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सृष्टि

श्याम गुप्त

प्रकाशक : सुषमा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8973
आईएसबीएन :000000000000

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श्याम गुप्त प्रणीत, एकादश खण्डों में विभाजित, अगीत विधा का यह महाकाव्य, ‘सृष्टि‘, वैदिक दर्शन पर आधारित एक अतीव उत्प्रेरक और आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदायक श्लाघ्य कृति है...

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


कविवर डा. श्याम गुप्त प्रणीत, एकादश खण्डों में विभाजित, अगीत विधा का यह महाकाव्य, ‘सृष्टि‘, वैदिक दर्शन पर आधारित एक अतीव उत्प्रेरक और आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदायक श्लाघ्य कृति है । आज देश की युवा पीढ़ी को, भौतिकवादी विचार दर्शन, विषयगामी बनाने पर तुला है । उनका मार्क्सवादी द्वन्दात्मक विचार दर्शन, सृष्टि के मूल में या प्रारम्भ में किसी ईश्वर या चेतन सत्ता को कारण नहीं मानता, वरन् उनकी मान्यता है कि यह विश्व परिवर्तनशील है । इसी परिवर्तनशीलता के मूल में स्थिति-प्रतिस्थिति के बीच संघर्ष, द्वन्द्व होते-होते एक तीसरी अवस्था सेनथीसिस उत्पन्न हुई । वही सृष्टि का कारण बनी । उसमें किसी ईश्वर, सनातन आत्मा या चेतन सत्ता का अस्तित्व नहीं रहा था । इसी को मार्क्सवाद में ‘डायलेक्टिकल मैटीरियलिज्म नाम दिया गया था उसमें किसी नित्य आत्मा या राष्ट्रवाद की गुजाइश नहीं । यद्यपि चीन में कम्युनिस्ट व्यवस्था की मान्यता के बावजूद वहाँ राष्ट्रवाद का ही प्राबल्य रहा, और आज भी चीन अपने उसी राष्ट्रवाद के आधार पर एक शक्तिमान राष्ट्र बना हुआ है ।

अगीत विधा में ही कविवर श्री जगत नारायण पांडेय की प्रकाशित काव्य कृतियां प्रथम खण्ड काव्य ‘मोह और पश्चाताप‘ एव प्रथम महाकाव्य ‘सौमित्र गुणाकर‘ जो रामकथा पर आधारित और स्तुत्य हैं और समाज में सदाचार, सच्चाई और सामंजस्य जगाने में सक्षम काव्य कृतिया हैं । वे प्रशंसित हो चुकी हैं।

प्रस्तुत महाकाव्य का आधार कविवर ‘श्याम गुप्त‘ ने वैदिक तत्त्व ज्ञान को बनाकर इसमें ब्रह्मा- ‘ब्रह्मा प्रादुर्भाव‘, ‘सृष्टि‘, एव ‘माहेश्वरी प्रजा‘, जैसे एकादश खण्डों में इसकी रचना की है, जो स्तुत्य है । इसी वैदिक तत्त्व ज्ञान के आधार पर कवि ने इस महाकाव्य के अष्टम खण्ड में लिखा है कि -

‘‘ईक्षण तप से हिरण्यगर्भ के
भू, सावित्री भाव प्रकृति से
सब जग रूप पदार्थ बन गये ।
‘भुव‘, गायत्री भाव उसी का
अपरा-परा अव्यक्त रूप में
चेतन सृष्टि का मूल तत्त्व था ।।‘

पुनश्च इसी क्रम में आगे लिखते हैं -

‘‘परा शक्ति से परात्पर की
प्रकट स्वयंभू आदि-शंभु थे ।
अपरा-शंभु संयोग हुआ जब
व्यक्त भाव, महत्तत्त्व बन गया ।
हुआ विभाजित व्यक्त पुरुष में
एव व्यक्त आदि-माया में ।।‘‘

‘आदि शंभु‘ व आदि माया का यह प्राकट्य रूप तत्त्व दर्शन, पश्चिमी जगत से प्रायः अज्ञात ही रहा है । इसी कारण वहाँ मार्क्सवाद का भौतिकवाद प्रसार पा सका । अवश्य ही हीगल और एंजिल्स जैसे विचारक कुछ भिन्न विचार रखते थे, परन्तु भारतीय परम्परा में सृष्टि के सृजेता पालक और संहारक ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही रहे हैं । इसी विचार को कवि ने भी अपने इस महाकाव्य ‘सृष्टि‘ में निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है कि-

‘‘पालक, धारक और सयोगक
संहारक, लय, सृजक रूप में ।
महाविष्णु, महाशिव और ब्रह्मा
बन असीम संकल्प शक्ति सब,
प्रकट हुये, उस असीम से, वे
व्यक्त पुरुष से, आदि-विष्णु से ।।‘‘

इसलिए इस खण्ड का ‘ब्रह्माण्ड खण्ड‘ शीर्षक सार्थक है । और जैसा कि वैदिक तत्त्व ज्ञान की मान्यता है कि-‘‘तत्त्वमसि‘‘, अर्थात ‘‘तुम वही हो‘ । और -सोध्ह अर्थात ‘‘मैं वही हूँ‘ । यही सिद्धान्त कवि ने इस महाकाव्य में छन्दबद्ध किया है-

‘‘सभी जीव मे वही ब्रह्म है
मुझमे तुझमे वही ब्रह्म है ।
उसी एक्? को समझ के सब में
मान उसी को हर कण-कण में
तिनके का भी दिल न दुखाये
सो प्रभु को, पर-ब्रह्म को पाये । ।‘‘

अंततः अखिल विश्व के मानव समाज के लिये इस महाकाव्य का भी यही सदेश है कि, सभी जड-चेतन मात्र में एकमेव उसी परब्रह्म का स्वरूप मानकर किसी भी प्राणी को दुख देना उचित नहीं है, और ऐसा ही साधक. आराधक जन ही पर ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है । आज की सामाजिक स्थिति मे यह महाकाव्य वर्तमान पीढी को भौतिकवादी तष्णा-वितृष्णा से परे एक नवीन आध्यात्मिक चेतना प्रदान करेगा ।

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