लोगों की राय

मनोरंजक कथाएँ >> पर-कटी पाखी

पर-कटी पाखी

आनन्द विश्वास

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8989
आईएसबीएन :9789351654810

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

421 पाठक हैं

उन्मुक्त विचार धारा और साधु मन की पाखी हर किसी की सहायता करने को तत्पर रहती है, उसी पाखी के जीवन में क्या घटता है यह जानने के लिए इस बाल उपन्यास को अवश्य पढ़ें

Par Kati Pakhi - Anand Vishwas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना


बालक के माता और पिता, दो पंख ही तो होते हैं उसके, जिनकी सहायता से बालक अपनी बुलन्दियों की ऊँचे-से-ऊँची उड़ान भर पाता है। एक बुलन्द हौसला होते हैं, अदम्य-शक्ति होते है और होते हैं एक आत्म-विश्वास, उसके लिये, उसके माता और पिता।

आकाश को अपनी मुट्ठी में बन्द कर लेने की क्षमता होती है उसमें। ऊर्जा और शक्ति के स्रोत, सूरज को भी, गाल में कैद कर लेने की क्षमता होती है बाल-हनुमान में । अदम्य शक्ति और ऊर्जा के स्रोत सूरज और चन्दा तो मात्र खिलौने ही होते हैं बाल-कृष्ण और बाल-हनुमान के लिये ।

क्योंकि ऊर्जा और शक्ति का अविरल स्रोत होता है उसके साथ, उसके पास, उसके माता और पिता।

शिव और शक्ति के इर्द-गिर्द ही तो परिक्रमा करते रहते हैं बाल-गणेश और उनकी कृपा मात्र से ही तीनों लोकों में वन्दनीय हो जाते हैं, पूजनीय हो जाते हैं और प्रथम-वन्दन के योग्य हो जाते हैं बाल-गणेश।

इस उपन्यास में पाखी हर घटना का मुख्य पात्र है। उपन्यास की हर घटना पाखी के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। पाखी के पिता सीबीआई अफसर भास्कर भट्ट जी की भ्रष्टाचारी और असामाजिक तत्वों के द्वारा हत्या करा दी जाती है। पाखी किस प्रकार से समाज और कानून की व्यवस्था से लड़कर उन्हें दण्डित कराती है, अत्यन्त रोचक घटना बन पड़ी है।

पर कटी हुई खून से लथपथ घायल चिड़िया का आकाश से पाखी की छत पर, उसके पास गिर जाने की घटना, पाखी के मन को विचलित कर देती है। फड़फड़ाती हुई बेदम चिड़िया के खून को अपने दुपट्टे से साफ कर, वह दौड़ पड़ती है अपने डॉक्टर अंकल के दवाखाने की ओर, उसका इलाज कराने के लिये, उसके जीवन को बचाने के लिये।

पाखी ने चिड़िया को बचा तो लिया, पर अब बिना पंख के ये बेचारी ‘पर-कटी चिड़िया’ कैसे जी पायेगी अपनी जिन्दगी के शेष दिनों को।

कोई पैसे वाली बड़ी आसामी रही होती तो पैसे के पंख लगाकर उड़ लेती। कोई चार्टर-प्लेन ही ले लेती और अपने घर पर ही लैंडिंग की सुविधा भी बना लेती। आगे-पीछे घूमने वाले हजारों नौकर-चाकर भी मिल जाते इसको। और अपनी जिन्दगी के शेष दिनों को भी बड़े ऐश और आराम के साथ पसार भी कर लेती यह । पर अब, पैसे के बिना कृत्रिम-पंख भी तो नहीं लगवा सकती यह।

बिना पंख के तो ये ‘पर-कटी’ अपने बच्चों के पास तक भी नहीं पहुँच सकती और कोमल बाल-पंख इतने शक्तिशाली कहा, जो उड़कर इसके पास तक आ भी सकें। अभी तो उन्हें ढंग से बैठना भी नहीं आता। ये तो अपने बच्चों के लिये दाना लेने ही आई थी और पंख देकर यहीं की होकर रह गई।

‘पर-कटी चिड़िया’ की आँखों में पाखी को अपना ही प्रतिबिम्ब तो दिखाई दे रहा था। सब कुछ तो समान था दोनों में। दोनों ही नारी जाति के थे, दोनों का ही एक-एक पंख कटा हुआ था, दोनों ही शोषित-वर्ग से थे और संयोग-वश नाम भी तो दोनों का एक ही था। और वह नाम था पाखी। हां, ‘पाखी’, ‘पर-कटी पाखी’।

राजा दिलीप ने भी नन्दिनी की गौ-सेवा इतनी तन्मयता और तत्परता के साथ नहीं की होगी जितनी सेवा-सुश्रुषा पाखी ने अपनी पर-कटी चिड़िया की की। राजा दिलीप का तो स्वार्थ था, पर पाखी का तो क्या स्वार्थ।

बन्द पिंजरे में तोते पाखी को बिलकुल भी रास नहीं आते। वह पलक से उन्हें छोड़ने का आग्रह करती है। वह पक्षी बचाओ अभियान का संचालन करती है और ‘पाखी हित-रक्षक समिति’ का गठन भी करती है।

इस उपन्यास की हर घटना सभी वर्ग के पाठकों को चिन्तन और मनन करने के लिये विवश करेगी। बालकों में संस्कार-सिचन और युवा-वर्ग का पथ-प्रदर्शन कर उन्हें एक नई दिशा देगी। ऐसा मेरा विश्वास है। अस्तु ।

- आनन्द विश्वास

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book