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धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता

हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8953
आईएसबीएन :9788131010860

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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

श्रीकृष्ण

आगे दिए गए बलराम अवतार के अंतर्गत यह उल्लेख है कि हर द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार न होने से श्रुतियों ने बलराम को ही द्वापर का युगावतार कहा है। किंतु गत द्वापर में भू-भार हरण और धर्म की स्थापना करने के लिए श्री कृष्णावतार हुआ था, अतः अवतार प्रसंग में श्री कृष्णावतार का उल्लेख करना अपरिहार्य है। भगवान श्रीकृष्ण की कथा इस प्रकार है-

वसुदेव अपनी नवविवाहित पत्नी देवकी को विदा कराकर अपने घर जा रहे थे और उनका साला कंस रथ हांक रहा था। तभी मार्ग में आकाशवाणी हुई, "अरे मूर्ख! जिसको तू रथ में बिठाकर लिए जा रहा है, उसकी आठवीं संतान तुझे मार डालेगी।'' आकाशवाणी सुनते ही कंस तलवार खींचकर बहन देवकी का वध करने को तैयार हो गया। वसुदेव ने नवजात शिशु को उसे सौंपने का वचन दिया। फिर भी कंस ने बहन-बहनोई को जेल में डाल दिया। विरोध करने पर पिता को भी बंदी बना लिया और स्वयं मथुरा का राजा बन गया।

कुछ समय बाद देवकी ने एक पुत्र को जन्म दिया। वसुदेव ने उसे कंस को सौंप दिया। इसी तरह एक-एक करके वसुदेव ने छह बच्चे कंस को सौंप दिए। कंस उन्हें शिला पर पटक कर मार डालता था। सातवें गर्भ में भगवान शेष पधारे, किंतु उन्हें योगमाया ने देवकी के गर्भ से खींचकर रोहिणी के गर्भ में पहुंचा दिया। आठवें गर्भ में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण पधारे। भाद्रपद अष्टमी को उनका चतुर्भुज रूप में प्राकट्य हुआ। वे वसुदेव को उपाय बताकर शिशु बन गए। रक्षकों के नेत्र बंद हो गए, वसुदेव की बेड़ियां स्वयं टूट गईं और जेल के फाटक खुल गए। वसुदेव उन्हें नंद के घर गोकुल में पहुंचा आए और वहां से यशोदा की कन्या को ले आए। कंस उस कन्या को ज्यों ही शिला पर पटकने को आतुर हुआ, त्यों ही वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में अष्टभुजी होकर बोली, "जिसे तू मारना चाहता है, वही तुझे मारेगा।"

उधर नंद के घर शिशु जन्म से गोकुल की गलियों में आनंद छा गया। भनक लगते ही कंस ने उन्हें मारने के लिए अनेक राक्षस भेजे किंतु वे सब श्रीकृष्ण द्वारा मारे गए। श्रीकृष्ण लीला पुरुषोत्तम कहे जाते हैं। उन्होंने बचपन से ही अपनी अलौकिक लीलाएं दिखानी शुरू कर दी थीं। माता यशोदा ने कृष्ण को मिट्टी खाने पर मुंह खोलने को कहा तो उन्होंने अपने मुंह में पूरे ब्रह्मांड को दिखा दिया। कुछ बड़े होने पर चित्तचोर माखनचोर बन गए। वे विचित्र लीलाएं दिखाने लगे-बंसी बजाकर जीव-जंतुओं तक को मंत्रमुग्ध कर देना, कालिया नाग के फनों पर नृत्य करना, गोपियों के साथ महारास तथा गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाना उनकी दिव्य लीलाएं हैं।

कंस के बुलाने पर वे मथुरा गए और कंस का वध करके नाना उग्रसेन को पुनः मथुरा के सिंहासन पर बैठाया। फिर सांदीपनि गुरु से 64 दिन में शिक्षा प्राप्त कर अर्जुन को दिव्य उपदेश दिया। संसार में 'श्रीमद्भगवद् गीता' के जोड़ की दूसरी कोई पुस्तक नहीं है। उन्होंने अर्जुन को विराट रूप दिखाकर संसार को यह बता दिया कि वे ही सृष्टि के आदिकारण हैं। वही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता, समस्त प्राणियों के अधीश्वर और भक्त-रक्षक हैं।

दुःशासन द्वारा चीरहरण के समय द्रौपदी की करुण पुकार सुनकर श्रीकृष्ण ने उसे वस्त्र में छिपाकर द्रौपदी की लाज बचाई। इसके अलावा पांडवों को अनेक बार संकट से उबारा। वेदव्यास ने उन्हें प्रकृति नटी को नचाने वाला सूत्रधार कहा है। उन्होंने अपने यादव कुल को आपस में ही लड़वाकर मरवा डाला और स्वयं एक भील का बाण लगने पर अपने तेज से आकाश को प्रकाशित करते हुए अपने दिव्य धाम गोलोक को चले गए।

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