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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान श्रीकृष्ण

भगवान श्रीकृष्ण

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 911
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भगवान श्रीकृष्ण....

Bhagwan Shrikrishna a hindi book by Gitapress - भगवान श्रीकृष्ण - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

बालकों को अपने पूर्वज महापुरुषों तथा अवतारों के सम्बन्ध का ज्ञान हो तथा उनके चरित्र की खास-खास घटनाओं के वे जानकार हो जायँ, इसी उद्देश्य से ‘भगवान् राम’ नामक पुस्तक निकाली गयी थी और इसी उद्देश्य से यह ‘भगवान् श्रीकृष्ण’ नामक पुस्तक भी निकाली जा रही है। इससे श्रीकृष्ण की मधुर तथा अद्भुत लीलाओं की जानकारी होगी। जीवनके लिये सदुपदेश प्राप्त होगा और बालकों का मनोरञ्जन भी होगा। हमारे बालक-बालिकाएँ इससे लाभ उठायेंगी—ऐसी आशा है।

विनीत-
प्रकाशक

भगवान् श्रीकृष्ण
 कंस का अत्याचार


अपने पञ्चांगों पर कलि-संवत् लिखा जाता है। विक्रम-संवत् 2009 में कलि-सं.5053 था। जिस दिन भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वी से गोलोकधाम गये थे।, उसी दीन से कलियगुग आरम्भ हुआ था। भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार हुए पाँच हजार वर्ष से अधिक हो गया है।

उस समय मथुरा के राजा उग्रसेनजी थे। उनका बड़ा पुत्र कंस बहुत बलवान् तथा निर्दय स्वभावका था। देशमें जितने अन्यायी अत्याचारी राजा थे, उनसे उसने मित्रता कर ली थी। बहुत-से-राक्षस उसके सेवक और सलाहकार हो गये थे। जो बुरे लोगों के संग में रहता है, बुरा हो जाता है। धर्मात्मा राजा उग्रसेन का पुत्र होने पर भी कंस अधर्मी और अन्यायी हो गया था।

उग्रसेन जी के भाई का नाम था देवक। देवकजी की छोटी पुत्री देवकी का विवाह वसुदेव जी से हुआ। कंस अपनी चचेरी बहिन देवकी से बहुत स्नेह करता था। जब विवाह हो जाने पर वसुदेवजी देवकी के साथ अपने घर रथ में बैठकर जाने लगे तो अपनी छोटी बहिन के प्रेम से कंस स्वयं ही उस रथ का सारथी बन गया। रास्ते में आकाशवाणी सुनायी पड़ी—‘मूर्ख कंस ! तू जिसे रथ में बैठाकर लिये जा रहा है, उसी के आठवें गर्भ से उत्पन्न पुत्र तुझे मारेगा।’

कंस आकाशवाणी सुनते ही क्रोध में भर गया। उसने देवकी के बाल पकड़ लिये और उन्हें मारने के लिये तलवार खींच ली। वसुदेवजी ने कंस को समझाया—‘देखो भाई ! जब मौत होने वाली होगी तब तो हो ही जायगी। बिना मौत के कोई किसी को मार नहीं सकता। तुम अपनी बहिन को मार कर पाप मत करो। पाप करने वाले की लोग निन्दा करते हैं और वह नरक में जाता है।’

कंस बड़ा निर्दयी और पापी था। वसुदेवजी के उपदेश का उस पर प्रभाव नहीं हुआ। उसने कहा—‘मैं इसी को मार देता हूँ, फिर मुझे मारने वाला इसका पुत्र तो उत्पन्न कैसे होगा ?’
वसुदेवजी ने देखा कि कंस समझाने से नहीं मानता तो वे बोले—‘तुम्हारी इस बहिन ने तो कोई अपराध किया नहीं है और इससे तुम्हें कोई डर भी नहीं है। तुम्हें डर तो इसके लड़कों से है, सो इसके जो भी संतान होगी, उसे मैं तुम्हारे पास पहुँचा दिया करूँगा।’

कंस ने वसुदावजी की बात मान ली। वह घर लौट आया। समय पर देवकी जी के पहला पुत्र हुआ तो वसुदेवजी जन्मते ही उस बालक को कंस के पास ले गये। अपने पुत्र को किसी निर्दयी पापी व्यक्ति के पास मारने के लिये अपने ही हाथों पहुँचा देना कितने दुःख की बात है। लेकिन अपने विचारों की रक्षा के लिये वसुदेवजी ने ऐसा दुःख भी उठाया। सत्पुरुष सत्य की रक्षा के लिये बड़े-से-बड़ा कष्ट सह लेते हैं।

पहले तो कंस ने उस बालक को लौटा दिया। लेकिन नारद जी चाहते थे कि भगवान् का अवतार जल्दी हो  जब दुष्ट लोग बहुत पाप करते हैं और भगवान् के भक्तों को कष्ट देते हैं, तभी भगवान् अवतार लेते हैं। इसलिये नारदजी ने एक गोल घेरे पर आठ लकीरें खींचकर कंस को गिनने के लिये कहा। कंस जहाँ से गिनता, उसी के पास की लकीर आठवीं हो जाती। इससे कंस को भ्रम हो गया कि इस प्रकार तो देवकी का प्रत्येक पुत्र आठवाँ कहा जा सकता है। वह स्वयं वसुदेवजी के घर गया और देवकीजी के पुत्र को छीनकर पत्थर पर पटककर उसने मार डाला। वसुदेव-देवकी कहीं भाग न जायँ, इस डर से उनको कारागार में डाल दिया।

कंस ने बलपूर्वक अपने पिता उग्रसेन जी को भी कारागार में डाल दिया। पिता को कैद करके वह दुष्ट अपने-आप राजा बन गया। देवकीजी के जो भी पुत्र होता, उसे वह पत्थर पर पटककर मार दिया करता था। इस प्रकार उसने देवकीजी के छः पुत्र जन्मते ही मार डाले।

भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार और गोकुल जाना



श्रीवसुदेवजी के और भी कई पत्नियाँ थीं। कंस के भय से मथुरा छोड़कर वे दूसरे स्थानों पर चली गयी थीं। श्रीवसुदेव जी के मित्र थे श्रीनन्दजी। वे गोपों के राजा थे। और वे मथुरा के सामने यमुनाजी के दूसरे किनारे गोकुल में रहते थे। वसुदेवजीकी एक पत्नी श्रीरोहिणीजी जब गर्भवती हुईं तो वे मथुरा से नन्दजी के यहाँ गोकुल में जाकर रहने लगीं। जब देवकी जी के सातवीं संतान होने को हुई तो भगवान् ने अपनी योगमाया से कहा—‘देवकी माता के गर्भ में इस बार संकर्षण जी हैं। उन्हें तुम रोहिणीजी के गर्भ में पहुँचा दो। इसके बाद मैं माता देवकी के यहाँ प्रकट हो जाऊँगा और तुम नन्दजी की पत्नी यशोदाजी की पुत्री बनकर प्रकट होना।’

भगवान् की आज्ञा से योगमाया ने देवकीजी के गर्भ को रोहिणीजी के गर्भ में पहुँचा दिया। रोहिणीजी का गर्भ भी उसी में मिल गया। इसी से श्रीबलरामजी प्रकट हुए। मथुरामें सबको यही पता लगा कि देवकी का सातवाँ गर्भ गिर गया। इसके पीछे जब स्वयं भगवान् देवकी माता से प्रकट होने को हुए तब देवकी माता के मुख पर अद्भुत तेज छा गया। कोई उनकी ओर देख भी नहीं सकता था। आठवें गर्भ की बात जानकर कंस ने कारागार को बंद करा दिया और बहुत बलवान् पहरेदार वहाँ रख दिये।

भाद्रपद महीने के कृष्णपक्षमें अष्टमीकी आधी रातको कंस कारागार में वसुदेव-देवकी जी के सामने भगवान् प्रकट हुए। भगवान् के शरीर का रंग-नील-कमल के समान सुन्दर नील-श्याम था। उन्होंने बिजली के समान चमकता पीताम्बर पहिन रखा था, उनके चार भुजाएँ थीं और उनमें शंख, चक्र, गदा, तथा पद्म थे। भगवान् ने रत्नों से जड़ा मुकुट, कुण्डल, कंकड़, बाजूबंद आदि बहुमूल्य आभूषण धारण कर रखे थे और उनके अंगसे इतना प्रकाश निकल रहा था कि समस्त कारागार प्रकाशित हो रहा था।

वसुदेव तथा देवकी जी ने भगवान् की स्तुति की। माता देवकी ने भगवान् से प्रार्थना की—‘आप अपने इस चतुर्भुज रूप को छिपा लें। आपके अवतार की बात सुनकर कंस अभी यहाँ दौड़ा आयेगा। कंस से मुझे बड़ा डर लगता है।’
भगवान् ने अपना चतुर्भुज रूप छिपा लिया और वे नन्हें से शिशु बन गये। भगवान् ने वसुदेवजी से कह दिया कि ‘आप मुझे गोकुल पहुँचा दें और वहाँ से यशोदा जी की कन्या को ले आवें’। भगवान् की आज्ञा मानकर वसुदेव जी ने उन्हें एक सूप में रखा। भगवान् की इच्छा से वसुदेव जी के हाथ की हथकड़ी तथा पैर की बेड़ी अपने-आप खुल गयी। सब दरवाजे भी अपने-आप खुल गये और सब पहरेदारों को गाढ़ी नींद आ गयी।

उस समय बिजली कड़क रही थी। जोर की वर्षा हो रही थी। वसुदेवजी जब कारागार से निकले तो शेषनागजी चुपचाप उनके पीछे चलने लगे और अपने सहस्र फण फैलाकर भगवान् श्रीकृष्ण तथा वसुदेवकी के ऊपर छाता बनाकर वर्षा से बचाने लगे। यमुनाजी में बाढ़ आयी थी, लेकिन वसुदेवजी के लिये यमुनाजी इतनी घट गयीं कि उनमें घुटने से भी नीचे जल रह गया।


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