लोगों की राय

अतिरिक्त >> अपने अपने पिंजरे - 1

अपने अपने पिंजरे - 1

मोहनदास नैमिशराय

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9003
आईएसबीएन :81-7055-408-X

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

206 पाठक हैं

अपने अपने पिंजरे 1...

Apane Apane Pinjre - 1 - Hindi Book by Mohandas Naimishrai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हमारे स्कूल को बाहर के लोग अक्सर चमारों का स्कूल कहा करते थे। जैसे चमारों का नल, चमारों का नीम, चमारों की गली, चमारों की पंचायत, आदि-आदि, वैसे ही स्कूल के साथ जुड़ी थी हमारी जात। जाति पहले आती थी, स्कूल बाद में। यही कारण था कि इस स्कूल में कभी भी गिनती के पूरे अध्यापक न हुए थे। दो-दो और कभी-कभी तीन-तीन कक्षाओं को एक-एक अध्यापक ही संभालता था। बच्चे भेड़ बकरी की तरह कमरों मे भरे होते थे। अध्यापक लम्बी छुट्टी पर रहते थे या फिर दूसरे स्कूल में किसी-न-किसी तरह ट्रान्सफर करा लेते थे। सही बात तो यह थी कि हमारे स्कूल में स्वर्ण जाति का कोई अध्यापक आना ही नहीं चाहता था। इसके सीधे-सीधे दो कारण थे। पहला यह कि स्कूल चमारों की बस्ती में था, दूसरा इसमें सभी चमारों के बच्चे पढ़ते थे। जो अध्यापक आ भी जाते थे वे नाक-भौंह सिकोड़ कर पढ़ाया करते थे। हमारी ही बस्ती में हमारी जाति के नाम गालियाँ दे बैठते और हम सब सुनते थे।

- पुस्तक से

भूमिका

दलित साहित्य ने बहुत दूर तक साहित्य के अभिजात या संभ्रान्त चरित्र को खण्डित किया और ऐसी तल्ख सच्चाईयों को सम्मुख रखा जिसे इस देश का साहित्यिक मानस स्वीकार करने को तैयार नहीं है। इस शती के सातवें-आठवें दशक में मराठी साहित्य में उभरे दलित स्वर ने इस देश के साहित्य-मानस को बुरी तरह झकझोरा था और व्यथित भी किया था। उसमें न तो वह अभिजात्य था जिसकी हमारे मानस को आदत थी और न वह आडम्बर था जिसे हम बड़े स्नेह से यत्नपूर्वक सहेजते चले आ रहे थे। मराठी में दलित लेखकों द्वारा लिखे गये आत्म-वृत्त इस दृष्टि से बहुचर्चित हैं और महत्वपूर्ण भी। मराठी आलोचक इन रचनाओं को आत्मकथा या आत्मचरित्र कहने की बजाए ‘आत्मवृत्त’ कहना अधिक उचित समझते हैं, क्योंकि उनके कथनानुसार, आत्मकथाएँ अवकाश ग्रहण के उपरान्त बुढ़ापे में लिखी जाती हैं। वे स्वकेन्द्रित होती हैं। उनमें वर्णित प्रसंग कब के हो चुके होने से ‘भूतकालीन’ होते हैं, ‘वर्तमान’ से उनका कोई सरोकार नहीं होता। आत्मवृत्त युवा लेखकों द्वारा लिखे गये हैं, जिन्होंने अपने वृत्तों के माध्यम से यह जानने का प्रयास किया है कि आखिर हम कौन हैं, जिस रूप में आज हम समाज में पहचाने जाते हैं उसका कारण क्या है। ऐसे लेखक पीछे मुड़कर इसलिए देखते हैं कि सामने का रास्ता साफ और स्पष्ट दिखाई दे।

मोहनदास नैमिशराय की यह कृति इस अर्थ में आत्मकथा न होकर आत्मवृत्त है। उन्होंने अपने जीवन की उन तल्ख और निर्मम सच्चाइयों को इसमें उकेरा है जिनमें मानवीय पीड़ा अपनी पूरी सघनता से व्यक्त हुई है। इसका सबसे बड़ा कारण व्यक्ति के ऊपर सड़ी-गली व्यवस्था का वह आरोपण है जिसके प्रति वह विवश हो कर सब कुछ सहते जाने के लिए अभिशप्त रहा है।

यह बहुत अच्छी बात है कि जिस दलित मानसिकता की अभिव्यक्ति दो-तीन दशक पहले मराठी साहित्य में दिखायी शुरू हुई थी जिसने और वहाँ एक नये सौन्दर्यशास्त्र की रचना की, वह अब हिन्दी में भी मुखर हो रही है और मोहनदास नैमिशराय जैसे समर्थ लेखक पूरी संलग्नता और प्रतिबद्धता से उसे रूप और आकार दे रहे हैं।

- महीप सिंह

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book