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धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता

हमारे पूज्य देवी-देवता

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8953
आईएसबीएन :9788131010860

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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...

सिंहिका-पुत्र राहु


‘श्रीमद् भागवत' के अनुसार राहु का जन्म असुर कुल में हुआ था किंतु वह देवता का वेश धारण करके छल से अमृत पीकर अमर हो गया और देव श्रेणी में इनकी गणना होने लगी। ब्रह्मा जी ने कृपा करके इन्हें ग्रह बना दिया। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नौ ग्रहों में से सात ग्रह प्रकाश रूप हैं और राहु-केतु (जो एक ही ग्रह के दो भाग हैं) अंधकार रूप हैं। इसलिए ये छाया के अधिष्ठात्र देवता हैं। इनका काम प्रकाश को रोकना है।

चंद्रमा पर पृथ्वी की छाया और सूर्य पर चंद्रमा की छाया भी प्रकाश को रोकती है, इसलिए उस छाया को राहु रूप माना जाता है। चंद्रमा की छाया गोल पड़ती है, अतः उसे शिर रूप और पृथ्वी की छाया लंब त्रिकोण रूप पड़ती है, अतः उसे धड़ कहा जाता है। यही 'राहु-केतु' कहलाते हैं। ये दोनों ग्रह वक्र गति से यानी अन्य ग्रहों से उल्टे घूमते हैं। इनको एक राशि पर भ्रमण करने में डेढ़ वर्ष लगता है। इनके जन्म की कथा इस प्रकार है-

'श्रीमद् भागवत' के अनुसार सिंहिका दैत्यराज हिरण्यकशिपु की पुत्री थी। उसका विवाह विप्रचिति असुर के साथ हुआ था। उन दोनों के संसर्ग से राहु की उत्पत्ति हुई। राहु के सौ भाई थे किंतु उन सबमें राहु बढ़-चढ़कर था। जब समुद्र-मंथन से निकले अमृत-कलश की छीना-झपटी चल रही थी तो अमृत गिरकर नष्ट न हो जाए, यही सोचकर देवता निराश थे। तभी भगवान विष्णु मोहिनी रूप में प्रकट हुए। उस अलौकिक सुंदरी के रूप पर सभी मुग्ध थे। असुरों ने उसे मध्यस्थ बनाकर अमृत बांटने के लिए कहा। वह मुस्कराती हुई मधुर वाणी में बोली, "मैं अमृत का उचित विभाजन करूं या अनुचित-यदि तुम लोग उसमें बाधा न डालो तो मैं यह कार्य करूंगी।" उसकी बात मानकर देव-असुर अलग-अलग पंक्तियों में बैठ गए। मोहिनी भाव-भंगिमाओं से असुरों को मुग्ध करते हुए देवताओं को अमृत पिला रही थी।

अमृत पीने के लोभ में राहु देवता का वेश धारण कर देवताओं के बीच जा बैठा और अमृत पी लिया। किंतु उसी क्षण सूर्य एवं चंद्रमा ने उसकी पोल खोल दी। तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट डाला किंतु अमृत पी लेने के कारण वह नहीं मरा, दो टुकड़ों में अमर हो गया। सिर को भाग 'राहु' और धड़ का भाग 'केतु' कहलाया। ब्रह्मा जी ने दोनों को ग्रह बना दिया। सूर्यचंद्रमा से वैर के कारण ही राहु पूर्णिमा को चंद्रमा पर और अमावस्या को सूर्य पर आक्रमण करता है। उसके इस आक्रमण को 'ग्रहण' कहते हैं।

राहु का मुख भयंकर है। इनके सिर पर मुकुट, गले में माला तथा शरीर पर काले रंग का वस्त्र सुशोभित है। राहु के हाथों में तलवार, ढाल, त्रिशूल और वरमुद्रा है। इनकी सवारी सिंह है।'मत्स्य पुराण' में कहा गया है कि राहु का रथ अंधकार रूप है। उस रथ को कवच आदि से सजाए हुए काले रंग के आठ घोड़े खींचते हैं। नवग्रह मंडल के वायव्य कोण में राहु का निवास है। ये दक्षिण दिशा के स्वामी, तीव्र बुद्धि किंतु आलसी हैं। राहु की शांति के लिए मृत्युंजय जप तथा गोमेद धारण करना चाहिए। लोहा, तिल, नीले वस्त्रादि दान करने से भी राहु का अशुभ प्रभाव कम हो जाता है।

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