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गीता प्रेस, गोरखपुर >> परम साधन - भाग 2

परम साधन - भाग 2

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 898
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है परम साधन भाग-2......

Param Sadhan Bhag-2 a hindi book by Jaidayal Goyandaka - परम साधन भाग-2 - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नम्र निवेदन

समय-समय पर ‘कल्याण’ मे जो मेरे लेख प्रकाशित होते हैं, उन्हीं में से प्रायः 26वें और 27वें वर्ष में आये हुए अधिकांश लेखों का संग्रह करके कई भाइयों का आग्रह होने के कारण यह पुस्तक प्रकाशित की जा रही है। इसमें शारीरिक, भौतिक, मानसिक, बौद्धिक, व्यावहारिक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक आदि सब प्रकार की उन्नति का विवेचन किया गया है, जो कि सभी के लिये लाभदायक है। इसके सिवा, भगवत्प्राप्ति में मनुष्यमात्र का अधिकार बतलाते हुए सत्यपालन, निष्काम कर्म, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार, बालकों और स्त्रियों के लिये कर्तव्य-शिक्षा और देश की उन्नति आदि सर्वसाधारण के लिये उपयोगी विषयों का भी प्रतिपादन किया गया है। साथ ही, शिक्षाप्रद कथा-कहानी भी दी गयी है एवं भजन-ध्यानरूप भगवद्भक्ति का विषय तो इसमें बहुत विस्तार से दिया ही गया है; समयकी अमोलकता, साधनके लिये चेतावनी, सत्संग और महापुरुषों का प्रभाव तथा गोपी-प्रेम का रहस्य भी बतलाया गया है और गीता-रामायण की महत्ता एवं इनके मुख्य-मुख्य उपयोगी प्रसंगों का संकलन भी किया गया है।

इन लेखों की बातों को यदि पाठकगण काममें लावें तो उनका कल्याण हो सकता है और मैं काममें लाऊँ तो मेरा कल्याण हो सकता है; क्योंकि ये ऋषि, महात्मा, शास्त्र और भगवान् के वचनों के आधार पर लिखे गये हैं। इनमें ऐसी-ऐसी सुगम बातें हैं, जिनको बिना पढ़े-लिखे साधारण पुरुष और स्त्री-बच्चे भी काममें ला सकते हैं।

इनमें जो त्रुटियाँ रही हों, उनके लिये विज्ञजन क्षमा करें और कृपापूर्वक मुझे सूचित करें।
विनीत
जयदयाल गोयन्दका

एक क्षण में भगवत्प्राप्ति कैसे हो सकती है ?

एक सज्जन ने पूछा है कि ‘‘ऐसा कौन-सा ‘क्षण’ होता है, जिसमें तुरंत भगवान् की प्राप्ति हो जाती है ?’’ इसके उत्तरमें निवेदन है कि जैसे बिजली फिट हो जाय तथा पावरहाउस से उसका कनेक्शन हो जाय तो फिर जिस क्षण स्विच दबाया जाता है, उसी क्षण प्रकाश हो जाता है और अन्धकार का भी उसी क्षण नाश हो जाता है; इसी प्रकार मनुष्य जब ‘पात्र’ हो जाता है, सब तरह की उसकी पूरी तैयारी होती है, तब परमात्मा के विषय का ज्ञान क्षणमात्र में हो जाता है तथा ज्ञान होते ही उसी क्षण अज्ञानका नाश होकर परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। दूसरा उदाहरण है—जैसे किसी को दिग्भ्रम हो जाता है तो उसको पूर्व का पश्चिम और पश्चिम का पूर्व दीखने लगता है, पर जब दिग्भ्रम मिटता है, तब क्षणमात्रमें ही मिट जाता है और उसी क्षण दिशा का यथार्थ ज्ञान हो जाता है; इसी प्रकार जब परमात्मा का ज्ञान हो जाता है, तब उसी क्षण दिग्भ्रम की भाँति मिथ्या भ्रम मिट जाता है और उसे परमात्मा के वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है। तीसरा उदाहरण है—जैसे किसी को रात्रि के समय नींद में स्वप्न आ रहा है, इतने में किसी कारण से वह जग गया, बस, जगते ही स्वप्न का सारा संसार क्षणमात्र में नष्ट हो गया—उसका अत्यन्त अभाव हो गया; इसी प्रकार परमात्मा में जगनेपर अर्थात् परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से स्थित होनेपर ज्ञानरूपी नेत्रों के खुलनेसे उसी क्षण यह संसार सर्वथा छिप जाता है तथा परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।

जैसे दिग्भ्रम अपने-आप ही मिट जाता है, अथवा अपने जन्मस्थान पर आने से भी मिट जाता है; तथा जैसे स्वप्नावस्था में जब मनुष्य स्वप्न को स्वप्न समझ लेता है, तब वह अपने-आप जग जाता है अथवा दूसरे के जगाने से भी जग जाता है; इसी प्रकार शास्त्रो के गम्भीर विचार के द्वारा संसार को हर समय स्वप्नवत् देखने से तथा कर्मयोग की सिद्धि के द्वारा अन्तःकरण शुद्ध होने से मनुष्यको जो अपने-आप ही ज्ञान हो जाता है, वह अपने-आप जगना है (गीता 4/38)। तथा महात्माओं के शरण जानेपर उनसे जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह दूसरे के जगाने से जगना है (गीता 4/34-35)। अब दिग्भ्रम के विषय में यह समझना चाहिये कि जब किसी को दिग्भ्रम हो जाता है, तब वह यदि अपने जन्मस्थान में चला जाता है तो उसकी चौंधियायी आँखें उसी क्षण ठीक हो जाती हैं। इसी प्रकार परमात्मा के स्वरूप में स्थितिरूप जन्मस्थान पर पहुँचने से तुरंत ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। विचार कीजिये, यहाँ हमारा जन्मस्थान क्या है ? परमात्मा का जो स्वरूप है वही हमारा जन्मस्थान है वही हमारा असली आदिस्वरूप है; अतः परमात्मा के स्वरूप में स्थिर होते संसार का भ्रम मिट जाता है। जैसे दिग्भ्रमके समय भ्रम से पूर्व की ओर पश्चिम और पश्चिम की ओर जो पूर्व दीखता था, वह भ्रम मिटकर यथार्थ दीखने लग जाता है, वैसे ही परमात्मा में भ्रम से जो यह संसार प्रतीत हो रहा है, यह भ्रम परमात्मा के स्वरूप में स्थित होने से मिट जाता है। अथवा जैसे दिग्भ्रम अपने-आप मिट जाता है, इसी प्रकार यह संसार-भ्रम भी संसार को हर समय स्वप्नवत् समझते रहने पर किसी-किसी के अपने –आप ही शान्त हो जाता है। एवं जब चित्त की वृत्तियाँ पूर्णतया सात्त्विक हों तथा साथ ही वैराग्य भी हो, तब अन्तःकरण शुद्ध होकर अपने-आप ही ज्ञान पैदा हो जाता है। ऐसी स्थिति में किसी संत के द्वारा तत्त्वोपदेश मिल जाय, तब तो कहना ही क्या है ! फिर तो परमात्मा का वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो ही जाता है (गीता 4/34-35) तथा मरने के समय तो परमात्मा के ध्यानमात्र से ही उसी क्षण परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। भगवान् ने कहा है—

अन्तकाले  मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।

(गीता 8/5)

‘जो पुरुष अन्तकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है इसमें कुछ भी संशय नहीं है।’
इसी प्रकार भगवान् ने गीता के दूसरे अध्याय के 72वें श्लोक में कहा है —

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।


‘हे अर्जुन ! यह ब्रह्मको प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अन्तकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है’
यह अन्तकाल की स्थिति की महिमा है। इसी प्रकार सत्वगुण की स्थिति में प्राण जाने से भी बड़ा लाभ है। गीता के 14 वें अध्याय के 18 वें श्लोक में बताया है कि ‘जिनकी सत्त्वगुण में स्थित है, वे ऊर्ध्व को प्राप्त हो जाते है।’ ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः) इसका अभिप्राय तो यह है कि जिसकी सदा ही सत्त्वगुणमें स्थिति है, वही ऊपर को जाता है; परंतु अन्त समय में भी कोई यदि सत्त्वगुण को प्राप्त हो जाता है जिस समय सत्त्वगुण की वृद्धि हो, उस समय किसी के प्राण निकलते हैं, तो वह भी उत्तम गति को प्राप्त होता है। भगवान् ने गीता में बताया है —

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान् प्रतिपद्यते।। (14/14)

‘जब यह मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धिमें मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है।
यहाँ अभिप्राय यह है कि वह ऊपर के लोकों को जाता है और फिर वहाँ से आगे बढ़कर परमात्माको-परमधामको प्राप्त हो जाता है। (इसका विस्तृत अर्थ देखना चाहिये।) इसे क्रम-मुक्ति कहते हैं। यहाँ यह समझना चाहिये कि जैसे अन्तकाल की यह एक विशेष बात है कि उस समय यदि राजसी-तामसी वृत्ति वाला पुरुष भी भगवान् का ध्यान करता हुआ या भगवान् के तत्त्वज्ञान को समझता हुआ प्रयाण करता है तो वह भगवाने को प्राप्त हो जाता है; इसी प्रकार सत्त्वगुण की वृद्धि के समय भी परमात्मा के तत्त्वका ज्ञान उसे सहज ही हो जाता है। वह बहुत ही उत्तम समय है, अन्तकाल के समान ही महत्त्वपूर्ण तथा सहज है। ऐसे समय में विशेष सावधान होकर ध्यान की चेष्टा करना चाहिये; क्योंकि उस समय थोड़े साधन से ही बड़ा काम हो जाता है। पर यह कैसे पता लगे कि सत्त्वगुणकी वृद्धिका वह समय आ गया है ? इसके लिए भगावान् पहचान बताते हैं। वे गीता में कहते हैं—

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा  विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत।। (14/11)


‘जिस समय इस देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता (जागृति) और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है, उस समय यह जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा है।’


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