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कविता संग्रह >> हर रोज सुबह होती है

हर रोज सुबह होती है

विजय कुमार खन्ना

प्रकाशक : अनुभूति प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8971
आईएसबीएन :000000000000

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विजय कुमार खन्ना की कविताएं जीवानुभवों की कठोर भूमि पर उपजी हैं...

Ek Break Ke Baad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


विजय कुमार खन्ना की कविताएं जीवानुभवों की कठोर भूमि पर उपजी हैं। इसलिए जीवन के विविध पक्षों की तसवीर उकेरती हैं। यह तसवीरें कहीं लुभाती हैं, हंसाती हैं, गुदगुदाती हैं, तो कहीं जीवन की कड़वी सच्चाई को दिखा कर मन भारी भी कर देती हैं। जीवन नश्वर है, सब कुछ नश्वर है. यह तो बताती हैं लेकिन साथ ही जोश, उत्साह भी भरती हैं कि इस नश्वरता में ही जीवन का परम आनंद भी छुपा है। इस आनंद को पाने का उददेश्य ले कर चलें तो यह नश्वर जीवन बहुरंगी खुशियों से भरा है। यह आपके हाथ में है कि आनंद के साथ नश्वरता को जश्न में तब्दील करेंगे या फिर भारी मन लिए जीवन काटेंगे।

विजय कुमार खन्ना जीवन भर नश्वरता को जीवन आनंद के उत्सव में तब्दील करने में व्यस्त रहे। वह आनंद उठाने का आधार हर जगह ढूंढ़ ही लेते थे और साथ ही उसमें छिपे जीवन दर्शन को भी पढते-गुनते और फिर अनुभूतियों को कागज पर कविता रूप में अंकित कर अपनी पहली पाठिका जीवन संगिनी शीला को पढ़ाते। जो उनकी रचनाओं का आनंद तो लेतीं ही साथ ही अपने विचार सुझाव भी देतीं। जरूरत पड़ने पर कड़ी आलोचना करने से भी ना हिचकती थीं। ऐसे समय वह पत्नी के दायरे से बाहर आकर एक आलोचक की भूमिका पूरी शिद्दत से निभाती थीं। वह पति की प्रेरणापुंज थीं, उनकी ऊर्जा. उनकी सारी खुशियों की एकमात्र केंद्र थी। उनके हर सफर की हमसफर थीं। विजय. जीवन का हर उत्सव बिना उनके मनाने का खयाल भी मन में न ला पाते थे। बातचीत में बेहद सहज, सरल व अपनी बात को कहने में उन्हें कोई हिचक नहीं थी। उनसे बातें करना जीवन के बहुरंगी अनुभवों से भरे पिटारे को खंगालने जैसा था जिसमें ऐसी बातें सामने आतीं कि जीवन दर्शन के एक-एक पन्ने सुहावने लगते। मन कहता कि यह बातें चलती ही रहें। इनका सिलसिला रुके ही न।

मैं उन सौभाग्यशालियों में से एक हूं जिन्हें उनसे मिलने बतियाने का सुअवसर मिला। पहली मुलाकात में ही वह ऐसे मिले जैसे मैं उनके परिवार का ही एक सदस्य हूं। आज करीब 10 वर्ष बाद भी उनसे हुई वह बातें नही भूलतीं जब मैंने उनकी रचना धर्मिता और जीवन दर्शन के बारे में कुछ बातें छेड़ दीं। फिर जो जवाब दिए उन्होंने उससे मैं भाव-विभोर हो गया। मेरे एक प्रश्न कि जीवन के भांति-भांति के रंग देखे हैं आपने, जीवन को काटने नहीं ज्यादा से ज्यादा जी लेने की कोशिश में रहते हैं आप। यह कविता लिखना कब से शुरू किया आपने कब ठान ली कवि बनने की मेरी बात सुनकर हंस दिए। मुझे लगा कि शायद मैंने कुछ गलत पूछ लिया, मैं अंदर ही अंदर परेशान हो उठा। मगर वह अगले ही पल बोले- ‘प्रदीप सच यह है कि मैंने कभी सोचा नहीं था कि कविताए लिखूंगा कवि बनूंगा। आज भी ऐसी बातों पर मेरा ध्यान नहीं जाता मैं इस बात पर पूरा यकीन करता हूं कि नीति नियंता ने जो कुछ तय कर रखा है वह होकर रहेगा। इस बात में अटूट आस्था है मेरी। हम तुम बात कर रहे हैं यहां यह भी तय था। लेकिन इससे आगे मेरी मान्यता यह भी है कि उस परम शक्ति ने हर इंसान को यह भी ताकत दी है या यह भी नियत किया है कि जीवन को खुशियों से भरने की क्षमता भी हमें दी है। अब अगर उस क्षमता का हम उपयोग ना करें, बैठे रहें भाग्य के सहारे तो इसमें ईश्वर की क्या गलती। और जीवन में बढिया रंग तभी भरा जा सकता है, जब हम जीवन में छोटी-बड़ी हर बातों को, हर चीज को गंभीरता से लेते हैं, जब हम गंभीरता से देखते-समझते हैं तो निर्णय सही लेते हैं। सही निर्णय सफलता देती है। सफलता संतुष्टि - खुशी देती है। इस स्थिति को जो पा लेता है मेरी नजर में वही सफल है। उसी का जीवन खुशियों से भरा है। रही बात कविता और कवि बनने की तो इतना ही कहूंगा कि कोई योजना बना कर कवि नहीं बना। मैं समझता हूं कि बना भी नहीं जा सकता। हां बातों को, घटनाओं को देख कर मन में जो अनुभूति होती है, एहसास होता है उसे शब्दों में अंकित करने को मन मचल उठता है। बस लिख डालता हूं। कभी सयास कलम-डायरी लेकर नहीं बैठता कि बस आज कविता लिखनी है।

ऐसी सीधी सादी सहज सोच ही शायद एक ऐसा मुख्य कारण है कि हृदय से निकले उनके शब्द हृदय को अंदर तक प्रभावित करते हैं, मथते हैं। दुनिया में फैली स्वार्थपरता से आहत हो उनका मन जहां कहता है कि -

ऐ इंसान! छोड़ बदी की राहों को,
बढ ले नेकी की राहों पर,
क्या लेकर तू आया, क्या लेकर तू जाएगा,

तो दूसरी तरफ श्रृंगार रस में डूब कर कहते हैं-

एक दिन कर पुष्पों से श्रृंगार प्रिए,
आ अतृप्त नयनों की प्यास बुझाना तुम,

मृगनयनी नयनों से, सुधारस बरसाती तुम,
लिए करो में पुष्पों की जयमाला प्रिए तुम,
पग घुंघरू बांध हौले-हौले से प्रिए आना तुम, कुछ मुस्कुराती,
सकुचाती इठलाती तुम आना प्रिए।

या फिर जब वह नायिका का मन टटोलते हैं तो कहते हैं-

पिया आज की रात मैं न बोलूंगी,
पिया मन की बात मैं न खोलूंगी,
सावन की इन घटाओं में,
उमगें जगा कर तुम्हारी,
दूर तक भटकाऊंगी तुम्हें,
पिया आज की रात मैं न बोलूंगी।

और जब फौजियों की बात करते हैं तो फडक उठती है उनकी कलम तनकर कहती है-

वतन के ये प्यारे, न्यारे ये बहादुर जवान,
कभी ये झुकते नहीं, कभी शिकस्त खाते नहीं,
कुर्बानी के ये अनमोल फरिश्ते,
भूख प्यास और मौत से शिकस्त खाते नहीं,
बढते कदम कभी रुकते नहीं,
कभी रुकते नहीं, कभी थकते नहीं।

विजय का मन बच्चों के मन में भी झांकता है और उनके अंतर्मन को समझ कर लिखता है-

नदी किनारे बालक बैठा
नदी से यूं कहता है
ऐ नदी तू कहां से आई
कौन तुझे जल देता है।

नदी से बालक को उत्तर न मिला
कल-कल करती हुई वह बहती रही,
बालक मंत्र मुग्ध हो नदी को देखता रहा,
किन्हीं गंभीर विचारों में खोया वह बैठा रहा।

समाज में होने वाले अनाचार अमानवीय कृत्यों से वह द्रवित हो उठते थे, उनका भाबुक मन उन्हें बेहद अशांत कर देता था, हर तरफ बढती संवेदनहीनता पर क्षोभ व्यक्त करने से खुद को नहीं रोक पाते थे। मां के ममत्व को छीजता देख वह लिखते हैं-

नग्न धरती पर आकाश के साए में,
पडा हुआ था किसी मातृत्व विहीन हृदय का टुकडा
वह किसी मातृत्व विहीन हृदय का एक टुकडा था,
या किसी मातृत्व विहीन हृदय के गुनाहों का पुतला था।
जन्म लेकर भी एक मां की गोद में,
आ सोया है वह नग्न धरती पर आकाश के साए में
पल भर भी गोद में रहकर न देखा जिसने सुख मातृत्व की
ममतामयी गोद का।

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