास जाकर विलाप करने लगे। उनकी दयनीय दशा देख ब्रह्मा जी सबको लेकर भगवान शंकर के पास गए। शिव जी उनकी बातें सुनकर ब्रह्मा जी के साथ वैकुंठ में श्रीहरि के पास गए।

वैकुंठ में ब्रह्मा जी ने बड़ी विनम्रता से संपूर्ण स्थिति स्पष्ट की। भगवान श्रीहरि ने कहा, “हे ब्रह्मन्! शंखचूड़ पूर्वजन्म में सुदामा नामक गोप था और मेरा प्रधान पार्षद था। राधा जी के शाप से उसे दानव योनि प्राप्त हुई है। वह अपने कंठ में मेरा सर्वमंगल कवच धारण किए है जिसके प्रभाव से वह त्रैलोक्य विजयी है। उसकी पत्नी तुलसी भी पूर्वजन्म में गोलोक में गोपी थी और राधा जी के शाप से मृत्युलोक में अवतरित हुई है। वह परम पतिव्रता है, अतः उसके पतिव्रत के प्रभाव से भी शंखचूड़ को कोई नहीं मार सकता। परंतु तुलसी मेरी नित्य प्रिया है, अतः मैं उसके लौकिक सतीत्व को भंग करूंगा और ब्राह्मण वेश में शंखचूड़ से कवच मांग लूंगा। तब भगवान शंकर मेरे द्वारा दिए गए शूल के प्रहार से उसका वध कर सकेंगे। तदनंतर वह शंखचूड़ अपनी दानव योनि को छोड़कर मेरे गोलोक धाम में पुन: चला जाएगा। तुलसी भी शरीर त्याग कर पुनः गोलोक में मेरी नित्य प्रिया के रूप में प्रतिष्ठित होगी।"

तत्पश्चात भगवान शंकर श्रीहरि का शूल लेकर ब्रह्मा जी और देवताओं सहित वापस चले आए। फिर देवताओं ने शंखचूड़ को युद्ध के लिए ललकारा। श्रीहरि ने अपने कथनानुसार वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण कर शंखचूड़ से अपना सर्वमंगलकारी कृष्ण कवच' मांग लिया और शंखचूड़ का स्वरूप धारण कर तुलसी से हास-विलास किया जिससे उसका सतीत्व भंग हो गया। उसी समय शंकर जी ने श्रीहरि के दिए त्रिशूल का प्रहार करके शंखचूड़ का वध कर दिया।

इधर जब तुलसी को श्रीहरि द्वारा अपने सतीत्व भंग और शंखचूड़ के निधन की जानकारी हुई तो उसने श्रीहरि को शाप देते हुए कहा, "हे नाथ! शंखचूड आपका भक्त था और आपने अपने ही भक्त को मरवा डाला। आप अत्यंत पाषण हृदय हैं, अतः आप पाषाण हो जाएं।"

भगवान श्री हरि ने उसके शाप को स्वीकार करते हुए कहा, "हे देवी! शंखचूड मेरे नित्य धाम गोलोक में गया है, अब तुम भी यह शरीर त्याग कर गोलोक में जाओ। तुम्हारा यह शरीर नदी रूप में परिणत होकर 'गंडकी' के नाम से प्रसिद्ध होगा। मैं तुम्हारे शाप को सत्य करने के लिए भारत में पाषाण (शालिग्राम) बनकर तुम्हारे (गंडकी नदी के) तट पर ही वास करूंगा। गंडकी अत्यंत पुण्यमयी नदी होगी। मेरे शालिग्राम स्वरूप के जल का पान करने वाला समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णु-लोक को चला जाएगा। हे देवी! तुम्हारे केशकलाप से तुलसी नामक पवित्र वृक्ष होंगे। त्रैलोक्य में देव पूजा में काम आने वाले जितने भी पत्र-पुष्प हैं, उनमें तुलसी प्रधान मानी जाएगी।''

इस प्रकार लीलामय प्रभु भक्तों के हित के लिए पाषाण (शालिग्राम) में और उनकी नित्य प्रिया 'तुलसी' तुलसी वृक्ष के रूप में भारत में अवतरित हुए। जो तुलसी के पत्ते से टपकता हुआ जल अपने सिर पर धारण करता है, उसे गंगा स्नान और दस गोदान का फल प्राप्त होता है। जिसने तुलसी दल के द्वारा संपूर्ण श्रद्धा के साथ प्रतिदिन भगवान विष्णु का पूजन किया; उसने दान, होम, यज्ञ और व्रत आदि सब पूर्ण कर लिए। तुलसी दल से भगवती की पूजा करने पर कांति, सुख, भोग-सामग्री, यश, लक्ष्मी, श्रेष्ठ कुल, सुशीला पत्नी, पुत्र, कन्या, धन, आरोग्य, ज्ञान, विज्ञान, वेद, वेदांग, शास्त्र, पुराण, तंत्र और संहिता–सब करतलगत हो जाता है। जिसके अंग में तुलसी के मूल की मृत्तिका लगी हो, सैकड़ों पापों से युक्त होने पर भी उसे यमराज देखने में समर्थ नहीं होते।

जैसे पुण्य सलिला गंगा मुक्ति प्रदान करने वाली हैं, वैसे ही तुलसी भी कल्याण करने वाली हैं। यदि मंजरीयुक्त तुलसी-पत्रों द्वारा भगवान विष्णु की पूजा की जाए तो उसके पुण्य फल का वर्णन करना असंभव है। जहां तुलसी वन है, वहीं भगवान श्रीकृष्ण की समीपता है तथा वहीं ब्रह्मा और लक्ष्मी संपूर्ण देवताओं के साथ विराजमान हैं। अतः अपने निकटवर्ती 'स्थान में तुलसी को रोपकर उसकी पूजा करनी चाहिए। तुलसी के निकट जो स्तोत्र-मंत्र आदि का जप किया जाता है, वह सब अनंत गुना फल देने वाला होता है। जो मनुष्य तुलसी की मंजरी से विष्णु तथा शिव का पूजन करते हैं, वे नि:संदेह मुक्ति पाते हैं। जो लोग तुलसी काष्ठ चंदन धारण करते हैं, उनकी देह को पाप स्पर्श नहीं करते।

प्रेत, पिशाच, कूष्मांड, ब्रह्मराक्षस, भूत और दैत्य आदि सब तुलसी वृक्ष से दूर भागते हैं। ब्रह्महत्यादि पाप और खोटे विचार से उत्पन्न होने वाले रोग-ये सब तुलसी वृक्ष के समीप नष्ट हो जाते हैं। जिसने भगवान की पूजा के लिए पृथ्वी पर तुलसी का बगीचा लगा रखा है, उसने मानो सौ यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण कर लिया। जो भगवान की प्रतिमाओं तथा शालिग्राम शिलाओं पर चढ़े हुए तुलसीदल को प्रसाद के रूप में ग्रहण करता है, वह विष्णु के सायुज्य को प्राप्त होता है। जो श्री हरि की पूजा करके उन्हें निवेदन किए हुए तुलसीदल को अपने मस्तक पर धारण करता है, वह पाप से शुद्ध होकर स्वर्गलोक को प्राप्त होता है।

कलियुग में तुलसी का पूजन, कीर्तन, ध्यान, रोपण एवं धारण करने से वे पाप को जला देती हैं तथा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त कराती हैं। श्राद्ध और यज्ञ आदि कार्यों में तुलसी का एक पत्ता भी महान पुण्य प्राप्त करने वाला है। जिसने तुलसी की शाखा तथा कोमल पत्तियों से भगवान विष्णु की पूजा की है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। कोमल तुलसी दलों द्वारा प्रतिदिन श्रीहरि की पूजा करके मनुष्य अपनी सैकड़ों और हजारों पीढ़ियों को पवित्र कर सकता है। जो तुलसी के पूजन आदि का दूसरों को उपदेश देता है और स्वयं भी वैसा आचरण करता है, वह भगवान श्री लक्ष्मीपति के परम धाम को प्राप्त होता है।

जिसने तुलसी की सेवा की है; उसने गुरु, ब्राह्मण, तीर्थ और देवतासबकी भली भांति सेवा कर ली है। तुलसी का नामोच्चार करने पर भगवान श्री विष्णु प्रसन्न होते हैं। जिसके दर्शन मात्र से करोड़ों गोदान का फल प्राप्त होता है, उस तुलसी का पूजन और वंदन लोगों को अवश्य करना चाहिए। भगवान विष्णु, एकादशी व्रत, गंगा, तुलसी, ब्राह्मण और गौएं-मुक्ति पद हैं। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में बताया गया है कि तुलसी के पूजनोपरांत निम्नलिखित नामाष्टक का पाठ करने से अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है-

वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी।
पुष्पसारा नन्दिनी तुलसी कृष्णजीवनी॥
एतन्नामाष्टकं चैव स्तोत्रं नामार्थ संयुतम्।
यः पठेत्तां च सम्पूज्य सोऽश्वमेधफलं लभेत्॥

हे तुलसी! तुम अमृत से उत्पन्न हो और केशव को सदा ही प्रिय हो। हे कल्याणी! मैं भगवान की पूजा के लिए तुम्हारे पत्तों को चुनता हूं। तुम मेरे लिए वरदायिनी बनो। तुम्हारे अंगों से उत्पन्न होने वाले पत्रों और मंजरियों द्वारा मैं श्री हरि का पूजन कर सकें, वैसा उपाय करो। पवित्रांगी तुलसी! तुम कलिमल का नाश करने वाली हो—इस भाव के मंत्रों से जो तुलसी दल को चुनकर भगवान वासुदेव का पूजन करता है, उसे पूजा का करोड़ गुना फल मिलता है।

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