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प्रेम-काव्य

श्याम गुप्त

प्रकाशक : सुषमा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8974
आईएसबीएन :000000000000

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प्रेम की परिभाषा उतनी ही दुष्कर है, जितनी जगत-नियंता की...

Ek Break Ke Baad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


प्रेम की परिभाषा उतनी ही दुष्कर है, जितनी जगत-नियंता की । तभी तो नारद भक्ति-सूत्र, से लेकर आजतक सभी मीमांसा-विशारद प्रेम को अनिर्वचनीय मानते हैं । किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच पाये जाने वाले प्रेम के उत्तरोत्तर विकास भावना प्रेमास्पद के रूप गुण, स्वभाव, सान्निध्य के कारण उत्पन्न सुखद अनुभूति होती है जिसमें सदैव हित की भावना निहित रहती है आधुनिक युग, विज्ञान का युग है, और जब तक कारण-कार्य स्पष्ट न हो, बात तर्क की तुला पर प्रमाणित न होती हो, जन मानस स्वीकार नहीं कर पाता । अत प्रेम विज्ञानवेत्ताओं की शोध का विषय बन चुका है और प्रत्येक क्षेत्र के विद्वानों का पृथक दृष्टिकोण है । मनोविज्ञान के पंडित इसे आदिम सहजवृत्ति मानते हैं । समाज-शास्त्री इसे सामाजिक सम्बंधों का एक आवेशात्मक अंग मात्र समझते हैं तथा जीवविज्ञानी भौतिक पदार्थ को प्रेम का मूल-तत्त्व मानते हैं जो समय पाकर आगे यौन सम्बध में परिणत हो जाता है । इनके अनुसार प्रेम एक शारीरिक भूख, है जिसकी तृप्ति भौतिक नियमों पर निर्भर है । सगुण व्यक्तित्व या मूर्त-रूप प्रदान किये बगैर प्रेमाभिव्यंजना सम्भव नहीं होती । अलौकिक प्रेम या प्रेमाभक्ति में भी वास्तव में हमारी मूल-प्रेम किवा, काम भावना को ही परिष्कृत रूप प्रदान किया जाता है । आराध्य को समर्पित प्रेम में आसक्ति किवा इन्द्रियासक्ति विलुप्त हो जाती है और उसके स्थान पर निष्काम प्रेम का पुष्प विकसित हो जाता है । वैदिक साहित्य में ‘काम‘ शब्द का प्रयोग बहुधा ‘कामना‘ के अर्थ में किया जाता था इसलिये कामना मुक्त पुरुष को ‘निष्काम‘ कहा गया है । संत कबीर ने कहा है-

‘‘काम काम सब कोई कहै, काम न चीन्है कोय ।
जेती मन की कामना, काम कहीजै सोय ।।‘‘

प्रेम अहैतुक और निःस्वार्थ होता है नारद भक्ति सूत्र में प्रेम की व्याख्या -

‘‘गुण रहित, कामना रहित, प्रतिक्षण वर्धमानम- विच्छिन्न, सूक्ष्मतरमनुभव-रूपम्‘‘ तथा- ‘तत्प्राप्य तदेवावलोकयति, तदैव श्रणोति, तदैव भाषयति, तदैव चितयति‘ कहकर की गई है ।

डा श्याम गुप्त का ‘प्रेम काव्य‘ प्रेम-वल्लभा, श्याम-प्रिया राधाजी को समर्पित है । इसमें उन्होंने प्रेम के विविध भाव-रूपों को काव्यबद्ध किया है । गीति-काव्य की विधा में रचित यह काव्य-ग्रंथ एकादश खण्डों में विभाजित है । क्रमश वन्दना से प्रारम्भ करके वे ‘सृष्टि‘, प्रेमभाव, प्रकृति, समष्टि-प्रेम, रस-श्रृंगार, संयोग, वियोग ऋतु-श्रृंगार, वात्सल्य, सहोदर व सख्य-प्रेम, भक्ति-श्रृंगार, अध्यात्म एवं अमृतत्व खण्डों में अपनी भाव रश्मियों की आभा बिखेरते हैं ।

प्रेम की चर्चा करते समय डा गुप्त ने सृष्टि-रचना से लेकर जीव-जगत में व्याप्त प्रेम के विभिन्न रूपों की चर्चा की है तथा वर्णन करने में रस, छन्द, अलंकार का समुचित ध्यान रखा है । आश्रय, आलम्बन, उद्धीपन यथा-स्थान सुन्दर एवं उपयुक्त ढंग से सजाये गये हैं । अपने ‘सृष्टि‘ काव्य में भी कवि ने प्रेम के स्वरूप का आध्यात्मिक ढंग से वर्णन किया था । इस कृति में प्रेम की बहुरंगी छटा, बिखेर कर उदात्त भाव का प्रदर्शन किया है । प्रेम के बहुआयामी स्वरूप का चित्रण करते समय कवि ने अपनी कामना-

‘‘तुच्छ बूँद सा जीवन दे दो ।।‘

शीर्षक रचना में बूँद में सागर-समाया जानकर बूँद रूप में की है । जीवन सुख, शाश्वत्-सुख, ज्ञानामृत, परमार्थ, मोक्ष सभी कुछ प्रेम साधना से प्राप्त है, अत प्रेम को सर्वसुख मानकर सम्पूर्ण विश्व की मंगलकामना में कवि का मन दत्तचित्त है और वह स्वीकार करता है कि-

‘‘इस संसार असार में, ‘श्याम‘ प्रेम ही सार ।
प्रेम करे दोनों मिलें ज्ञान और संसार ।।‘

डा गुप्त का यह काव्य, सांसारियों और योगीयती, प्रेमानुरागियों सभी के लिये मंत्रसदृश है । सांसारिक-आनंद, शान्ति, और सुख का सार है, मोक्ष का आधार है । मुझे विश्वास है कि साहित्य जगत में इसका स्वागत होगा और डा. गुप्त की लेखनी से और भी अनूठे काव्य-सृजन से माँ भारती का भण्डार भरेगा ।

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